मैंने डॉक्टर की लिखी दवा पैनम डी अपने मेडिकल स्टोर से खरीदी तो वह छपे भाव में मिली और उसे ही जेनेरिक रूप में ऑन लाइन मंगवाई तो 51 % कम में मिली यानि वह जेनेरिक थी । एक ही दवा को लेकर अलग – अलग जेनेरिक दवाइयों की दुकान पर गया। मैंने पाया कि एक ही दवा अलग – अलग दुकान पर अलग – अलग नामों से व भावों से बिक रही है। 20 रुपये की दवा की कीमत भी 80 रूपया लिखा होता है। पता करने पर पाया कि जेनेरिक दवाओं के प्रिंट रेट यानी इन दवाओं पर छपने वाली कीमत पर कोई नियंत्रण नहीं है।
आईएमए के सदस्य और मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर डॉक्टर हेमंत जैन के एक लेख के अनुसार ब्रांडेड मेडिसिन पर फार्मासिस्ट को 5 से 20 प्रतिशत तक कमीशन मिलता है, पर जेनेरिक मेडिसिन की प्रिंट रेट और रीटेलर की खरीद कीमत में 50 गुना से 350 गुना तक का अंतर होता है। 10 पैसे की बी कॉम्प्लेक्स 35 रुपए तक में बिकती है। इसका आम जनता या मरीजों को उतना फायदा नहीं मिलता, जितना मिलना चाहिए। ऐसे में सरकार को जेनेरिक मेडिसिन के प्रिंट रेट पर भी लगाम लगाने की जरूरत है, वरना जनता को कोई फायदा नहीं होने वाला। आम तौर पर सभी दवाएं एक तरह का केमिकल सॉल्ट होती हैं। इन्हें शोध के बाद अलग-अलग बीमारियों के लिए बनाया जाता है। जेनेरिक दवा जिस सॉल्ट से बनी होती है, उसी के नाम से जानी जाती है। जैसे- दर्द और बुखार में काम आने वाले पैरासिटामोल सॉल्ट को कोई कंपनी इसी नाम से बेचे तो उसे जेनेरिक दवा कहेंगे। वहीं, जब इसे किसी ब्रांड जैसे- क्रोसिन के नाम से बेचा जाता है तो यह उस कंपनी की ब्रांडेड दवा कहलाती है। चौंकाने वाली बात यह है कि सर्दी-खांसी, बुखार और बदन दर्द जैसी रोजमर्रा की तकलीफों के लिए जेनरिक दवा महज 10 पैसे से लेकर डेढ़ रुपए प्रति टैबलेट तक में उपलब्ध है। ब्रांडेड में यही दवा डेढ़ रुपए से लेकर 35 रुपए तक पहुंच जाती है।
गौरतलब है कि देश में जेनरिक दवाओं के इस्तेमाल को लेकर केंद्र सरकार ने डॉक्टरों को सख्त निर्देश जारी किया था । सरकार ने आदेश जारी कर सभी डॉक्टरों को जेनरिक दवाएं पेशेंट्स के लिए लिखने को कहा था । साथ ही यह चेतावनी भी दी गई थी अगर डॉक्टर जेनरिक दवा नहीं लिखते तो उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी। स्वास्थ्य सेवा के डायरेक्टर जनरल ने आदेश जारी करते हुए इस बात की वार्निंग दी थी। केंद्र सरकार ने सरकारी अस्पतालों और स्वास्थ्य कल्याण केंद्रों के डॉक्टरों को जेनरिक दवाएं ही लिखने के लिए निर्धारित नियमों का पालन करने की चेतावनी जारी की थी ।पर न जाने क्यों इस आदेश पर अमल नहीं हुआ।
लोगों को सस्ती दवाएं उपलब्ध करवाने और सरकारी नीतियों में बदलाव को लेकर काम कर रहे जन स्वास्थ्य अभियान के डॉ. इंद्रनील मुखोपाध्याय बताते हैं- जेनेरिक दवाओं को लेकर भारत और विदेशों में काफी अंतर है। 2007 के बाद से पेटेंट कानून में कोई प्रभावी संशोधन नहीं हुआ। दूसरी बड़ी बात यह है कि सरकारी अस्पतालों में मिलने वाली दवाओं की कीमतों में भी भारी अंतर होता है। खास तौर पर इनकी प्रिंट रेट और खरीद कीमत में भारी अंतर होता है। ऐसे में सरकार को इन दवाओं की एवरेज प्राइसिंग करनी चाहिए। इससे दवाओं की कीमतों में बड़ा फर्क आ जाएगा। अभी किसी भी मरीज का दवाओं पर औसत खर्च 180% ज्यादा है। दवा कीमतों पर नियंत्रण के बाद इसमें भारी कमी आ जाएगी।
डॉ. मुखोपाध्याय बताते हैं कि जेनेरिक दवा ब्रांडेड भी होती है। एक ही कंपनी जेनेरिक और ब्रांडेड, दोनों दवाएं बनाती है, लेकिन उनकी कीमतों में काफी अंतर होता है। ऐसे में अगर सरकार लोगों को या मरीजों को सस्ती दवाएं उपलब्ध करवाना चाहती है तो उनकी कीमतों पर नियंत्रण जरूरी है। जेनेरिक दवाओं के मामले में भी बड़ा खेल होता है, खासतौर पर सरकारी खरीद या अस्पतालों में खरीदी जाने वाली दवाओं के मामलों में। ऐसे में इनकी कीमतों पर नियंत्रण ही मरीजों को सस्ती दवाएं मिलने का रास्ता खोल सकता है।
