Bhopal gas tragedy
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ashok bhatia
Ashok Bhatia

भोपाल शहर में 3 दिसंबर की 1984 की सुबह को जब लोग नींद में से उठे तब तक यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड (यूसीआईएल) संयंत्र से अत्यधिक जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस लीक के कारण 5,479 लोग मारे जा चुके थे और पांच लाख से अधिक लोग अपंग हो गए थे। यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री काली परेड औद्योगिक परिसर का हिस्सा थी और यह वर्तमान पुराने शहर के बाहरी इलाके में थी।

घटनाक्रम के अनुसार 2 दिसंबर 1984 की मध्य रात से मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल की हवा जहरीली हो रही थी। रात होते ही और 3 तारीख लगते ही ये हवा जहरीली तो रही, लेकिन साथ ही जानलेवा भी हो गई। कारण था यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का लीक होना।गैस के लीक होने की वजह थी टैंक नंबर 610 में जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का पानी से मिल जाना। इससे टैंक में दबाव बन गया और वो खुल गया। फिर इससे निकली वो गैस, जिसने हजारों की जान ले ली और लाखों को विकलांग बना दिया, जिसका दंश आज भी दिखाई पड़ता है।2-3 दिसंबर की रात भोपाल के लिए वो रात थी जब हवा में मौत बह रही थी। फैक्ट्री के पास ही झुग्गी-बस्ती बनी थी, जहां काम की तलाश में दूर-दराज गांव से आकर लोग रह रहे थे। इन झुग्गी-बस्तियों में रह रहे कुछ लोगों को तो नींद में ही मौत आ गई। जब गैस धीरे-धीरे लोगों को घरों में घुसने लगी, तो लोग घबराकर बाहर आए, लेकिन यहां तो हालात और भी ज्यादा खराब थे। किसी ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया, तो कोई हांफते-हांफते ही मर गया।

इस तरह के हादसे के लिए कोई तैयार नहीं था। बताते हैं कि उस समय फैक्ट्री का अलार्म सिस्टम भी घंटों तक बंद रहा था, जबकि उसे बिना किसी देरी के ही बजना था। जैसे-जैसे रात बीत रही थी, अस्पतालों में भीड़ बढ़ती जा रही थी, लेकिन डॉक्टरों को ये मालूम नहीं था कि हुआ क्या है? और इसका इलाज कैसे करना है?उस समय किसी की आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था, तो किसी का सिर चकरा रहा था और सांस की तकलीफ तो सभी को थी। एक अनुमान के मुताबिक, सिर्फ दो दिन में ही 50 हजार से ज्यादा लोग इलाज के लिए पहुंचे थे। जबकि, कइयों की लाशें तो सड़कों पर ही पड़ी थीं।

भोपाल गैस त्रासदी की गिनती सबसे खतरनाक औद्योगिक दुर्घटना में होती है। इसमें कितनों की जान गई? कितने अपंग हो गए? इस बात का कोई सटीक आंकड़ा नहीं है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस दुर्घटना में 3,787 लोगों की मौत हुई थी, जबकि 5.74 लाख से ज्यादा लोग घायल या अपंग हुए थे। दूसरी ओर, सुप्रीम कोर्ट में पेश किए गए एक आंकड़े में बताया गया है कि दुर्घटना ने 15,724 लोगों की जान ले ली थी।इस हादसे का मुख्य आरोपी था वॉरेन एंडरसन, जो इस कंपनी का CEO था। 6 दिसंबर 1984 को एंडरसन को गिरफ्तार भी किया गया, लेकिन अगले ही दिन 7 दिसंबर को उन्हें सरकारी विमान से दिल्ली भेजा गया और वहां से वो अमेरिका चले गए। इसके बाद एंडरसन कभी भारत लौटकर नहीं आए। कोर्ट ने उन्हें फरार घोषित कर दिया था। 29 सितंबर 2014 को फ्लोरिडा के वीरो बीच पर 93 साल की उम्र में एंडरसन का निधन हो गया।गैस लीक होने के 8 घंटे बाद भोपाल को जहरीली गैस के असर से मुक्त मान लिया गया था, लेकिन 1984 में हुई इस दुर्घटना से मिले जख्म 38 साल बाद भी भरे नहीं हैं।

