50 साल पहले इंदिरा गांधी ने की थी संविधान की हत्या,आपातकाल के 50 वर्ष

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नीरज कुमार दुबे (वरिष्ठ पत्रकार )
देश 25 जून, 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा भारत में लगाए गए आपातकाल की 50वीं बरसी मना रहा है। मोदी सरकार आपातकाल की अवधि के दौरान अमानवीय पीड़ा झेलने वालों के व्यापक योगदान को याद करने के लिये आज के दिन को संविधान हत्या दिवस के रूप में मना रही है तो दूसरी ओर राजनेता हों या मीडियाकर्मी अथवा सामान्य जन, सभी उस दौर को याद कर कांग्रेस को कोस रहे हैं क्योंकि वह देश की सरकार द्वारा अपनी ही जनता पर किये गये अत्याचार की निर्मम पराकाष्ठा थी। उस समय देश में एक लाख से ज्यादा लोगों को जेलों में ठूंस दिया गया था। देश के जितने भी बड़े विपक्षी नेता थे, सभी के सभी सलाखों के पीछे डाल दिए गए थे। राजनीतिक बंदियों की अपने परिवारों से मुलाकात तक पर पाबंदी लगा दी गई थी। नेता ही नहीं अदालतें भी एक तरह से कैद हो चुकी थीं। किसी को जमानत नहीं दी जा रही थी और मानव अधिकारों के उल्लंघन पर स्वतः संज्ञान नहीं लिया जा रहा था। राजनीतिक कार्यकर्ता जेल में मानसिक-शारीरिक यातनाएं सह रहे थे। पुलिस हिरासत और जेलों में मौत हो रही थीं लेकिन कहीं कोई सुनने वाला नहीं था।
भयावह माहौल था
हम आपको बता दें कि देश में आपातकाल के 1975 में आधिकारिक रूप से लागू होने से पहले, ग्रामीण इलाकों में छोटे बच्चे अक्सर बिना कपड़ों के बेफिक्री से दौड़ते-भागते नजर आते थे। लेकिन आपातकाल के दौरान हालात इतने भयावह हो गए थे कि लोगों ने मासूम बच्चों को भी कपड़े पहनाने शुरू कर दिए थे, यह शालीनता की भावना से नहीं हो रहा था बल्कि जबरन नसबंदी की आशंका से उपजा डर था, जिसने पूरे समाज को जकड़ लिया था। सामूहिक नसबंदी अभियान की यादें आज भी जीवित बचे पीड़ितों को परेशान करती हैं क्योंकि कई लोगों की नसबंदी जबरदस्ती की गई थी। अकेले 1976 में, पूरे भारत में 80 लाख से अधिक लोगों की नसबंदी की गई थी। इनमें से ज्यादातर पुरुष थे, जिनमें से कई लोगों की नसबंदी स्वैच्छिक नहीं थी।

कैसे तानाशाह बनी थीं इंदिरा गांधी?
हम आपको बता दें कि 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तानाशाह इसलिए बन गयी थीं और देश पर आपातकाल इसलिए थोप दिया था क्योंकि एक पुराना मामला राजनीतिक रूप से उनके लिए बड़ी मुश्किलों का सबब बन गया था। दरअसल 1971 में हुए लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी ने अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी राज नारायण को रायबरेली संसदीय क्षेत्र में पराजित किया था। लेकिन चुनाव परिणाम आने के चार साल बाद राज नारायण ने हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दी। उन्होंने दलील दी थी कि इंदिरा गांधी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया, चुनाव में तय सीमा से अधिक पैसे खर्च किए और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए ग़लत तरीकों का इस्तेमाल किया। मामले पर सुनवाई करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 12 जून 1975 को इंदिरा गांधी को आरोपों में दोषी पाया और छह साल के लिए पद से बेदखल कर दिया तथा इंदिरा गांधी के चिर प्रतिद्वंद्वी राज नारायण सिंह को चुनाव में विजयी घोषित कर दिया था। अदालत के इस फैसले ने देश में बड़ा राजनीतिक तूफान खड़ा कर दिया था। इंदिरा गांधी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे डाली थी। सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश को बरकरार रखा, हालांकि इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बने रहने की इजाजत दे दी। इस फैसले से विपक्ष में जहां नया जोश आ गया वहीं इंदिरा गांधी बौखला गयी थीं।
