महेंद्र वेद की कलम से
नेपाल में हिमालय और भगवान पशुपतिनाथ को शाश्वत माना जाता है। लेकिन न तो हिमालय की मौजूदगी और न ही भगवान पशुपतिनाथ का आशीर्वाद नेपाल में राजनीतिक स्थिरता सुनिश्चित कर सका है। लालची नेताओं के आपसी संघर्ष ने एक और सरकार को खतरे में डाल दिया है।राजशाही के खत्म होने और नेपाल के गणतंत्र बनने के बाद पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ की 13वीं सरकार पर विद्रोह का खतरा मंडरा रहा है। उप प्रधानमंत्री और बुनियादी संरचना व परिवहन मंत्री रघुबीर महासेठ ने प्रधानमंत्री दहल को अपना इस्तीफा सौंप दिया है। जनता समाजवादी पार्टी-नेपाल के समर्थन वापस लेने के बाद जब 20 मई को दहल ने तीसरी बार विश्वास मत हासिल किया था, तो 275 सदस्यीय प्रतिनिधि सभा में उन्हें 157 वोट मिले थे। अब यूएमएल के समर्थन वापस लेने से उनमें से 77 वोट घट गए हैं। हालांकि दहल ने इस्तीफा देने से इन्कार कर दिया है और अब वह नेशनल असेंबली में विश्वास मत की मांग करेंगे। हालांकि वह पहले तीन बार विश्वास मत हासिल कर चुके हैं, लेकिन नेपाल के सियासी भंवर में यह पर्याप्त नहीं है।
वास्तव में 2008 के बाद से इस हिमालयी देश में सभी सरकारें दो या दो से अधिक पार्टियों की गठबंधन वाली रही हैं, जिनमें सहयोगी और विरोधी दल बारी-बारी से अपनी स्थिति बदलते रहे हैं। एक बार फिर सियासी घमासान मचा है। 69 वर्षीय दहल, जो तीन बार प्रधानमंत्री रह चुके हैं, के अलावा 72 वर्षीय खड्ग प्रसाद शर्मा ओली दो बार, तो 78 वर्षीय शेर बहादुर देउबा रिकॉर्ड पांच बार प्रधानमंत्री रह चुके हैं। बहुमत दिखाने के लिए विश्वास मत हासिल करने की खातिर संविधान के तहत दहल को 30 दिन का समय मिलेगा। इससे राजनीतिक अस्थिरता और बढ़ेगी, जिससे स्वाभाविक ही गरीब देश में आर्थिक संकट बढ़ेगा। माओवादी सूत्रों के मुताबिक, मौजूदा गठबंधन को बचाने के लिए प्रधानमंत्री प्रचंड और सीपीएन-यूएमएल प्रमुख ओली के बीच वार्ता भी विफल हो गई है। काठमांडू से मिल रही जानकारियों के मुताबिक, दहल ने इस विषय पर ज्यादा बात नहीं की, लेकिन दिवंगत गायक फत्तेमान के एक नेपाली गीत को याद किया- ‘येस्तो पानी हुंडो रइछा जिंदगी मा कहिले, कहिले’ (कभी-कभी जिंदगी ऐसे ही सामने आती है)। उन्होंने कहा, ‘हमने बड़ी शिद्दत से साथ मिलकर काम किया, लेकिन इस बार चीजें बदल गई हैं। हमें भविष्य में भी साथ मिलकर काम करना चाहिए।’
नेपाल एक बार फिर तीन दावेदारों के बीच सत्ता संघर्ष का साक्षी बन रहा है। दहल ने नेपाली कांग्रेस के साथ अपना गठबंधन खत्म किया, जो नेपाली संसद में सबसे बड़ी पार्टी है और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूएमएल) के साथ हाथ मिलाया, जो संसद में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है। दहल की पार्टी नेपाली संसद के निचले सदन में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है। नेपाल इस कहावत का शानदार उदाहरण है कि राजनीति संभावनाओं का एक खेल है।
