तिब्बत पर भारत -अमेरिका साथ आए, बौखलाया चीन
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केएस तोमर की कलम से

अमेरिका और चीन के बीच तनावपूर्ण संबंधों की पृष्ठभूमि में तथा अमेरिकी संसद द्वारा पारित रिजॉल्व तिब्बत एक्ट को, जो तिब्बती लोगों को पूर्ण समर्थन देने का वादा करता है, अपनाने के बाद अमेरिकी संसद का एक प्रतिनिधिमंडल हाल ही में भारत के धर्मशाला में दलाई लामा से मिला, जिससे चीन बुरी तरह भड़क गया। रिपब्लिकन प्रतिनिधि माइकल मैककॉल के नेतृत्व में सात सदस्यीय उच्च स्तरीय अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल ने रिजॉल्व तिब्बत एक्ट के महत्व पर चर्चा की, जिसे राष्ट्रपति जो बाइडेन द्वारा अनुमोदित किया जाएगा, जो तिब्बती लोगों के अधिकारों के प्रबल पैरोकार हैं।

इसी से संबंधित घटनाक्रम में भारतीय प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात की, जिन्होंने उन्हें तीसरे कार्यकाल के लिए बधाई दी और देश में हुए लोकसभा चुनाव की निष्पक्षता, पारदर्शिता और व्यापकता की सराहना की। प्रधानमंत्री ने एक्स पर अपना संदेश पोस्ट करते हुए लिखा कि ‘प्रतिनिधिमंडल में शामिल अमेरिकी संसद के मित्रों के साथ विचारों का बहुत अच्छा आदान-प्रदान हुआ।’ उन्होंने आगे कहा कि वह ‘भारत-अमेरिका के बीच व्यापक वैश्विक रणनीतिक साझेदारी को आगे बढ़ाने में मजबूत द्विदलीय समर्थन’ को ‘गहराई से’ महत्व देते हैं। प्रधानमंत्री मोदी के पोस्ट में दलाई लामा के साथ अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल की बैठक का उल्लेख नहीं है। रणनीतिक दृष्टि से इसे गुप्त रखा गया है। निर्वासित तिब्बती सरकार की मेजबानी करने वाले भारत का तिब्बत के साथ एक अनूठा संबंध है।

भारत सरकार अक्सर तिब्बती मुद्दे के प्रति अपने समर्थन और चीन के साथ व्यापक रणनीतिक व आर्थिक संबंधों के बीच संतुलन बनाते हुए कदम उठाती रही है। अमेरिकी प्रतिनिधि मंडल की धर्मशाला यात्रा के तुरंत बाद इस बैठक का समय चीन की आक्रामक नीतियों का मुकाबला करने में साझा मूल्यों और आपसी हितों को रेखांकित करने के लिए एक समन्वित कूटनीतिक प्रयास का संकेत देता है। जैसी की उम्मीद थी, चीनी दूतावास की ओर से इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की गई, जिसमें अमेरिका को गलत संदेश देने से बचने की चेतावनी दी गई। चीनी मिशन ने एक्स पर कहा, ‘हम अमेरिकी पक्ष से आग्रह करते हैं कि वह दलाई समूह के चीन विरोधी अलगाववादी प्रकृति को पूरी तरह पहचाने, शिजांग मुद्दे पर अमेरिका ने चीन से जो वादा किया था, उसका सम्मान करे और दुनिया को गलत संदेश देना बंद करे।’

तिब्बती इतिहास एवं संस्कृति को कमजोर करने के लिए चीन तिब्बत को शिजांग कहता है, जिसे अक्टूबर, 1950 में उसने जबरन हड़प लिया था। दलाई लामा धर्मशाला में निर्वासित रहकर तिब्बती लोगों के अधिकारों के लिए निरंतर संघर्ष कर रहे हैं। इन बैठकों पर चीनी प्रतिक्रिया संभवतः बहुआयामी होगी। कूटनीतिक मोर्चे पर बीजिंग वाशिंगटन और नई दिल्ली के समक्ष औपचारिक विरोध दर्ज कर सकता है। वह तिब्बत पर चीनी रुख को आंतरिक मामला बताते हुए उसमें किसी भी तरह के हस्तक्षेप की निंदा करेगा। हालांकि, व्यापक रणनीतिक निहितार्थ चीन के क्षेत्रीय कूटनीतिक दृष्टिकोण को फिर से निर्धारित करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।

