आर.के. सिन्हा
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)
बीती 26 जुलाई को देश ने कारगिल विजय दिवस मनाया। जाहिर है, इस मौके पर उन शूरवीरों को देश ने भारी मन से और कृतज्ञता के भाव से याद किया, जिन्होंने देश के लिए अपनी जानों का नजराना दिया था। कारगिल विजय दिवस की 25वीं वर्षगांठ पर बीते शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लद्दाख में 1999 की जंग के नायकों को श्रद्धांजलि दी। वे कारगिल वॉर मेमोरियल भी गए। करीब 20 मिनट के संबोधन में प्रधानमंत्री जी ने कहा- पाकिस्तान प्रॉक्सी वॉर के जरिए चर्चा में बना रहना चाहता है। उन्होंने अपने इतिहास से कुछ नहीं सीखा। अतीत में आतंकवाद को लेकर उनके हर प्रयास विफल रहे। मैं जहां खड़ा हूं, वहां से आतंक के आकाओं तक मेरी आवाज पहुंच ही रही होगी। उनके मंसूबे कभी कामयाब नहीं होंगे।
भारत और पाकिस्तान के बीच कारगिल युद्द परमाणु युद्ध के खतरे के साये में लड़ा गया था। अब यह स्थापित हो चुका है कि जनरल परवेज मुशर्रफ की अगुवाई में पाकिस्तानी सेना ने भारत को युद्ध में धकेला था। उन्होंने नियंत्रण रेखा (एलओसी) के कारगिल क्षेत्र के कुछ हिस्सों पर चुपके से कब्जा भी कर लिया था, जबकि दोनों देशों के तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व शांति स्थापना के प्रयासों में जुटे थे। इसमें फरवरी 1999 में लाहौर घोषणा पर हस्ताक्षर भी शामिल था।
तमाम जटिल बाधाओं के बावजूद, भारतीय सेना और वायु सेना ने एक ऐसा अभियान चलाया, जिसके परिणामस्वरूप आतंकवादियों के वेश में पाकिस्तानी नियमित सैनिकों को खदेड़ दिया गया। भारतीय सैनिकों ने बलपूर्वक अपनी एक-एक इंच जमीन को भी वापस लिया। जबकि, वायु सेना ने दुश्मन की लॉजिस्टिक सुविधाओं और पहाड़ी किलों को निशाना बनाया।
कारगिल में बुरी तरह मार खाने के बाद भी पाकिस्तान सुधरा नहीं। पाकिस्तान की सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई ने कारगिल से मिले सबक का इस्तेमाल अन्य अपरंपरागत अभियानों को अंजाम देने के लिए किया, जिसमें 2008 के मुंबई हमले, 2016 में पठानकोट और उरी में सैन्य प्रतिष्ठानों पर हमले और 2019 का पुलवामा आत्मघाती हमला भी शामिल हैं। इन हमलों में पाकिस्तान के सुरक्षा प्रतिष्ठानों की भूमिका साफ नजर आ रही थी।
कारगिल और उसके बाद के घटनाक्रमों से साफ था कि पाकिस्तानी सेना ही अपने राजनेताओं द्वारा किये जा रहे शांति के प्रयासों को विफल कर रही है। कारगिल युद्ध के बाद ही परवेज मुर्शरफ राजधानी दिल्ली आए। वे पाकिस्तान की संभवत: पहली बड़ी शख्सियत थे, जो महात्मा गांधी की समाधि राजघाट में पहुंचे थे। यह 17 जुलाई, 2001 की बात है। वे जब भारत आए तब उन्हें सारा भारत कारगिल की जंग की इबारत लिखने वाला ही मानता था। जाहिर है कि इसी कारण उनसे देश नाराज था। बेशक, मुशर्रफ ने अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं को परवान चढ़ाने के लिए कारगिल का युद्ध छेड़ा था। उस समय वह पाकिस्तान आर्मी के चीफ थे। अपनी आत्मकथा ‘इन द लाइन ऑफ फायर‘ में उन्होंने लिखा है कि पाकिस्तानी सेना कारगिल युद्ध में शामिल थी। हालांकि, इससे पहले पाकिस्तान इस तथ्य को छिपाता और झुठलाता ही रहा था। दिल्ली में 1943 में जन्में मुशर्रफ ने हार की शर्मिदगी से बचने के लिए पूरी जिम्मेदारी तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ पर डाल दी थी। चूंकि दिल्ली उनका जन्म स्थान