अपने खिलाफ विपक्ष की एकजुटता और विरोध प्रदर्शन बढ़ते देख इंदिरा गांधी ने 25-26 जून की रात को आपातकाल लगाने का फैसला किया और रात्रि को ही राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के दस्तखत के साथ भारत में आपातकाल लागू हो गया। अगली सुबह समूचे देश ने रेडियो पर इंदिरा गांधी की आवाज में संदेश सुना कि भाइयों और बहनों, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। लेकिन इससे सामान्य लोगों को डरने की जरूरत नहीं है। लोगों को आपातकाल का मतलब तब समझ आया जब उन्हें पता चला कि उनके सभी मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया है। इसके साथ ही सरकार विरोधी भाषणों और किसी भी प्रकार के प्रदर्शन पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया है। इससे जनता नाराज हुई और सड़कों पर उतरने लगी लेकिन सड़क पर उतरने वाले हर शख्स को जेलों में ठूंस दिया गया था।

संविधान की हत्या की गयी थी
हम आपको बता दें कि आपातकाल के दौरान तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने देश में कुल 48 अध्यादेश लागू किए थे जिसमें आंतरिक सुरक्षा कानून अधिनियम (मीसा) में संशोधन के लिए लाए गए पांच अध्यादेश भी शामिल थे। प्रशासन को बिना किसी वारंट के किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने का अधिकार देने वाले इस कानून को अक्सर ‘दमनकारी’ कानून की संज्ञा दी जाती है। पचास वर्ष पहले 25 जून 1975 को लगाया गया आपातकाल 21 महीने जारी और इस दौरान सरकार ने कई बार संविधान में बदलाव किए जिसमें राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव को न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा गया तथा संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’, ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘अखंडता’ जैसे शब्द जोड़े गए। विभिन्न कानूनों में संशोधनों से सत्ता संतुलन केंद्र सरकार के पक्ष में हो गया और न्यायपालिका की शक्तियों में कटौती कर दी गई।
देश में आपाताकाल लागू होने पर कुछ ही दिनों के भीतर 29 जून 1975 को सरकार ने मीसा में बदलाव करने के लिए पहला अध्यादेश जारी किया था। आपातकाल के दौरान मीसा (संशोधन) अध्यादेश को और चार बार लागू किया गया तथा संसद द्वारा उसे मंजूरी दे दी गई। अगले ही दिन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने एक अध्यादेश भारत रक्षा अधिनियम (संशोधन) लागू किया, जिससे सरकार को देश में शांति और कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए ज्यादा शक्तियां मिल गईं। आपातकाल के दौरान संसद के संक्षिप्त सत्र आयोजित किए गए। विपक्ष के कई नेता सलाखों के पीछे थे और कांग्रेस ने अपने प्रचंड बहुमत का इस्तेमाल करते हुए कई अध्यादेशों पर संसदीय मोहर लगवाने के लिए मसौदा विधेयक को पारित कर दिया गया था।

नेताओं की जुबानी, उस दौर की कहानी
