क्यों खास है कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट चर्च का करीब आना

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आर.के. सिन्हा

उत्तर भारत के ईसाई समाज के लिए पिछली 2 नवंबर की तारीख विशेष रही। उस दिन जब सारी दुनिया के ईसाई ऑल सोल्स डेमना रहे थे, तब हरियाणा के शहर रोहतक में कैथोलिक और प्रोटेस्टेट पादरी समुदाय के लोग मिलजुलकर इस त्यौहार पर एक साथ बैठे। इन्होंने तय किया कि वे देश और अपने समाज के हित के लिये मिलकर प्रयास करते रहेंगे। ईसाई इस दिन कब्रिस्तानों में जाते हैं और अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। ऑल सोल्स डेहिन्दुओं के पितृ पक्ष के श्राद्ध से मिलता-जुलता है।

दरअसल ईसाई धर्म के दो मुख्य संप्रदायों- कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेंट में कुछ बिन्दुओं  पर मतभेद रहे हैं। कैथोलिक मदर मैरी की पूजा में भी विश्वास करते हैं। प्रोटेस्टेंट उन पर विश्वास नहीं करते हैं और उनके लिए मैरी केवल यीशु की भौतिक माँ है। हां, दोनों संप्रदायों के लिये ईसा मसीह तथा बाइबिल परम आदरणीय हैं। कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट दोनों के लिए पवित्र दिन क्रिसमस और ईस्टर ही हैं। भारत में कैथोलिक ईसाइयों की आबादी अधिक है। ईसाइयों का भारत में आगमन चालू हुआ 52 ईसवी में। माना जाता है कि तब ईसा मसीह के एक शिष्य सेंट थॉमस केरल आए थे और ईसाई धर्म का विस्तार होने लगा। कहा तो यह भी जाता है कि सेंट थामस बनारस भी आये थे।

देखिए भारत में 1757 में पलासी के युद्ध के बाद गोरों ने दस्तक दी। गोरे पहले के आक्रमणकारियों की तुलना में ज्यादा समझदार थे। वे समझ गए थे कि भारत में धर्मांतरण करवाने से ब्रिटिश हुकुमत का विस्तार संभव नहीं होगा। भारत से कच्चा माल ले जाकर वे अपने देश में औद्योगिक क्रांति की नींव रख सकेंगे। इसलिए ब्रिटेन, जो एक प्रोटेस्टेंट देश हैं, ने भारत में 190 सालों के शासनकाल में धर्मांतरण शायद ही कभी किया हो। इसलिए ही भारत में प्रोटेस्टेंट ईसाई बहुत कम हैं। भारत में ज्यादातर ईसाई कैथोलिक हैं। इनका धर्मांतरण करवाया आयरिश,पुर्तगाली स्पेनिश ईसाई मिशनरियों ने। प्रोटेस्टेंट चर्च तो ज्यादातर समाज सेवा में ही लगी रही।

भारत में कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेंट ईसाइयों के बीच दूरियों को कम करने के स्तर पर दिल्ली ब्रदरहुड सोसायटी लगातार प्रयासरत है। इसी संगठन से गांधी जी और गुरुदेव रविन्द्रनाथ टेगौर के परम मित्र दीनबंधु सीएफ एंड्रूज भी जुड़े थे। वे दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी से 1916 में मिले थे। उसके बाद दोनों घनिष्ठ मित्र बने। उन्होंने  1904 से 1914 तक राजधानी के सेंट स्टीफंस कॉलेज में पढ़ाया। उन्हीं के प्रयासों से ही गांधी जी पहली बार  1915 में दिल्ली आए थे। वे भारत के स्वीधनता आंदोलन से भी जुड़े हुए थे। उनके समय से भारत के ईसाइयों के अलग-अलग संप्रदायों में एकता और भाईचारे की छिट-पुट पहल होने लगी थी। महत्वपूर्ण है कि प्रोटेस्टेंट चर्च ने भारत में कभी धर्मातरण की भी कोई ज्यादा कोशिशें नहीं की। यह बेहद महत्वपूर्ण तथ्य है।

देखिए, मोटा-मोटी यह कह सकते हैं जहां कैथोलिक ईसाइयों के परम आदरणीय  रोम के पोप हैं, वहीं प्रोटेस्टेंट उन्हें अपना धर्मगुरु मानने से इंकार करते हैं। हां, उनका आदर तो सब करते हैं। दुनियाभर में लगभग 7.2 अरब लोग ईसाई धर्म को मानते हैं। भारत में भी एक बड़ी आबादी इस धर्म को मानती है, हालांकि ईसाई धर्म के बारे में सामान्य लोगों में जानकारी का अभाव नजर आता है। ईसाई धर्म एकेश्वरवादी धर्म है, जिसमें ईश्वर को पिता और ईसा मसीह को ईश्वर की संतान माना जाता है। इसके अलावा इसमें पवित्र आत्मा की भी अवधारणा है। इन तीनों को मिलाकर ट्रिनिटी बनती है, जो ईसाइयों के लिए सबसे पवित्र है।