था, इसलिए उनकी उस पहली भारत यात्रा को लेकर जिज्ञासा का भाव भी था। वे जब इंदिरा गांधी एयरपोर्ट पर उतरे तो राजधानी दिल्ली में झमाझम बारिश हो रही थी। उनका राजधानी में पहला अहम कार्यक्रम राजघाट में जाकर महात्मा गांधी को श्रद्लांजलि देना था। वे जब राजघाट पहुंचे तब भी बारिश ने उनका पीछा नहीं छोड़ा था। खबरिय़ा चैनलों से दिखाई जाने वाली तस्वीरों से साफ लग रहा था कि वे राजघाट में बेहद तनाव में थे। उन्होंने वहां पर विजिटर्स बुक में लिखा- “महात्मा गांधी जीवनभर शांति के लिए कोशिशें करते रहे।” कुछ ग्राफोलोजिस्ट ( हैंड राइटिंग के विशेषज्ञों) ने परवेज मुर्शरफ की हैंड राइटिंग का अध्ययन करने के बाद दावा किया था कि मुशर्रफ के राजघाट पर विजिटर्स बुक पर लिखते वक्त हाथ कांप रहे थे और वे तनाव में थे।
दरअसल युद्ध हथियारों से ज्यादा हौसलों से लड़े जाते हैं। यह देश ने कारगिल के समय देखा था। सेना तो लड़ती ही है, उसे सारे देश का साथ भी मिलना चाहिए। कारगिल में पाकिस्तान के छल से सारा देश गुस्से में था। कारगिल एक ऐसा युद्ध था जो विश्व की सबसे मुश्किल लड़ाइयों में से एक माना जाता है। भारत के वीर योद्धाओं ने दुश्मन पाकिस्तान को दुर्गम पहाड़ियों की चोटियों से खदेड़ दिया था। हालांकि कारगिल की जंग को जीतने के लिए हमारे लगभग साढ़े पांच सौ शूरवीरों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया था। उनमें परमवीर चक्र विजेता कैप्टन विक्रम बत्रा भी थे। कैप्टन विक्रम बत्रा ने साहस और शौर्य की लंबी रेखा खींची थी। दुश्मन उनके नाम से कांपते थे। विक्रम ने जुलाई 1996 में भारतीय सैन्य अकादमी देहरादून में प्रवेश लिया। दिसंबर 1997 में प्रशिक्षण समाप्त होने पर उन्हें 6 दिसम्बर 1997 को जम्मू के सोपोर में सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली। उन्होंने 1999 में कमांडो ट्रेनिंग के साथ कई प्रशिक्षण भी लिए। पहली जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया। हम्प व राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद विक्रम को कैप्टन बना दिया गया।
इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने की ज़िम्मेदारी कैप्टन बत्रा की टुकड़ी को मिली। कैप्टन बत्रा अपनी कंपनी के साथ घूमकर पूर्व दिशा की ओर से इस क्षेत्र की तरफ बढ़े और बिना शत्रु को भनक लगे हुए उसकी मारक दूरी के भीतर तक पहुंच गए। कैप्टन बत्रा ने अपने दस्ते को पुर्नगठित किया और उन्हें दुश्मन के ठिकानों पर सीधे आक्रमण के लिए प्रेरित किया। सबसे आगे रहकर दस्ते का नेतृत्व करते हुए उन्होनें बड़ी निडरता से शत्रु पर धावा बोल दिया और आमने-सामने की लड़ाई में शत्रु सेना के चार जवानों को मार डाला। बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्ज़े में ले लिया।कैप्टन विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष ‘यह दिल मांगे मोर’ कहा तो सेना ही नहीं बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया। इसी दौरान विक्रम के कोड नाम शेरशाह के साथ ही उन्हें ‘कारगिल का शेर’ कहा जाने लगा। कारगिल में कैप्टन विक्रम बत्रा जैसा पराक्रम सारे भारतीय सैनिकों ने दिखाया था। बेशक, कारगिल की हार से पाकिस्तान की आंखें नहीं खुलीं। वह अब भी भारत के खिलाफ रणनीति बनाता ही रहता है। भारत को उसकी नापाक हरकतों पर हर वक्त पैनी नजर तो रखनी ही होगी।
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