उस दौर के बारे में भाजपा नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री विजय गोयल ने बताया कि जब आपातकाल घोषित किया गया तो कुछ पुलिसकर्मियों ने रात में हमारे दरवाजे पर दस्तक दी। जब वे मेरे पिता को गिरफ्तार करने आए, तो हमने सोचा कि ऐसा इसलिए हुआ है, क्योंकि वे (इंदिरा) गांधी और कांग्रेस के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में शामिल थे। हमने सोचा कि वे उन्हें गिरफ्तार करेंगे और कुछ दिनों में रिहा कर देंगे। लेकिन अगली सुबह उन्हें पता चला कि देश में आपातकाल लगा दिया गया है। उस समय दिवंगत अरुण जेटली दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष थे। विजय गोयल ने कहा कि वरिष्ठ पत्रकार रजत शर्मा और वह दिल्ली विश्वविद्यालय में आयोजित विरोध प्रदर्शनों में शामिल रहे थे। विजय गोयल ने उस दौर को याद करते हुए बताया कि वह किस तरह पुलिस से बचने के लिए छतों से कूदकर भाग रहे थे। कैसे लोगों को जेलों में प्रताड़ित किया गया। उन्होंने बताया कि वे लगातार अपना ठिकाना बदलते रहते थे और अक्सर पुलिस से बचने के लिए खुले में सोते थे।
उन्होंने बताया कि अंत में पार्टी नेताओं ने भूमिगत गतिविधियों में शामिल लोगों को समर्पण करने की सलाह दी। उस समय तक रजत शर्मा पहले ही गिरफ्तार हो चुके थे, उन्हें पीटा गया लेकिन रजत शर्मा ने विजय गोयल के ठिकाने को लेकर जुबान नहीं खोली। विजय गोयल ने बताया कि कैदी अक्सर खराब भोजन को लेकर थालियां बजा बजाकर विरोध जताते थे और इसके लिए उन्हें पीटा जाता था। बीमार कैदियों को पैरोल नहीं दी गई। लेकिन पुलिस स्टेशन में जेलों के मुकाबले कहीं ज्यादा प्रताड़ना दी जाती थी। लेकिन ऐसे माहौल में भी हौंसले बुलंद रखने के लिए कैदियों द्वारा कविता पाठ, पेंटिंग और बैडमिंटन प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती थीं। उन्होंने बताया कि आपातकाल ने ना जाने कितनी जिंदगियों को तबाह कर दिया। लोगों को भयानक तरीके से प्रताड़ित किया जाता था। उनके बाल और नाखून खींचे जाते थे, बर्फ की सिल्लियों पर लिटाया जाता, महिलाओं को भी यातनाएं दी जाती थीं।
वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के पूर्व प्रचारक और राजनीतिक विचारक केएन गोविंदाचार्य ने आपातकाल को ‘अशुभ’ करार देते हुए कहा कि इस दौरान आरएसएस ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। भाजपा के पूर्व पदाधिकारी ने कहा कि संघ परिवार ने उस आंदोलन को स्थिरता दी। उन्होंने कहा, ‘समुद्र मंथन के दौरान संतुलन कायम रखने के लिए जिस प्रकार कूर्म ने बासुकी नाग और मंदराचल पर्वत के साथ एक भूमिका अदा की, आपातकाल में वही भूमिका संघ की थी।’

मीडिया ने भी सही प्रताड़ना
वहीं उस दौर में मीडिया की भूमिका को देखें तो समाचार पत्रों पर सेंसरशिप, पत्रकारों की गिरफ्तारी और समाचार एजेंसियों का विलय, ऐसे ही कुछ तरीकों से इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने आपातकाल के 21 महीनों के दौरान सार्वजनिक विमर्श को नियंत्रित करने की कोशिश की थी। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, आपातकाल के दौरान, सरकार के हिसाब से काम करने से इंकार करने वाले 200 से अधिक पत्रकारों को विपक्षी नेताओं के साथ जेल में डाल दिया गया था। इसके साथ ही सरकार ने चार समाचार एजेंसियों- प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया, यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान समाचार और समाचार भारती का विलय करके एक समाचार एजेंसी ‘समाचार’ बना दी थी। उस समय समाचार रिपोर्टिंग पर कड़ी निगरानी रहती थी और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) में तैनात एक आईपीएस अधिकारी ने यह सुनिश्चित किया कि अखबारों में सरकार के पक्ष में ही खबरें पहुंचें। पत्रकारों को संजय गांधी और पुरुषों की जबरन नसबंदी से जुड़े उनके परिवार नियोजन कार्यक्रम की प्रशंसा करने तथा विपक्ष से संबंधित खबरों को कुछ पैराग्राफ में समेटने के लिए मजबूर किया जाता था।
