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‘लापता लेडीज़’ और अवसरवादी राजनीति: ज्योति मल्होत्रा 1
Jyoti Malhotra

तृणमूल कांग्रेस की ‘लापता लेडीज़’ – इस नाम से आई हिंदी फिल्म का व्यंग्यात्मक संदर्भ– आखिरकार तब जाकर प्रकट हुईं, जब शुक्रवार को अपनी नेता और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में कोलकाता में निकले मार्च में भाग लिया। इसका आयोजन शहर के एक सरकारी अस्पताल में कार्यरत और कोई एक सप्ताह पहले बलात्कार एवं हत्या की शिकार बनी महिला डॉक्टर के ‘समर्थन’ में किया गया था।

महुआ मोइत्रा, सायोनी घोष, डोला सेन, शताब्दी रॉय, शर्मिला सरकार, काकोली घोष दस्तीदार, जून मालिहा – सभी महिला सांसद – और मंत्री शशि पांजा उस हुजूम में शामिल थे, जो कोलकात्ाा के मौलाली से डोरीना क्रॉसिंग तक ममता के साथ पैदल चला। यह काम ममता बनर्जी की साख पुनः स्थापित करने का भरसक प्रयास था, जो भारत की एकमात्र महिला मुख्यमंत्री ने स्पष्ट रूप से पिछले एक हफ्ते में गंवा दी लगती है। लगता है सालों में पहली बार,दीदी बैकफुट पर हैं। उन्हें मालूम है, उनसे गलती हो गई है। पूर्व पत्रकार सागरिका घोष को छोड़कर, उनकी 11 महिला लोकसभा सांसद, जिनमें से कई सोशल मीडिया की ‘स्टार’ हैं, उन्हें भली भांति पता था कि जघन्य कांड की खबर आने के बाद,पीड़िता के समर्थन में बयान देने के लिहाज से आरंभिक कुछ घंटों और दिनों का क्या महत्व है, लेकिन उन्होंने फिर भी चुप्पी साधे रखी – तृणमूल ने सूचना-शून्यता बनने दी, अब विपक्षी भाजपा सही में इसका लाभ उठा रही है।

संसद और कोलकाता में भाजपा के लिए सिरदर्द बनी रहने वाली इन मुखर महिलाओं को पता है कि जब उन्होंने अपने बेहतर निर्णय के विरुद्ध जाकर, चुप्पी धारण किए रखी – शायद, कोलकाता पुलिस द्वारा अपनी जांच करने का इंतजार कर रही हों या हो सकता है पहले अपनी प्रिय नेता, दीदी, द्वारा इस संबंध में दिए जाने वाले बयान की प्रतीक्षा में थीं – तो उन्होंने बहुत लंबा इंतजार किया। राजनेता महिलाओं और पुरुषों में अपने प्रति जिस भरोसे की भावना को लगातार बनाए रखने के प्रयास में रहते हैं, कम से कम, फिलहाल, वह घटा दिखाई दे रहा है। क्योंकि कोई एक दशक से अधिक समय में पहली बार संदेह का बीज समाता नज़र आ रहा है।

अब तक जो कुछ हम जान पाए हैं, वह यह कि युवती के साथ बलात्कार और हत्या 9 अगस्त की सुबह 3 से 5 बजे के बीच हुई, जब अस्पताल में लगातार 36 घंटे काम करने के बाद उसने सेमिनार रूम में कुछ देर आराम करने का फैसला किया। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में दरिंदगी का डरावना विवरण है- उसका गला घोंटकर मारा गया (गला घुटने से थायरॉयड उपास्थि टूटी पाई गई), उसके प्राइवेट पार्ट्स पर गहरे घाव थे, जो स्पष्ट रूप से ‘विकृत कामुकता’ और ‘मातृत्व संबंधी अंगों को यातना’ दर्शाता है। उसकी आंखों और मुंह से भी खून बह रहा था। सोशल मीडिया पर दिखी तस्वीरों में, उसकी टांगें परस्पर अजीब एंगल पर दिखाई दे रही थीं – कुछ का कहना है कि यह तभी संभव है जब पेल्विक गर्डल (कूल्हा) टूट जाए।