गैस पीड़ितों के लिए बने सबसे बड़े और एकमात्र सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल बीएमएचआरसी के हाल ये हैं, कि यहां कई विशेषज्ञ डॉक्टर नौकरी छोड़ कर निजी अस्पतालों में ऊंची तनख्वाहों पर अपनी सेवाएं दे रहे हैं । बार-बार विभाग बदलने और डॉक्टरों के सेवा नियमों में बदलाव के चलते यहां से डॉक्टरों का 2012 से पलायन शुरू हो गया था । अब तक नियमित और संविदा मिलाकर 23 सुपर स्पेशलिस्ट यहां से जा चुके हैं । 1998 में बने इस अस्पताल को बनाने के पीछे मकसद था कि गैस पीड़ितों को सबसे अच्छा इलाज मिलेगा, लेकिन हकीकत यह है कि कैंसर सर्जरी, कैंसर मेडिसिन, किडनी रोग, यूरोलाजी और उदर विभागों में तो एक भी डॉक्टर नहीं है । किडनी मरीजों की डायलिसिस की जा रही है, लेकिन किडनी का कोई विशेषज्ञ नहीं है । अस्पताल में करोड़ों रुपए की मशीनें खरीद ली गयीं, पर चलाने वाले ही नहीं हैं । भोपाल ग्रुप फॉर इनफॉरमेशन एंड एक्शन की रचना ढींगरा का कहना है कि बीएमएचआरसी में न तो डॉक्टर हैं और न ही जांच और इलाज की पर्याप्त सुविधाएं । जिस अस्पताल का काम गैस पीड़ितों का सही इलाज और शोध करना था, वहां गैस पीड़ित इलाज और दवा के अभाव में असमय मर रहे हैं ।

गैस पीड़ितों के हाल इससे ही समझे जा सकते हैं कि उनके अस्पताल, इलाज, मुआवजे के लिए सड़क से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक लंबी लड़ाई लड़ऩे वाले गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के नेता अब्दुल जब्बार को ही समय पर इलाज नहीं मिल पाया । 2 वर्ष पूर्व बीएमएचआरसी में बेहतर इलाज न मिलने के कारण उनकी मौत हो गई । उसी बीएमएचआरसी में जो गैस पीड़ितों के लिए ही बना है । जब्बार देश-विदेश में गैस पीड़ितों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वालों का प्रमुख चेहरा थे ।गैस पीड़ितों के लिए काम करने वाले संगठन संभावना ट्रस्ट ने मीडिया को अपने अध्ययन के हवाले से बताया कि बीते 15 साल में गैस पीड़ितों में बीमारियां 3 गुना ज्यादा बढ़ी । गैस पीड़ितों में किडनी, लिवर, लंग्स, डायबिटीज, ब्लड प्रेशर जैसी तमाम बीमारियां बढ़ गई । ट्रस्ट के सतीनाथ षडंगी और संभावना क्लीनिक के डा . संजय श्रीवास्तव ने 15 साल में 27 हजार 155 गैस पीड़ितों के इलाज के दौरान सामने आये आंकड़ों के आधार पर ये दावा किया । उन्होंने अपने विश्लेषण में पाया है कि यूनियन कार्बाइड की जहरीली गैस से पीड़ित लोगों में स्वस्थ लोगों की तुलना में वजन और मोटापे की समस्या 3 गुना ज्यादा है । इसके अलावा थायराइड की बीमारी की दर लगभग 2 गुना ज्यादा है । गैस त्रासदी के शिकार होने की वजह से पीड़ितों के शरीर के अंदरूनी और बाहरी तंत्र को स्थाई रूप से नुकसान पहुंचा है ।