वरिष्ठ पत्रकार एस वेंकट नारायण आपातकाल के दौरान ‘ऑनलुकर’ पत्रिका के संपादक थे। उन्होंने बताया कि कैसे उन्हें जो कुछ भी प्रकाशित करना होता था, उसकी पांडुलिपि पीआईबी में मुख्य सेंसर अधिकारी हैरी डी’पेन्हा के पास मंजूरी के लिए भेजनी पड़ती थी। इंडियन एक्सप्रेस के कुलदीप नैयर और ‘द मदरलैंड’ के केआर मलकानी सहित संपादकों को समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण के प्रति सहानुभूति रखने वाली खबरें तथा इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय पर सनसनीखेज खबरें प्रकाशित करने के लिए गिरफ्तार किया गया था। महात्मा गांधी द्वारा स्थापित नवजीवन प्रेस की मुद्रण सुविधाएं रोक ली गई थीं जबकि महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी द्वारा संपादित साप्ताहिक ‘हिम्मत’ को कुछ आपत्तिजनक खबरों के कारण काफी राशि जमा करने के लिए कहा गया था। लंदन में ‘द संडे टाइम्स’ के साथ काम कर रहे नारायण ने कुलदीप नैयर द्वारा लिखी गई एक किताब की समीक्षा करने के लिए इंदिरा गांधी के सूचना सलाहकार एच वाई शारदा प्रसाद की नाराजगी मोल ले ली थी। कुलदीप नैयर ने तत्कालीन प्रधानमंत्री के अपने कैबिनेट मंत्रियों के साथ व्यवहार की तुलना स्कूली बच्चों के साथ एक प्रधानाध्यापिका के बर्ताव से की थी।
वेंकट नारायण ने याद करते हुए कहा, ‘जब मैं द संडे टाइम्स के साथ तीन महीने की स्कॉलरशिप के बाद भारत लौटा, तो मैंने पाया कि दिल्ली पुलिस के कुछ पुलिसकर्मी हवाई अड्डे पर मेरा इंतजार कर रहे थे। उन्होंने मेरे सामान की तलाशी ली ताकि सुनिश्चित हो जाए कि मैं देश में कोई भी आपत्तिजनक सामान लेकर नहीं आया हूं।’ यही नहीं, सरकार ने नयी दिल्ली में 26 और 27 जून को अखबारों के संस्करणों को विलंबित करने या रद्द करने के लिए बहादुर शाह जफर मार्ग पर स्थित समाचार पत्रों के कार्यालयों की बिजली आपूर्ति काट दी थी। सरकार ने उन समाचार पत्रों के विज्ञापनों को भी रोक दिया जो उसकी नीतियों की आलोचना करते थे।
इसके अलावा, सरकार ने समाचार पत्रों को संपादकीय वाले कॉलम खाली छोड़ने पर भी चेतावनी जारी की थी। हम आपको याद दिला दें कि इंडियन एक्सप्रेस ने 28 जून, 1975 के अपने संस्करण में संपादकीय खाली छोड़ा था। उस समय रिपोर्टरों को ध्यान रखना होता था कि सरकार नाराज न हो जाए। मोरारजी देसाई की सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने चार समाचार एजेंसियों को फिर से मूल स्वरूप में लौटाया था।
पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस ने बड़े जोरशोर से और सुनियोजित तरीके से देश में यह भ्रम फैलाया था कि यदि भाजपा की 400 सीटें आ गयी तो वह संविधान को बदल देगी। कांग्रेस और विपक्ष के तमाम नेता अपनी रैलियों और सभाओं में जनता को डरा रहे थे कि भाजपा यदि 400 सीटें पार कर गयी तो संविधान के साथ छेड़छाड़ करेगी। हैरानी की बात यह थी कि जिस पार्टी ने संविधान को बंधक बना कर और उसकी हत्या कर देश पर आपातकाल थोपा था वह पार्टी और उसके नेता संविधान की रक्षा का आह्वान कर रहे थे। देखा जाये तो आपातकाल की बरसी हमें निरंकुश ताकतों के खिलाफ विद्रोह तथा तानाशाही, भ्रष्टाचार और वंशवाद के विरुद्ध संग्राम का साहस देती है। आपातकाल की बरसी साथ ही हमें उस राजनीतिक दल और उस राजनीतिक परिवार से भी सावधान रहने का सबक भी सिखाती है जो लोकतंत्र और संविधान के बारे में बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं लेकिन उनका इतिहास सत्ता के सुख के लिए और एक परिवार की खातिर देश को जेल में तब्दील कर देने का है।

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