हालांकि, हैरानी की बात कि ममता के भतीजे अभिषेक बनर्जी समेत, तृणमूल के युवा सितारों से सज्जित इस समूह ने अगले छह दिनों तक खुद को अन्य नाना प्रकार के मामलों में व्यस्त रखा, जिसमें पेरिस में विनेश फोगाट को मिला झटका भी शामिल था। बताया जाता है कि दीदी ने कोलकाता में हत्याकांड पर बांग्ला में कुछ बोला था – कुछ-कुछ जंगल में नाचे मोर की तरह, जिसे शायद ही किसी ने देखा हो, तब फिर यह किस काम का। आगे, घटनाएं अपने आप जन्म लेने लगीं। मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल ने इस्तीफा दे दिया लेकिन चंद घंटों में उन्हें एक और बढ़िया पद दे दिया गया। तरह-तरह की अफवाहें भी चलीं, मसलन, पुलिस इसे ‘आत्महत्या’ ठहरा रही है (हालांकि उसने ऐसा किया नहीं) या माता-पिता को बताए बिना प्रशासन ने शव को अग्नि दी (जबकि दाह-संस्कार परिवार ने ही किया), इससे सूचना-शून्यता और गहराई। इन सभी महिला सांसदों के एक्स हैंडल, जिस पर अकसर ये कुछ गलत होने पर काफी मुखरता से बयानबाज़ी करती रहती हैं,अजीब ढंग से शांत रहे। यहां तक कि 14-15 अगस्त की रात में, जब कोलकाता की आधी से ज़्यादा आबादी ‘रात्रि में महिलाओं की सुरक्षा के सवाल’ पर सड़कों पर उतरी और हज़ारों नर-नारी न्याय, जीने का अधिकार और सुरक्षा की मांग कर रहे थे, तब भी तृणमूल के लोग गायब थे। उनका गुस्सा, जुनून और जोश, जो अक्सर लोकसभा में हलचल मचा देता है, या तो चुक गया या फिर कहीं और बेकार गया।

टीवी चैनलों ने पीड़िता को नाम दिया : ‘अभया’ यानि निडर,यह उस लड़की को दिए नाम –निर्भया- की याद दिलाता है, जिसका 12 साल पहले दिल्ली में क्रूरतापूर्वक बलात्कार किया गया था। सबको याद होगा कि 2012 की सर्दियों में क्या हो गुजरा था, जब शीला दीक्षित की कांग्रेस सरकार ने पीड़ित लड़की को बचाने की हरचंद कोशिश की थी। दो साल बाद, मनमोहन सिंह सरकार ने केंद्र में सत्ता खो दी,और भाजपा का राह साफ हुई।

कइयों का कहना है कि ‘निर्भया’ ने एक राजनीतिक पार्टी के लिए तकदीर की राह खोल दी। स्पष्टतः भाजपा को यकीन है कि आज ‘अभया’ उसके लिए वह कर सकती है, जो प्रधानमंत्री मोदी पिछले 10 वर्षों में करने में विफल रहे अर्थात बंगाल को भाजपा के लिए वोट डालने को राजी करना या फिर कम-से-कम अपने पक्ष में करना, हालांकि बंगाल में चुनाव अभी दूर-दूर तक नहीं हैं। हालिया लोकसभा चुनाव में अमेठी में साधारण कांग्रेसी उम्मीदवार किशोरी लाल शर्मा से हारने के बाद पहली बार स्मृति ईरानी का टीवी स्क्रीन पर दिखना अकारण नहीं है।
लेकिन भाजपा अभी भी पाएगी कि जिन हिंदी भाषी राज्यों को जीतने का उसे अनुभव है, बंगाल उनसे कुछ अलग है। हिंदुत्व के प्रति बढ़ते चाव के बावजूद, आज कोलकाता की सड़कों पर दिखने वाला आक्रोश भाजपा की वजह से नहीं बल्कि लोगों में तृणमूल के खिलाफ गुस्सा और लाचारी महसूस किए जाने के चलते अधिक है। यह भाजपा नहीं बल्कि दीदी हैं, जो बंगाल की महिलाओं से अपनी मुख्य शक्ति बनने और वोट डालकर हाथ मजबूत करने का आह्वान किया करती हैं। चौदह अगस्त को, आधी रात से पहले भीड़ ने उस अस्पताल में तोड़फोड़ की जहां लड़की की हत्या हुई थी, उससे कुछ घंटे पहले सायोनी घोष ‘कन्याश्री’ परियोजना के लिए ममता की वाहवाही कर रही थीं, जिसमें बच्चियोंं के वास्ते कई किस्म की योजनाएं हैं।

हाल की घड़ी, भारी भ्रष्टाचार और जनता की लाचारी जो शहर के साथ-साथ सूबे भर में पसरने लगी है, उसको लेकर कोलकाता में दिखे गुस्से का केंद्र बिंदु ममता और तृणमूल हैं। कुछ भी कारगर नहीं लगता, बदलाव अगर है भी तो बहुत कम। यदि यह जनाक्रोश बंगाल के अन्य हिस्सों में फैल गया, तो ममता को भी पता है क्या हो सकता है – ऐसा पहले हो चुका है जब 2007 में सत्तारूढ़, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने नंदीग्राम की धरती से उठती नाराज आवाजों पर कान धरने से इंकार कर दिया था और कुछ साल बाद सत्ता खो दी – और उस नाराज़गी की सबसे बड़ी लाभार्थी स्वयं ममता रहीं।

इसीलिए ममता ने शुक्रवार को कोलकाता में निकले मार्च का नेतृत्व किया, जिसमें उनकी सबसे मुखर महिला सांसद और विधायक साथ थे। वे सभी समझते हैं कि उन्हें बंगाल जीतने के लिए पुनः संघर्ष करना पड़ेगा। अगर वे ऐसा नहीं करेंगे – तो महुआ मोइत्रा के बावजूद – तृणमूल की महिला सांसदों पर बंगाल की ‘लापता लेडीज़’ और ‘गूंगी गुड़ियाएं’ का ठप्पा लगने का खतरा है।

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