भारतीय ईसाई अनेक संप्रदायों में बिखरे हुए हैं और उनका पुरातन इतिहास भी विविधता से भरा है। मुख्य रूप से ईसाई संप्रदाय संख्या के हिसाब से कैथोलिक हैं। इसके अलावा यह ओर्थोडोक्स, प्रोटेस्टेंट्स, ईवेन जेलिकल और पेंटेकोस्टल समूह और अनेक असंगठित समूह में फैला है। भारत में ईसाइयों का पहला प्रभावकारी स्वरूप कैथोलिक देश पुर्तगाल से 1498 ई. में पुर्तगालियों के आने से हुआ और ब्रिटिश, मूलत: एंग्लीकन या प्रोटेस्टेंट, का प्रभाव ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन 1757 से हुआ। उपर्युक्त सभी समूह स्वतंत्र हैं, परंतु अधिकांश लोगों के द्वारा एक आस्था रखने वाले समूह के रूप में देखे जाते हैं। जब कभी भारतीय ईसाइयों की तरफ देखा जाए तो इन वास्तविकताओं को समझना चाहिए।

ईसाई धर्म के विद्वानों का कहना है कि भारत में  कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेंट के बीच की दूरियों को कम करने की कोशिशें गुजरे पचास सालों से तेज होती गईं। हालांकि प्रयास पहले भी चल रहे थे। दक्षिण भारत इस बाबत आगे रहा। वहां पर कैथोलिक चर्च तथा प्रोटेस्टेंट चर्च ने प्राकृतिक आपदा के समय मिल-जुलकर काम किया। मसलन केरल में कुछ साल पहले आई बाढ और सुनामी के समय दोनों चर्च मिलकर पीड़ितों के पुनर्वास के लिये काम कर रहे थे। यह सुखद पहल है। यह भी महत्वपूर्ण है कि कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के बीच उस तरह की कतई कटुतापूर्वक स्थिति नहीं है जैसी हम मुसलमानों के सुन्नी और शिया संप्रदायों में देखते हैं। वहां पर तो कटुता न होकर जानी दुश्मनी है। उनमें आपस में हमेशा तलवारें खिंची रहती हैं। इस्लाम के नाम पर बने पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में शियाओं की लगातार हत्यायें हो रही हैं। उन्हें दोयम दर्जे का इंसान माना जाता है। अफगानिस्तान में तालिबानियों ने हजारों शिया मुसलमानों का कत्लेआम किया है। ईरान और सऊदी अरब में शिया –सुन्नियों में कुत्ते-बिल्ली वाला बैर का मुख्य कारण यही है कि ईरान शिया और सऊदी सुन्नी मुसलमानों का मुल्क है।

देखिए अगले महीने क्रिसमस है और उससे दो-तीन हफ्ते पहले ही देश के अलग-अलग भागों में कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेंट ईसाइयों की तरफ से सर्वधर्म सभाएं आयोजित की जाने लगेंगी। उनमें विभिन्न धर्मों–संप्रदायों के विद्वान आपसी भाईचारे तथा सदभाव को मजबूत करने के लिए अपने विचार रखेंगे। प्रोटेस्टेंट संप्रदाय की तरफ से कुछ कार्यक्रम दिल्ली ब्रदरहुड़ सोसायटी आयोजित कर रही है। इसमें चर्च के आगे के कार्यक्रम तथा योजनाएं बनेंगी। इसी संगठन ने विश्व विख्यात सेंट स्टीफंस कॉलेज तथा दशकों से दीन-हीन रोगियों का मुफ्त इलाज कर रहे सेंट स्टीफंस अस्पताल की स्थापना की है। ये देश के विभिन्न भागों में धार्मिक,सामाजिक, शिक्षण संस्थानों को चलाता भी है। कैथोलिक चर्च भी इस तरह के आयोजन करेगा। निश्चित रूप से यह देश के लिये अच्छी खबर है कि ईसाइयों के दो मुख्य संप्रदाय आपस में करीब आ रहे हैं। इन्हें देश और समाज कल्याण के कार्यक्रमों पर अधिक फोकस करना होगा।

खैर,यह मानना होगा कि कोई भी इस तरह का मसला नहीं है जिसका हल संवाद से संभव न हो। इस रोशनी में कैथोलिक- प्रोटेस्टेंट के मौजूदा संबंधों को देखना होगा। इनसे शिया- सुन्नी संप्रदायों को भी इनसे कुछ सीखना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)

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