Uddhav and Rahul
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mahesh khare
महेश खरे की तस्वीर

वैसे तो चुनाव में जो जीता सिकंदर वही होता है। बाद में जीत को ध्यान में रखकर ही समीक्षाएं होती हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में अगर यह कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा कि महाराष्ट्र के मतदाताओं को कांग्रेस शिवसेना (यूबीटी) की बेमेल दोस्ती पच नहीं पाई। जनता विचारधारा से जुड़ती है। बाला साहेब ठाकरे की नीति से उद्धव ठाकरे का भटकाव जनता को पसंद नहीं आया। विरासत का दावा करने वाले ही अगर विचारधारा से दाएं बाएं करने लगें तो जनता आखिर कहां तक साथ निभाएगी? लोकसभा की बात और थी। राज्य का चुनाव तो ठेठ क्षेत्रीय मुद्दों पर लड़ा जाता है। नतीजों पर नजर डालें तो यही निष्कर्ष सच के करीब लगता है।

इसके अलावा मुख्यमंत्री पद के चेहरे पर एक राय नहीं बन पाना भी महा विकास अघाड़ी की पराजय का बड़ा कारण रहा। सीएम पद के लिए उद्धव ठाकरे की महत्वाकांक्षा पर शरद पवार की एनसीपी ने सुप्रिया सुले का नाम उछालकर पानी फेरने का काम किया। उधर राहुल गांधी चुनाव के बाद मुख्यमंत्री तय करने की बात करते रहे लेकिन नाना पटोले के मन में कहीं न कहीं सीएम पद बसा रहा। शायद यही कारण था कि एमवीए के घटक दल एकता प्रदर्शित करते हुए भी जमीन पर विभाजित रहे। वर्चस्व की लालसा में एक दूसरे पर ही दांव आजमाए गए। संजय राऊत के बयानों ने भी खटास बढ़ाने का काम किया।

दूसरी ओर महायुति में भी मुख्यमंत्री के प्रश्न पर एकनाथ शिंदे, देवेंद्र फडणवीस और अजीत पवार के नाम यदा कदा उछलते रहे। इसके बावजूद इस प्रश्न पर तीनों घटक दल एक इसलिए बने रहे क्योंकि सभी को यह पता था कि सीएम का नाम मुंबई में नहीं दिल्ली में ही तय होगा। इसका उदाहरण स्वयं देवेन्द्र फडणवीस हैं। जिन्होंने पांच साल मुख्यमंत्री रहने के बाद भी उपमुख्यमंत्री पद संभाला। हालांकि राजनीति में ऐसे उदाहरण कम ही हैं। लेकिन एक अनुशासित कार्यकर्ता के रूप में ‘देवाभाऊ’ यह कड़वा घूंट पीते रहे। उन्होंने अपना दर्द उस समय इस तरह जाहिर भी किया- ‘पानी उतरता देख किनारे पर घर मत बसाना, मैं समंदर हूं लौट कर वापस आऊंगा।’ संयोग से फडणवीस की वापसी का अवसर आ गया है। अगर इस बार उनकी ताजपोशी हो जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा। वह इसलिए भी कि चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा की कमान देवेंद्र के ही हाथ में रही। महायुति में बेहतर तालमेल, प्रभावी बूथ प्रबंधन और मुद्दों पर विपक्ष को कड़ा जवाब देने में देवा भाऊ का कट्टर हिंदूवादी चेहरा ही आगे रहा। महाराष्ट्र के मतदाता को ऐसे ही तेवर भाते हैं। फिर भाजपा के बूथ और पन्ना प्रमुख भी गेम चेंजर साबित हुए।

भाजपा को चुनावी कामयाबी दिलाने में केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने भी खूब पसीना बहाया। उन्होंने राज्य में सबसे अधिक 67 रैलियां कीं। चुनाव में पीएम नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता के साथ-साथ ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ और ‘एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे’ जैसे नारों और लाड़ली बहना योजना का योगदान साफ-साफ दिख रहा है। हालांकि कांग्रेस ने भाजपा से दुगनी राशि महिलाओं को देने का वादा किया। लेकिन, महिलाओं का भरोसा मोदी और महायुति के वादे पर ज्यादा रहा। इसके पीछे कर्नाटक और हिमाचल की कांग्रेस सरकारों की वादे निभाने में की गई हीला-हवाली मानी जा रही है। वैसे भी इस बार महाराष्ट्र के साथ-साथ झारखंड और 15 राज्यों में हुए विधानसभा के 48 उपचुनावों में कुछ एक अपवादों को छोड़कर सत्तारूढ़ पार्टी या गठबंधन के वादों को ही मतदाता ने ज्यादा तवज्जो दी है।

यूपी में सीएम योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली डबल इंजन सरकार कड़े मुकाबले में सपा को पटखनी देने में कामयाब रही। विधानसभा की नौ सीटों पर हुए उपचुनावों में भाजपा गठबंधन ने सात सीटें जीत कर छह माह में ही लोकसभा की हार का बदला चुका लिया। पश्चिम बंगाल में भाजपा की कड़ी घेराबंदी के बावजूद ममता बनर्जी की ठसक बरकरार रही। यहां छहों सीटों के उपचुनाव में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस को शानदार कामयाबी मिली। बिहार की चारों सीटों पर भाजपा जदयू गठबंधन का जलवा रहा। जबकि पंजाब की चार में से तीन सीटें सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी और कर्नाटक की चार में से तीन सीटें कांग्रेस सरकार के खाते में गईं। वहीं राजस्थान की 7 में से छह सीटें सत्तारूढ़ भाजपा ने जीत ली। बिहार के उपचुनाव में प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी को मतदाता ने खास तरजीह नहीं दी। बिहार में बदलाव के नारे के साथ बनी इस पार्टी की यह पहली चुनावी परीक्षा थी जिसमें वह अच्छे नंबर नहीं ला पाई।

