फिर उठी विशेष राज्य के दर्जे की मांग
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रवीन्द्र चौधरी

विशेष राज्य के दर्जे का जिन्न एक बार फिर जागता दिख रहा है। जदयू ने शनिवार को नई दिल्ली में हुई अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में जिस तरह से बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की अपनी मांग दोहराई है, वह बदले राजनीतिक माहौल को देखते हुए बहुत महत्व रखता है। लोकसभा चुनावों के बाद केंद्र में बनी एनडीए सरकार की जदयू पर निर्भरता को देखते हुए स्वाभाविक ही इस बात की पड़ताल शुरू हो गई है कि इस मांग पर जोर देने के पीछे जदयू नेतृत्व की मंशा क्या हो सकती है, जबकि पिछले साल ही पार्टी ने इस मांग को छोड़ने की घोषणा की थी। वैसे बिहार के लिए विशेष दर्जे की मांग कोई नई नहीं है। मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद भी काफी पहले से यह मांग करते रहे हैं। पिछले साल बिहार विधानसभा इस मांग के पक्ष में प्रस्ताव भी पारित कर चुकी है। खास बात यह कि 14वां वित्त आयोग विशेष राज्य के दर्जे की व्यवस्था को ही समाप्त कर चुका है।

आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी ) ने अभी ऐसा कोई प्रस्ताव भले पास न किया हो लेकिन अपने राज्य के लिए वह भी ऐसी मांग करते रहे हैं। एनडीए से अलग होने की उनकी वजह यही मांग बनी थी। मौजूदा राजनीतिक समीकरण की बात की जाए तो उनकी पार्टी का समर्थन भी केंद्र की एनडीए सरकार के लिए उतना ही अहम है। बल्कि, जदयू के 12 सांसदों के मुकाबले 16 सांसद होने के नाते उनकी ज्यादा अहमियत मानी जाएगी। लेकिन समीकरण चाहे जो भी हो, अभी यह मानने की कोई वजह नहीं है कि ये दल अपनी विशेष राज्य के दर्जे की या किसी भी दूसरी मांग को लेकर ज्यादा आगे बढ़ेंगे।

जदयू की ताजा बैठक पर गौर करें तो उसमें भी जोर टकराव के बजाय सरकार से सही तालमेल बनाए रखने पर ही दिखता है। इस बात का संकेत भाजपा नेताओं से करीबी रिश्तों के लिए जाने जाने वाले संजय झा को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाने से भी मिलता है। बैठक में खुद नीतीश कुमार का भी यह दोहराना अहम है कि वह अब एनडीए छोड़कर कहीं नहीं जाने वाले।

राष्ट्रीय कार्यकारिणी द्वारा पारित प्रस्ताव में भी विशेष राज्य के दर्जे के साथ विशेष पैकेज के जिक्र को इस मायने में अहम माना जा रहा है। कुछ हलकों में तो इसे पार्टी के विशेष राज्य के दर्जे की मांग से पीछे हटने की कोशिश तक बताई जा रही है। हालांकि जदयू की ओर से कहा गया है कि यह पीछे हटना नहीं बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि मांग तकनीकी उलझनों में न फंस जाए। बहरहाल चुनावी और राजनीतिक प्राथमिकताएं अपनी जगह हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद अब सभी पक्षों के लिए उचित यही है कि जनादेश को उपयुक्त सम्मान देते हुए राजनीतिक स्थिरता कायम रखें और पूरे देश के संतुलित विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ाने में सहयोग करें।

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