sitaram kesari
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Prem kumar mani
Prem Kumar Mani

नयी पीढ़ी सीताराम केसरी के नाम से अनभिज्ञ हो सकती है. जानती भी होगी तो नाम भर. लेकिन एक समय वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अत्यंत प्रभावशाली नेता थे. 1970 में कांग्रेस का जब समाजवादी कायाकल्प हुआ तब बिहार कांग्रेस में तथाकथित ऊँची जातियों के दिग्गज नेता कांग्रेस से अलग हो गए. पिछड़े वर्ग के नेताओं का कद कांग्रेस में थोड़ा ऊँचा हुआ. केसरी को भी ऐसे में अवसर मिला. 1973 में बिहार कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष और बाद के दिनों में लम्बे समय तक अखिल भारतीय कांग्रेस के कोषाध्यक्ष बने रहे. संसदीय जीवन में लोक सभा और राज्य सभा के सदस्य लंबे अरसे तक रहे. केन्द्रीय मंत्री भी रहे. 1996 में अखिल भारतीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने, जहाँ वह 14 मार्च 1998 तक रहे. कांग्रेस अध्यक्ष पद से वह बेआबरू हो कर निकले. उसकी अपनी कहानी है, जिस पर चर्चा करेंगे.

सीताराम केसरी का जन्म बिहार के दानापुर में एक टुटपुंजिया केसरवानी बनिया परिवार में 1919 में हुआ. पढाई-लिखाई भी व्यवस्थित नहीं हुई. दानापुर पटना के निकट एक छोटा-सा नगर है, जो व्यावहारिक तौर पर आजकल पटना शहर का ही हिस्सा हो गया है. यहाँ आर्य-समाज का अच्छा असर था और कहते हैं एक बार दयानन्द सरस्वती यहाँ आए थे. 1857 के सिपाही विद्रोह में दानापुर छावनी के 2500 सिपाहियों ने एक साथ विद्रोह कर दिया था. बीसवीं सदी में राष्ट्रीय आंदोलन का जब गांधी युग आरम्भ हुआ, दानापुर के अनेक लोगों ने उस में हिस्सा लिया. कहा जाता है सीताराम केसरी 1940 के रामगढ़ अधिवेशन में शामिल हुए. वह संभवतः कांग्रेस सेवा दल के ड्रम-पार्टी के हिस्सा थे. उसके बाद वह कई बार जेल गए. आज़ादी मिलने पर वह कांग्रेस की राजनीति से जुड़े रहे.

बिहार की कांग्रेस राजनीति उस समय भी जात-पात से भरी थी. भूमिहारों और राजपूतों का बोलबाला था. तीसरे पायदान पर कायस्थ थे और चौथे पर ब्राह्मण. पूना पैक्ट के कारण दलितों को जो आरक्षण मिला था,उस के कारण दलितों के कुछ नेताओं को जगह मिल जाती थी. आदिवासी जयपाल सिंह मुंडा कांग्रेस में शामिल जरूर किये गए, किन्तु 1963 में कुछ ही रोज उपमुख्यमंत्री रह कर हटने केलिए मजबूर कर दिए गए. इन सब के बीच पिछड़े वर्ग के नेताओं की कांग्रेस में कोई जगह नहीं थी. पिछड़े वर्ग के लोग समाजवादी पार्टी के साथ जुड़ कर राजनीति करते थे. हालाकि वहां भी घाघ द्विज नेताओं का जमघट था. ये समाजवादी द्विज बोली-बानी में तो क्रांतिकारी रहते थे,लेकिन आंतरिक व्यवहार में कम जातिवादी नहीं थे.

ऐसी स्थिति में भी कुछ नेता थे जो कांग्रेस से जुड़े थे. सीताराम केसरी उन में एक थे. इन नेताओं को शायद कभी बदलाव की उम्मीद थी. ऐसा एक बदलाव 1963 में आया जब कृष्णवल्लभ सहाय बिहार के मुख्यमंत्री बने. तब कुल ग्यारह सदस्यीय कैबिनेट में तीन पिछड़े वर्ग, एक दलित, एक पिछड़ा और एक अगड़ा मुसलमान और एक आदिवासी मंत्री बनाए गए. सामान्य कहे जाने वाले द्विजों के मुख्यमंत्री सहित कुल चार मंत्री बने थे. किसी जाति का दो मंत्री नहीं था.

इन परिस्थितियों से रु-ब -रु होते केसरी 1973 में प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने. मुश्किलों के बीच उनकी राजनीति चलती रही. 1977 में कर्पूरी ठाकुर जब मुख्यमंत्री बने,तब गैर द्विज जातियों की राजनीति में एक जोश आया. लेकिन इसकी प्रतिक्रिया में कांग्रेस अब कुछ अधिक द्विजवादी हो गई थी. 1980 से 1990 तक कांग्रेस का बिहार में राज रहा और उस ने इस बीच पांच मुख्यमंत्री बनाए. लेकिन केवल दो ऊँची जातियों के पाँचों थे. केसरी चुप-चाप कांग्रेस में बने रहे. कांग्रेस की राजनीति दमघोंटू थी. लेकिन उसी में बने रहना उन्होंने बेहतर समझा.
1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू किये जाने के बाद वह उत्साहित हुए. उन्हें उम्मीद थी कि कांग्रेस में भी कुछ बदलाव होगा. जब नरसिंह राव की सरकार बनी तो वह सामाजिक न्याय विभाग के मंत्री बनाए गए. इस बीच उन्होंने सामाजिक न्याय के लिए संभव कार्य किये. उत्तर भारतीय राजनीति में पिछड़ों के उभार से वह उत्साहित थे.