कई जानलेवा बीमारियों जैसे एचआईवी, लंग कैंसर, लीवर कैंसर जैसी बीमारियों में काम आने वाली दवाओं के ज्यादातर पेटेंट बड़ी-बड़ी कंपनियों के पास हैं। वे इन्हें अलग-अलग ब्रांड से बेचती हैं। अगर यही दवा जेनेरिक में उपलब्ध हो तो इलाज पर खर्च 200 गुना तक घट सकता है। जैसे- एचआईवी की दवा टेनोफिविर या एफाविरेज़ की ब्रांडेड दवा का खर्च करीब 1 लाख 75 हजार रुपए है, जबकि जेनरिक दवा में यही महज 840 रुपए महीने तक हो सकता है। इन बीमारियों का इलाज ज्यादातर सुपर स्पेशियलिटी अस्पतालों में होता है। ऐसे में ये दवाएं इन अस्पतालों में या वहां के केमिस्ट के पास ही मिल पाती हैं।
नोवार्टिस की कैंसर की दवा ग्लीवियो- इमेटिनिब मिसाइलेट का एक महीने का खर्च करीब 1.51 लाख रुपए पड़ता है, जबकि जेनरिक रूप में इसी दवा का खर्च प्रति माह 12,180 रुपए है। यानी 92% से भी कम। ऐसे ही बेयर की कैंसर ड्रग सोराफेनिब टोसाइलेट, जिसे वह नेक्सावर के नाम से बेचती है, उसका एक महीने का खर्च करीब 4,17,490 रुपया है, जबकि जेनरिक दवा लेने पर यही खर्च महज 12,126 रूपये प्रति माह हो जाता है।
जर्नल ऑफ हेल्थ इकोनॉमिक्स के मुताबिक, एक पेटेंट इनोवेटर को उस उत्पाद पर रिसर्च के दौरान किए गए खर्च या लागत को वसूलने और उससे लाभ हासिल करने की अनुमति देता है। जर्नल की रिपोर्ट के मुताबिक, किसी भी दवा के इनोवेटर या कंपनी उस दवा को बनाने से लेकर बाजार में उतारने और उसके बाद के 10-15 साल के दौरान करीब 5,600 करोड़ रुपए खर्च करती है। ऐसे में पेटेंट के 20 साल के दौरान उसे इस खर्च को वसूलने और मुनाफा कमाने का मौका मिल जाता है।
डॉ. हेमंत जैन और डॉ. मुखोपाध्याय का कहना है कि अगर जेनेरिक दवा लिखना अनिवार्य होता है तो इसके साथ-साथ फार्मा सेक्टर में हजारों नौकरियों पर भी खतरा पैदा हो जाएगा। इनके मुताबिक, एक दवा को कई कंपनियां बनाती हैं। उनके प्रचार-प्रसार या उन्हें प्रमोट करने के लिए भारी भरकम स्टाफ रखती है। इनमें सबसे ज्यादा मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव (एमआर) हैं, जो डॉक्टर्स के पास विजिट कर उन्हें अपनी कंपनी की दवा लिखने को कहते हैं। कई डॉक्टर्स को इसके लिए बाकायदा कमीशन या महंगे-महंगे गिफ्ट तक दिए जाते हैं। ऐसे में डॉक्टर जब सिर्फ जेनेरिक दवा लिखेंगे, तो यह सब करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। इसका दूसरा असर यह होगा कि ब्रांडिंग खत्म हो जाएगी तो दवा कंपनियों को प्रचार-प्रसार के लिए स्टाफ भी कम रखना पड़ेगा। कई लाख मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव्ज़ की नौकरियां खतरे में आ जाएंगी। फार्मा और मेडिकल सेक्टर से जुड़ी डॉकप्लेक्सस के मुताबिक, बड़ी कंपनियों में से प्रत्येक अपने उत्पादों के प्रचार-प्रसार के लिए 5 हजार से ज्यादा फील्ड स्टाफ रखती है। इसके अलावा फार्मा कंपनियां कुल बजट का 20% फील्ड स्टाफ की भर्ती और खर्च का 60% फील्ड स्टाफ और उनसे जुड़ी गतिविधियों पर खर्च करती हैं।
ज्यादातर डॉक्टर्स सरकार की इस योजना का विरोध कर रहे हैं। वे आशंका जता रहे हैं कि ऐसे किसी कानून के लागू होने के बाद दवा से जुड़ी सभी शक्तियां केमिस्ट के हाथों में चली जाएंगी। उनकी दलील है कि डॉक्टर के जेनेरिक दवा लिखने के बाद केमिस्ट तय करेगा कि मरीज को कौन-सी दवा देनी है। ऐसी स्थिति में वह दवा की गुणवत्ता की परवाह किए बिना वही दवा देगा, जिसकी बिक्री से उसे अधिक मार्जिन या मुनाफा हासिल होगा। फार्मा सेक्टर से जुड़े सूत्र बताते हैं कि इसमें डॉक्टर्स को तो कोई नुकसान नहीं होगा, क्योंकि उनके पास तो मरीज आते रहेंगे, लेकिन जनता को अच्छी गुणवत्ता की जेनेरिक दवा मिलेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। इसके बाद दवा कंपनियां सीधे स्टॉकिस्ट या केमिस्ट से संपर्क करेंगी और उसे अपनी दवा बिक्री के लिए कई तरह के लालच दे सकती हैं, जिसका नुकसान आखिरकार आम जनता को उठाना पड़ सकता है। ऐसे में सरकार को इस दिशा में भी सोच-विचार करना चाहिए। अब यह सरकार को तय करना है कि जिस कानून को वह साल दर साल दोहराती है उसे अमली जामा कैसे पहनाया जा सकता हैं।