नेपाल की दो सबसे बड़ी पार्टियां, जो वैचारिक रूप से एक-दूसरे की धुर विरोधी हैं, सरकार बनाने के लिए एकजुट हो रही हैं। नेपाली कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूएमएल) ओली के नेतृत्व में नई गठबंधन सरकार बनाने के लिए सहमत हो गई हैं। 275 सदस्यीय प्रतिनिधि सभा में दोनों की संयुक्त ताकत 167 है, जो 138 के बहुमत के आंकड़े से ज्यादा है। इसका मतलब 18 महीने पुराने प्रचंड के शासन का अंत हो सकता है, जिन्होंने कभी नेपाली कांग्रेस, तो कभी सीपीएन (यूएमएल) के समर्थन से इस अवधि के दौरान तीन बार सरकार का नेतृत्व किया। दोनों पार्टियों के नेताओं ने पुष्टि की कि सत्ता साझा करने पर सहमति पिछले सोमवार को ही बन गई थी। सीपीएन (यूएमएल) के महासचिव शंकर पोखरेल ने कहा, ‘केपी शर्मा ओली के नेतृत्व में राष्ट्रीय सर्वसम्मति वाली सरकार बनाने के लिए यूएमएल और नेपाली कांग्रेस के बीच सहमति बन गई है।’
नेपाली कांग्रेस की केंद्रीय कार्यसमिति के सदस्य और पूर्व वित्तमंत्री प्रकाश शरण महत ने भी इसकी पुष्टि की। लिखित समझौते के अनुसार, ओली और देउबा मौजूदा प्रतिनिधि सभा के बचे हुए समय में बारी-बारी से सरकार का नेतृत्व करेंगे। हालांकि अतीत में ओली ने दहल के लिए पद छोड़ने से इन्कार कर दिया था। नेपाल में पिछला संसदीय चुनाव नवंबर, 2022 में हुआ था, इसलिए अभी मौजूदा सदन का कार्यकाल साढ़े तीन साल बचा हुआ है। दहल के समर्थकों का कहना है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के प्रयासों को रोकने के लिए दहल के खिलाफ कदम उठाए गए हैं। बीती एक जुलाई को दहल और गृहमंत्री रबी लामिछाने ने कहा था कि भ्रष्टाचार के बड़े घोटालों की जांच के लिए एक उच्च स्तरीय आयोग बनाने की तैयारी चल रही है। मंत्री ने कहा कि आयोग 25 भ्रष्टाचार संबंधी घोटालों की पहचान कर उनकी जांच करेगा। सरकार ने कहा कि ‘यह गठबंधन सरकार को गिराने और देश में अस्थिरता पैदा करने की साजिश है।’
पिछले चार महीनों में नेपाली सियासत में काफी उथल-पुथल देखने को मिली। एक महीने पहले संसद में भी हंगामा हुआ था, जब सदस्यों के बीच हाथापाई तक हो गई थी और मार्शलों को बीच-बचाव करना पड़ा था। इस दौरान दहल सरकार ने नई मुद्रा जारी की, जिसमें भारत से सटे इलाकों को नेपाल के हिस्से के रूप में दर्शाया गया है। नतीजतन भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर को नेपाल को सावधान रहने का संकेत देना पड़ा। कूटनीतिक पर्यवेक्षकों ने ऐसे कदमों को बिगड़ती आर्थिक स्थिति से जनता का ध्यान हटाने के लिए उठाया गया कदम बताया। दूसरी ओर, यह विवाद चीनी प्रभाव और बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) के तहत चीन द्वारा वित्तपोषित परियोजनाओं के कारण भी उभरा है। नेपाली राजनेता इसका श्रेय लेना चाहते हैं और यह भी सुनिश्चित करना चाहते हैं कि ऐसी परियोजनाओं से उनके राजनीतिक आधार को बेहतर लाभ मिले। बीजिंग समर्थक ओली के प्रधानमंत्री बनने की संभावना भारत के लिए चिंता का विषय होनी चाहिए, और इसी तरह भारत समर्थक देउबा के उनके पीछे चलने की संभावना भी निराशाजनक है। भारत और चीन, दोनों ही इस अंतहीन सत्ता संघर्ष को देखने के लिए बाध्य हैं, जिसकी प्रतिध्वनि इस क्षेत्र की भू-राजनीति में भी दिखाई देगी।