तिल होता है तभी तो ताड़ की गुंजाइश बनती है। चुनाव के माहौल में कुछ ज्यादा आसानी से तिल का ताड़ बनाने और बताने की परम्परा कब शुरू हुई, बताना मुश्किल है। लेकिन, यह मुहावरा पुराना है। समय के अनुसार यह स्वाभाविक रूप से परिष्कृत होती रही है। गोल गोल आंखें मटकाकर ताड़ को झुठलाने और कभी कभी विरोधियों को ही लपेटे में लेने की चतुराई को समाज भी समझता है। यह बात और है कि वह मौन रहता है। शायद सियासती चेहरों के चरित्र से लोग भली-भांति परिचित हैं। अब एक मछली तालाब को गंदा करने के तर्क बेमानी हो गए हैं। तालाब ही गंदा हो तो बेचारी मछली व्यर्थ क्यों बदनाम हो।
जहां तक चुनाव की बात है तो यह खेल अब बड़ा महंगा हो गया है। गरीब या सामान्य वर्ग का व्यक्ति यह खेल खेलने की सामर्थ्य खोता जा रहा है। जिस खेल में मोटी पूंजी लगे तो वहां लाभ और व्यापार की चिंता और चतुराई स्वाभाविक रूप से हो ही जाती है। शायद ऐसा होता दिख भी रहा है। लोग कहने भी लगे हैं कि सियासत के क्षेत्र से सेवा का भाव लुप्त होता जा रहा है। यहां मेवा खूब है। इसलिए लोग भी अब इस क्षेत्र में कैरियर बनाने के इरादे से क्यों नहीं आएंगे? ऐसी स्थिति में जब सड़क पर खड़ा आदमी सियासत में प्रवेश कर चंद सालों में ही धन-धान्य से समृद्ध हो जाता है। तब पद की लालसा कुलांचें क्यों नहीं भरेंगी?
हम महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव में कैश फॉर वोट की बात नहीं करना चाहते। क्योंकि जैसे ही यह चर्चा छिड़ेगी तो 30 साल पीछे तलक जाएगी। पीछे की चर्चा से बिटकॉइन के ओडियो कैसेट याद आ गए। आरोप प्रत्यारोप का दौर जारी है। यह मानकर चलिए कि चुनाव के दौरान ऐसा होता रहता है। इसलिए हम भी बजाय पीछे मुड़ने के वर्तमान और आगे की सुधि लेना पसंद करेंगे। जो बीत गया उससे सबक लेकर भविष्य संवारने की बात होनी भी चाहिए। आज जैसा हुआ है वैसा पहले भी हुआ था। इस तर्क और बहस में समय ही खराब होने वाला है। दूसरे की चादर मैली बताने से अपनी चादर उजली नहीं होगी। इसीलिए क्यों न आज की और आगे क्या हो सकता है इसकी बात की जाए।
आज की बात यह है कि चुनाव महंगे होते जा रहे हैं। आम आदमी की सामर्थ्य से दूर। यह कहना कि लोकतंत्र के चुनावी महाकुंभ में भाग लेना शायद गरीब के वश की बात ही नहीं रही। चुनाव खर्च सीमा भी बढ़ते बढ़ते इतनी अधिक हो गई है कि जितनी एक गरीब व्यक्ति शायद जीवन भर में मुश्किल से कमा पाता हो। लोकसभा चुनाव का प्रत्याशी बड़े राज्यों में 95 लाख तक खर्च कर सकता है। जबकि छोटे राज्यों में यह सीमा 20 लाख कम यानि 75 लाख है। विधानसभा चुनावों के लिए खर्च की सीमा क्रमश: 40 और 28 लाख है। अब जो प्रत्याशी इतनी मोटी रकम दांव पर लगाकर चुनाव मैदान में उतरेगा उसके सपनों में सेवा के साथ मेवा पाने की इच्छा क्यों नहीं हिलोरें लेती होगी? पद पाने की आपाधापी शायद इसीलिए तो होती है। अगर कोरी सेवा करनी हो तो बिना पद पाए भी की जा सकती है।
महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव में दलीय प्रत्याशियों की माली हालत पर अगर नजर डाली जाए तो शायद ही कोई प्रत्याशी करोड़पति से कम मिले। महाराष्ट्र के प्रत्याशियों की घोषित संपत्ति का ब्यौरा इस बात की पुष्टि करता है। भाजपा के 149 सीटों पर प्रत्याशी थे। इनकी औसत संपत्ति 53.98 करोड़ है। वहीं शिवसेना (शिंदे) के 81 प्रत्याशियों की औसत संपत्ति 29.02 और एनसीपी (अजीत) के 59 प्रत्याशियों की 22.99 करोड़ है। आंकड़े बताते हैं कि कांग्रेस, एनसीपी (शरद) और शिवसेना (यूबीटी) आर्थिक रूप से थोड़े कमजोर अवश्य थे पर वे भी करोड़ों की संपत्ति के स्वामी रहे हैं। कांग्रेस के 101 प्रत्याशी औसतन 25.29 करोड़, एनसीपी (शरद) के 84 प्रत्याशी औसतन 24.54 करोड़ तथा शिवसेना (यूबीटी) के 95 प्रत्याशी भी औसतन 15.28 करोड़ की संपत्ति के स्वामी रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह कि महाराष्ट्र के रण में उतरे महायुति और महा विकास आघाड़ी के प्रत्याशियों की पहली योग्यता उनका करोड़पति होना ही रहा। गरीब की बात करने वाले प्रमुख गठबंधनों के छहों दलों ने एक भी गरीब को प्रत्याशी नहीं बनाया।
झारखंड में भी करोड़पतियों की भरमार
झारखंड में भी करोड़पतियों को हर पार्टी ने तरजीह दी है। पाकुड़ से समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी अकील अख्तर सबसे अमीर प्रत्याशी हैं। उन्होंने 402 करोड़ रुपये से ज्यादा की संपत्ति घोषित की है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के पास 25 करोड़ रुपये से ज्यादा की कुल संपत्ति है। वहीं भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी ने कुल एक करोड़ रुपये की संपत्ति घोषित की है।सरायकेला से भाजपा उम्मीदवार चंपई सोरेन के पास तीन करोड़ से अधिक जबकि सीता सोरेन के पास आठ करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति है। एडीआर के आंकड़ों के अनुसार भाजपा के 32 में से 23, झामुमो के 20 में से 18, कांग्रेस के 12 में से 10 और आजसू के 6 में से 5 उम्मीदवारों ने करोड़ों में संपत्ति घोषित की है। इस चरण में सभी उम्मीदवारों की औसत संपत्ति 2.53 करोड़ रुपए है।
पैसा होगा तो पैसा दिखेगा भी और चुनाव में बहेगा भी। चुनाव आयोग भी इससे वाकिफ हैं इसलिए ही शायद चुनाव खर्च की सीमा भी आचार संहिता के बहाने तय भी कर दी गई है। एयर पोर्ट पर प्रत्याशी 10 लाख कैश और एक किलो सोना साथ में रख सकते हैं। इससे ज्यादा होने पर वैरीफिकेशन होने तक माल जब्त किया जा सकता है। उम्मीदवार के कार्यकर्ता भी 50 हजार नकद और दस हजार की शराब रख सकते हैं। लेकिन उसे डाक्यूमेंट दिखाने होंगे।
2024 में हुए लोकसभा चुनाव के दौरान प्रत्याशियों और उनके कार्यकर्ताओं से जब्त रकम, शराब और कीमती उपहार की मात्रा हैरान करने के साथ ही यह साबित करती है कि चुनाव के दौरान धनबल का कितना दुरुपयोग होता रहा है। इस दौरान 562.10 करोड़ मूल्य की कीमती धातु, 1142.49 करोड़ के उपहार व अन्य सामान सहित कुल 4658.16 करोड़ रुपए मूल्य का सामान जब्त किया गया है। चुनाव के दौरान शराब समेत अन्य नशीले पदार्थों का भी इस्तेमाल होता रहा है। लोकसभा चुनाव के आचार संहिता काल में 489.31 करोड़ मूल्य की शराब और 2068.85 करोड़ मूल्य के नशीले पदार्थ जब्त किए गए हैं।
महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव में भी करोड़ों के बहुमूल्य उपहार, कीमती धातु और ड्रग्स का जखीरा जब्त किया गया। महाराष्ट्र में 282 करोड़ की कीमती धातु, 81 करोड़ के उपहार और 153 करोड़ नगद नारायण बरामद हुए। झारखंड में 15 करोड़ नगद, 152 करोड़ के उपहार और 15 करोड़ मूल्य ड्रग्स जब्त हुए। यह तब है जब चुनाव के दौरान बड़े नेताओं के हेलीकॉप्टर और वाहनों की चैकिंग चलती रही।