40 साल पहले हुई इस गैस त्रासदी ने कई महिलाओं की कोख को आबाद नहीं होने दिया । जहरीले रसायन का असर ऐसा था कि बार-बार महिलाओं का गर्भपात हो जाता था । यह बात कई शोधों, अध्ययनों और सर्वे रिपोर्ट्स के माध्यम से जाहिर हो चुकी है । सन् 2012 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी यूनियन कार्बाइड कारखाने में दफन जहरीला रासायनिक कचरा राज्य की सरकारें हटवाने में आज तक नाकाम रहीं । सुप्रीम कोर्ट का आदेश था कि वैज्ञानिक तरीके से कचरे का निष्पादन किया जाए, लेकिन कारखाने में दफन 346 टन जहरीले कचरे में से 2015 तक केवल एक टन कचरे को हटाया जा सका । इस काम का ठेका रामको इन्वायरो नामक कंपनी को दिया गया है । लेकिन कचरा अभी तक क्यों नहीं हटाया जा सका, इसका जवाब किसी के पास नहीं है । इस कचरे के कारण यूनियन कार्बाइड के आसपास की 42 से ज्यादा बस्तियों का भूजल जहरीला हो चुका है । पानी पीने लायक नहीं है, लेकिन किसी को फिक्र नहीं है । गैस पीड़ितों के लिए काम करने वाले संगठन संभावना ट्रस्ट के प्रबंधक, न्यासी सतीनाथ षडंगी ने 1 दिसंबर मंगलवार को त्रासदी की 36वीं बरसी की पूर्व संध्या पर दावा किया कि परिसर में पड़े जहरीले कचरे का दुष्प्रभाव भोपाल रेलवे स्टेशन तक पहुंच गया है । यूनियन कार्बाइड कारखाने और स्टेशन की दूरी डेढ़ से दो किलोमीटर है । दो साल पहले तक जहरीले कचरे से आसपास की 48 बस्तियों के भूमिगत जल स्त्रोत प्रभावित हुए थे । लेकिन इसका भूमिगत दायरा बढ़कर भोपाल स्टेशन तक जा पहुंचा है । इससे उन रहवासियों के लिए दिक्कतें होंगी, जो इस इलाके के भूमिगत जल स्त्रोतों का उपयोग करते हैं ।

केंद्र सरकार ने वर्ष 2010 में सुधार याचिका लगाई थी, जो पांच न्यायाधीश वाली संविधान पीठ के पास है। इस पर विगत 11 अक्टूबर को हुई सुनवाई में केंद्र सरकार की ओर से जनवरी 2023 में होने वाली सुनवाई में तथ्यों के साथ बहस करने का भरोसा दिया है। दुनिया की बड़ी औद्योगिक त्रासदी में शामिल भोपाल गैस कांड पर सुप्रीम कोर्ट में 38 वर्ष बाद शुरू हुई सुधार याचिका पर सुनवाई ने गैस पीड़ितों में न्याय की उम्मीद जगा दी है। दो व तीन दिसंबर 1984 की दरमियानी रात हुई इस त्रासदी में हजारों परिवारों ने अपना सब कुछ दिया था । इन परिवारों की अब तीसरी पीढ़ी भी त्रासदी का दंश झेलने का मजबूर है। सरकार ने गैस पीड़ितों के लिए स्वास्थ्य से लेकर तमाम सुविधाएं समय-समय पर मुहैया कराने के प्रयास किए, लेकिन लचर व्यवस्था के चलते प्रयास नाकाफी रहे। ज्यादातर पीड़ित परिवारों के पास रोजगार के साधन नहीं रहे । ये रोज कमाते और रोज खाते रहे । त्रासदी के बाद पीड़ितों को दिए गए मुआवजे को गैस पीड़ित संगठन नाकाफी बताते रहे और उनकी लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गई।

बताया जाता है कि इस आपदा के कारण, भोपाल राज्य की राजधानियों के विकास की दौड़ में पिछड़ गया। भोपाल में कोई नया औद्योगिक और बड़ा व्यवसाय विकास नहीं हुआ, जिसके परिणामस्वरूप शहर के विकास की गति धीमी हो गई। गैस त्रासदी के समय, भोपाल की आबादी लगभग 8. 5 लाख थी। बताया गया कि लगभग 5. 2 लाख लोग, जिनमें 2 लाख बच्चे और लगभग 3,000 गर्भवती महिलाएं शामिल थीं, उस समय 36 वार्डों में रह रहे थे, जिन्हें बाद में “गैस प्रभावित” घोषित किया गया। आपदा के तुरंत बाद स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं और प्रदूषण के बने रहने के डर से बड़ी संख्या में लोग शहर छोड़कर चले गए। लेकिन समय के साथ, शहरीकरण और आर्थिक अवसरों जैसे कारकों से प्रभावित होकर जनसंख्या स्थिर हो गई और बढ़ने लगी। 1991 तक, जनसंख्या में वृद्धि हुई, जो धीरे-धीरे वापसी और निवासियों के आने का संकेत देती है। बताते है कि संदूषण की चिंताओं के कारण गैस रिसाव स्थल के आसपास के क्षेत्र में विकास धीमी गति से हुआ, क्योंकि लोग गैस रिसाव के असर को लेकर सतर्क थे।

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