अभिनय आकाश की कलम से
जिस रामसेतु के अस्तिव पर कई सालों से विवाद होता रहा है। उस पर इसरो के वैज्ञानिकों ने विराम लगा दिया है। इसरो के वैज्ञानिकों ने सैटेलाइट इमेज के आधार पर एक मैप तैयार किया है, जिसमें रामसेतु के अस्तित्व में होने का दावा किया गया है। रामसेतु जिसे अब तक आस्था की नजरों से देखा जाता था। उसे अब देश के वैज्ञानिकों ने विज्ञान की मुहर लगा दी है और वो भी देश की अंतरिक्ष संस्था इसरो की तरफ से ये मुहर लगी है। इसरो की रिपोर्ट में रामसेतु का संपूर्ण भूगोल छिपा है। आपको रामसेतु पर इसरो की रिपोर्ट के बारे में विस्तार से बताते हैं।
इसरो ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि रामसेतु तमिलनाडु के धुनिषकोड़ी से श्रीलंका के तलाईमन्नार तक बना हुआ है। इस पुल का करीब 99.98 प्रतिशत हिस्सा उथले पानी में है। मतलब पुल बहुत गहराई में नहीं है। रामसेतु समुद्र तल से 8 मीटर ऊपर बना हुआ है। सबसे हैरानी की बात ये है कि रामसेतु के नीचे 11 संकरी नहरें मिली हैं। जिससे समुद्र का पानी पुल के आर-पार जाता है। इन्हीं संकरी नहरों की वजह से ही रामसेतु का अस्तित्व बरकरार है। रामसेतु के भूगोल की रिपोर्ट इसरो की यूनिट एनआरएससी के जोधपुर और हैदराबाद के वैज्ञानिकों ने तैयार किया है। रामसेतु के रिसर्च के लिए इसरो के आईसीई सैट-2 सैटेलाइट का इस्तेमाल किया गया है, जिसे हिंदू रामसेतु मानते हैं, उसे इसरो और दूसरे वैज्ञानिक एड्म ब्रिज कहते हैं।
आपने अबतक सैटेलाइट के जरिए रामसेतु देखा होगा। भारत और श्रीलंका के बीच रामसेतु के रूट पर छह द्वीप मौजूद हैं। कहा जाता है कि ये छह द्वीप रामसेतु के छह पिलर हैं। यानी इन्हीं पिलर्स पर से सेतु गुजरता था। भूवैज्ञानिक साक्ष्यों से पता चलता है कि यह पानी के नीचे की चोटी भारत और श्रीलंका को जोड़ने वाला एक भूमि पुल हुआ करती थी। 9वीं शताब्दी ईस्वी में, फ़ारसी नाविकों ने इसे ‘सेतु बंधाई’ कहा था, जिसका अर्थ है समुद्र के पार एक पुल। रिसर्चस का कहना है कि चूंकि पुल का 99.98 फीसदी हिस्सा पानी में डूबा हुआ है। इस वजह से जहाज की मदद से सर्वे करना मुमकिन नहीं था। वहीं रामेश्वरम के मंदिरों के अभिलेखों के माध्यम से मालूम चलता है कि साल 1480 तक ये पुल समुद्र में पानी के ऊपर मौजूद था। लेकिन फिर एक चक्रवात आया और उसी में ये डूब गया।
भारत और श्रीलंका पहले एक प्राचीन महाद्वीप का हिस्सा थे जिसे गोंडवाना के नाम से जाना जाता था। शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में लिखा है कि भारत अंततः अलग हो गया और एक बड़े द्वीप भूभाग के रूप में उत्तर की ओर चला गया, जब तक कि यह लगभग 35 से 55 मिलियन वर्ष पहले सुपरकॉन्टिनेंट, लॉरेशिया से टकरा नहीं गया। यह संरचना हिंदुओं के बीच अत्यधिक धार्मिक महत्व रखती है, क्योंकि रामायण से पता चलता है कि इसका निर्माण हनुमान की वानर सेना द्वारा राम को अपनी पत्नी सीता को रावण से बचाने के लिए लंका पहुंचने में मदद करने के लिए किया गया था। ईस्ट इंडिया कंपनी के सर्वेक्षक जनरल द्वारा इसका नाम एडम ब्रिज रखा गया था।
परियोजना को पुनर्जीवित करने में पहला ठोस कदम हालांकि कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए शासन द्वारा उठाया गया था जो 2004 में सत्ता में आया था। तत्कालीन प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने 2 जून 2004 को इस परियोजना का उद्घाटन किया और जुलाई 2006 में ड्रेजिंग शुरू हुई। हिंदू राष्ट्रवादियों ने तुरंत इस तरह के कदम पर आपत्ति जताई, जिसे वे एक पवित्र स्थल मानते थे। उनमें से प्रमुख सुब्रमण्यम स्वामी थे जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। इसके लिए सरकार ने राम सेतु के अस्तित्व पर सवाल उठाते हुए एक जवाबी हलफनामा दायर किया, जो उनके अनुसार विशुद्ध रूप से पौराणिक कथाओं का एक उत्पाद बताया।
सेतुसमुद्रम परियोजना का पर्यावरणीय आधार पर भी विरोध किया गया है, कुछ का दावा है कि यह समुद्री जीवन को नुकसान पहुंचाएगा, और शोल की रेखा के ड्रेजिंग से भारत का तट सुनामी के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाएगा। मार्च 2018 में, केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि सेतुसमुद्रम शिपिंग नहर परियोजना के निष्पादन में राम सेतु प्रभावित नहीं होगा।
रामसेतु को तोड़ने की योजना यूपीए सरकार के दौरान अमल में लाई जाने थी। जिसके बाद सुब्रमण्यम स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में इसका विरोध किया। उन्होंने यूपीए सरकार की योजना पर रोक की मांग की थी। जिसके बाद भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर राम सेतु को राष्ट्रीय स्मारक घोषित किए जाने की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट गए हैं।