भाजपा की चुनावी कामयाबी के पीछे उसकी रणनीतिक सूझबूझ है। कहा जाता है कि भाजपा हर हार से कुछ ना कुछ सीखती है। नए चुनाव में पुरानी गलती रिपीट नहीं हो, इसका ध्यान रखा जाता है। लोकसभा चुनाव के बाद हुए हरियाणा विधानसभा चुनाव में इसी रणनीतिक कुशलता के आगे कांग्रेस चुनावी बाजी हार चुकी है। महाराष्ट्र में भी भाजपा ने फूंक फूंककर कदम बढ़ाए। मतभेदों को समय रहते शांत करने से भी कड़वाहट आगे नहीं बढ़ पाई। ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ नारे पर अजीत पवार समेत कुछ नेताओं के विरोध को भी टाइम पर टेकल कर लिया गया। नतीजतन सकारात्मक असर से महायुति और खासकर एनसीपी को लाभ हुआ। महायुति की एकता के बूते ही ना केवल भाजपा ने सबसे बड़ी पार्टी का रिकॉर्ड बनाया बल्कि जनता की अदालत में एकनाथ शिंदे की शिवसेना और अजीत पवार की एनसीपी को ‘असली’ का तमगा भी मिल गया। जनता ने स्पष्ट कर दिया कि वह महाराष्ट्र में अजीत पवार और केंद्र की राजनीति में शरद पवार को देखना चाहती है। लोकसभा चुनाव में महायुति के छक्के छुड़ाने वाले महा विकास अघाड़ी गठबंधन की हालत देखिए कि विधानसभा में उसके इतने विधायक ही पहुंच पाए हैं जो राज्यसभा में केवल एक सांसद ही भेज पाएंगे।

झारखंड में प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा सबसे अधिक वोट शेयर हासिल करने के बावजूद लोकल और बाहरी की लड़ाई में फंस कर जीती हुई बाजी हार गई। केन्द्रीय कृषि मंत्री व मध्य प्रदेश के मामा शिवराज सिंह चौहान और असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिश्वसरमा ने खूब मेहनत की। शायद लोकल नेता को प्रोजेक्ट नहीं किए जाने के कारण घुसपैठ और माटी, रोटी, बेटी के मुद्दे भाजपा को झारखंड में जिताऊ वोट नहीं दिला पाए। आयातित नेता भी चुनाव में भाजपा के बहुत काम नहीं आए। जेएमएम से रूठकर आए चंपई सोरेन का भाजपा को कुछ लाभ नहीं हुआ। उनके बेटे बाबूलाल भी चुनाव नहीं जीत सके। हेमंत सोरेन की भाभी सीता सोरेन लोकसभा की तरह विधानसभा चुनाव भी हार गईं। इसके विपरीत हेमंत सोरेन की जेल यात्रा ने जेएमएम के पक्ष में सहानुभूति वोट जुटाए। मैया सम्मान योजना पर रीझी आधी आबादी ने जेएमएम की झोली दो-तिहाई वोटों से भर दी। गांव में भाजपा का संगठन महाराष्ट्र की तरह मजबूत नहीं होने का लाभ भी हेमंत सोरेन के पक्ष में गया।

कांग्रेस के साथ शायद एक नया नरेटिव जुड़ गया है। वह यह कि जहां कांग्रेस क्षेत्रीय दल की सहायक बनकर चुनाव लड़ती है। वहां कामयाब हो जाती है। झारखंड में जेएमएम की चुनावी सफलता का एक राज यह भी है। महाराष्ट्र में कांग्रेस एमवीए का नेतृत्व कर रही थी। वहां वह बुरी तरह से स्वयं भी हारी और साथियों की चुनावी लुटिया भी डूबने से नहीं बचा पाई। कांग्रेस का संविधान बचाने और जाति जनगणना का मुद्दा महाराष्ट्र में काम नहीं आया। इसके विपरीत उलेमाओं के 17 सूत्री मांगों से सहमत होना कांग्रेस समेत उद्धव ठाकरे और शरद पवार के लिए भारी पड़ा।

केरल की वायनाड लोकसभा सीट का उपचुनाव महत्वपूर्ण होने के बाद भी मीडिया की सुर्खियों में नहीं रह पाया। महत्वपूर्ण इसलिए कि वायनाड सीट राहुल गांधी के इस्तीफे के कारण रिक्त हुई और उनकी बहन प्रियंका वाड्रा ने यहां से पहली बार चुनावी भाग्य आजमाया। यह प्रारंभ से ही कांग्रेस की सुरक्षित सीट मानी जा रही थी। पहले से कम वोटिंग होने के बाद भी यहां राहुल गांधी की जीत का रिकॉर्ड तोड़कर प्रियंका ने बाजी मारी है।जीत के बाद इलाके में लगे पोस्टर में प्रियंका को दादी इंदिरा गांधी की वापसी के रूप में दिखाया गया है। देखना यही होगा कि प्रियंका लोकसभा में स्वयं को इंदिरा की तरह प्रस्तुत करने में कितनी कामयाब हो पाती हैं। वैसे प्रियंका की जीत के साथ ही कांग्रेस में नेतृत्व को लेकर नया चिंतन शुरू हो गया है। आने वाले समय में इसके प्रभाव से कांग्रेस शायद ही बच पाए।

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