मुलायम,लालू,नीतीश सब के प्रति उनकी शुभेच्छा रही. इसी बीच 1996 में वह कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए. ऐसा लगा कि कांग्रेस में एक नया युग आने वाला है. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. 1996 और 1997 में दो वर्षों के भीतर दो सरकारें बनीं और बिखरीं . देवगौड़ा के बाद गुजराल आए. इस सरकार में डी एम के भी शामिल थी. डी एम के पर राजीव गांधी की हत्या में शामिल लिट्टे नेताओं से मिलीभगत के सबूत मिले और इस आधार पर केसरी ने मांग की कि डी एम के मंत्री को हटाया जाए. गुजराल ने इस्तीफा देना बेहतर समझा. नतीजतन 1998 के आरम्भ में चुनाव हुए और कांग्रेस को 1996 से केवल एक सीट अधिक मिली. तथ्य यह भी है कि इस चुनाव में प्रचार की कमान सोनिया गांधी ने संभाल ली थी.केसरी लगभग नजरबन्द थे. कांग्रेस नेताओं की दलील थी कि केसरी को अंग्रेजी नहीं आती और दक्षिण में उनका प्रभाव नहीं हो सकेगा.

कायदे से अपेक्षित सफलता न मिलने की जिम्मेदारी सोनिया गांधी की होनी चाहिए थी किन्तु ठीकरा अध्यक्ष केसरी पर फोड़ा गया. 14 मार्च 1998 को कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में अध्यक्ष की फजीहत की गई. प्रणब मुखर्जी ने सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने का प्रस्ताव किया और बिना किसी विमर्श के हंगामे के बीच उसे पारित घोषित कर दिया गया. उद्देश्य केवल नया अध्यक्ष चुनना नहीं था. केसरी को अपमानित करना भी था. सभ्य कही जाने वाली इस पार्टी के सभ्य लोगों ने केसरी की धोती खोल दी. उन्हें जूतों से पीटा गया. नंगा कर के बाथरूम में बंद कर दिया गया. पूरे दफ्तर पर कब्ज़ा कर लिए जाने के बाद उन्हें घर जाने की इजाजत मिली. केसरी ने चूँ तक नहीं किया. अपमान पी कर चुप्पी बांधे रहे.

9 मई 1998 को फिर कांग्रेस कार्य समिति की बैठक हुई. शरद पवार, पी ए संगमा और तारिक अनवर को कांग्रेस से निकालना था,क्योंकि इन लोगों ने सोनिया पर सवाल उठाए थे. एक बार फिर केसरी को उसी तरह अपमानित किया गया. उन्होंने लाख मिन्नत की. हनुमान की तरह कलेजा फाड़ कर दिखलाने का समय तो नहीं था,लेकिन जितना गिड़गिड़ा सकते थे किया. लेकिन ऐसा लगता है कांग्रेस का आंतरिक द्विज-संस्कार इस पिछड़े नेता का जी भर फजीहत करना चाहता था कि फिर कभी कोई ऐसा स्वर न उठा सके.

केसरी बिहार से थे और लालू प्रसाद पर उन्हें कुछ भरोसा था. जब उन्हें चारा मामले में आरोपित किया गया था तब लालू के प्रति केसरी की हमदर्दी थी. उन्हें जब जेल जाना पड़ा तब शायद केसरी की ही सलाह थी कि और किसी को नहीं, राबड़ी को मुख्यमंत्री बनाइये. लालू उन्हें चाचा कहते थे. लेकिन इस मुसीबत में जब उनकी राज्यसभा की सदस्यता जाने लगी तब उन्होंने लालू से सहयोग की अपेक्षा की. लालू सोनिया गांधी के मूड-मिजाज को समझते थे. उन्होने सहयोग से साफ़ इंकार कर दिया. इन्हीं सब अपमान और उपेक्षा के बीच वह बीमार हुए. कहते हैं उन्हें धमकियां भी मिल रही थीं. इन चौतरफा घुटन के बीच दिल्ली एम्स में 24अक्टूबर 2000 को वह दिवंगत हो गए. 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने केसरी के इस अपमान-प्रसंग को चुनावी भाषण का विषय बनाया कि कांग्रेस में पिछड़े वर्ग के नेताओं की क्या स्थिति थी.

केसरी की कहानी न केवल कांग्रेस बल्कि हमारी राष्ट्रीय राजनीति के चरित्र और संस्कार को भी सामने लाता है. अपने मध्यकालीन इतिहास में हमने देखा है कि हेमचन्द्र, जिसने मुगलों को लगभग खदेड़ दिया था, को बनिया-बक्काल कह कर राजपूतों ने सहयोग नहीं किया और जब मुगल आए तब उनके लिए पलक-पाँवड़े बिछा दिए. केसरी को भी कांग्रेस की दिल्ली लॉबी बनिया-बक्काल ही कहती थी. वह कोई असाधारण व्यक्तित्व नहीं थे. उनमें कमजोरियां होंगी. मसलन अंग्रेजी नहीं आती थी. लेकिन इतना तो कहा जाएगा कि राजनीति में उन्होंने अपना घर लुटाया, बनाया नहीं. आर्थिक ईमानदारी के मामले में उन पर कभी ऊँगली नहीं उठी, न ही परिवार के किसी व्यक्ति को कभी राजनीति में आगे किया. उनका दोष बस इतना था कि वह पिछड़े वर्ग से थे और यह भी सच है कि कांग्रेस का मण्डलीकरण करना चाहते थे. लेकिन इसकी उन्हें जो सजा मिली वह बहुत अधिक थी.

शायद यही वजह थी कि कुछ वर्ष पूर्व जब अशोक गहलोत को पार्टी अध्यक्ष बनाने केलिए जोर दिया गया तब उन्होंने साफ़ इंकार कर दिया. वह सीताराम केसरी दूसरे नहीं बनना चाहते होंगे.

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