विशेषज्ञों का कहना है कि तिब्बत के बारे में भारत और अमेरिका के विचार एक जैसे हैं और दोनों का रुख एक समान है, जिससे चीन बौखलाया हुआ है। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि चीन ने 1962 में भारत के साथ धोखा किया, जिसे 2020 में दोहराया गया, जब लद्दाख में टकराव हुआ। प्रधानमंत्री मोदी ने बीजिंग के साथ रिश्तों को सामान्य बनाने के लिए गंभीर पहल की थी, लेकिन चीन ने ऐसा नहीं किया, जिसके चलते वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तनावपूर्ण स्थिति बनी हुई है और कई दौर की बातचीत के बाद भी कोई परिणाम नहीं निकला है।
इन बैठकों से पता चलता है कि अमेरिकी और भारतीय हितों के मेल से एशिया में एक नई भू-राजनीतिक परिदृश्य का विकास हो रहा है। दोनों देश खासकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव और आक्रामक व्यवहार के प्रति समान रूप से आशंकित हैं। अपनी रणनीतिक साझेदारी को मजबूत करते हुए अमेरिका और भारत चीनी महत्वाकांक्षाओं का मुकाबला करने के लिए एक नियम-आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के प्रति प्रतिबद्धता जता रहे हैं। बदले में चीन अपने गठजोड़ को मजबूत करने और क्षेत्र में अपने प्रभाव का विस्तार करने पर जोर दे सकता है। इसके तहत वह पाकिस्तान के साथ संबंधों को गहरा कर सकता है, अन्य दक्षिण एशियाई देशों के साथ भागीदारी बढ़ा सकता है और रणनीतिक पैठ जमाने के लिए अपनी बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव परियोजनाओं में तेजी ला सकता है। इसके अलावा, चीन भारत के साथ विवादित सीमाओं पर अपनी सैन्य स्थिति को बढ़ा सकता है, खासकर लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश के विवादास्पद क्षेत्रों में, ताकि अपने क्षेत्रीय दावों को पुख्ता किया जा सके।

तात्कालिक रणनीतिक गणनाओं से परे, ये बैठकें लोकतांत्रिक मूल्यों और तानाशाही शासन के बीच व्यापक वैचारिक प्रतिस्पर्धा को भी उजागर करती हैं। अहिंसक प्रतिरोध और आध्यात्मिक नेतृत्व के प्रतीक दलाई लामा उन मूल्यों के प्रतीक हैं, जो लोकतंत्र और मानवाधिकारों की वैश्विक पैरोकारी करते हैं। उनके साथ जुड़कर, अमेरिका और भारत इन सिद्धांतों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता मजबूत कर रहे हैं। दूसरी तरफ, चीन को अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपने मानवाधिकार रिकॉर्ड को बचाने की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। तिब्बत, शिनजियांग और हांगकांग में चीनी गतिविधियों पर बढ़ती वैश्विक निगरानी बीजिंग को रक्षात्मक स्थिति में ले आई है। वैश्विक प्रभाव की लड़ाई में, सॉफ्ट पावर और नैतिक अधिकार तेजी से महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। धर्मशाला और दिल्ली की बैठकें अमेरिका और भारत के सॉफ्ट पावर को बढ़ाने का काम करती हैं, जिससे उन्हें मानवाधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों का अगुआ माना जाता है।
जैसे-जैसे एशिया में भू-राजनीतिक बिसात जटिल होती जाएगी, कूटनीति और प्रतिरोध के बीच का अंतर-संबंध महत्वपूर्ण होता जाएगा। अमेरिका और भारत, अपने समन्वित कूटनीतिक कार्यों से, चीन का मुकाबला करने के लिए अधिक मुखर और सहयोगी दृष्टिकोण का मंच तैयार कर रहे हैं। इसमें न केवल द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करना शामिल है, बल्कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में समान विचारधारा वाले देशों के साथ व्यापक गठजोड़ को बढ़ावा देना भी शामिल है।

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