भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस), भारतीय साक्ष्य अधिनियम (बीएसए) और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) के लागू होने के बाद से देश भर में इन नए कानूनों को लेकर विभिन्न तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। ये नये कानून भारतीय कानूनी प्रणाली के आधुनिकीकरण और सरलीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हैं। ब्रिटिश काल के पुराने कानूनों को बदलकर, ये नए कानून देश की वर्तमान आवश्यकताओं के अनुरूप हैं और न्याय व्यवस्था में तेजी लाने, लंबित मामलों को जल्दी निपटाने में मदद करेंगे। भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता में अपराधों की जांच और मुकदमों को तय समय सीमा में निपटाने की व्यवस्था है, जिससे न्याय में देरी नहीं होगी।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता में महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा के लिए मजबूत प्रावधान किए गए हैं, जिससे सुरक्षा की भावना बढ़ी है और अपराधों पर नियंत्रण की उम्मीद है। इन कानूनों के माध्यम से सरकार कानून का शासन स्थापित करने और कानून व्यवस्था बनाए रखने का संकल्प दोहरा रही है। कई लोग मानते हैं कि ये कानून देश के आर्थिक विकास को बढ़ावा देंगे, क्योंकि ये निवेशकों के लिए एक अनुकूल वातावरण तैयार करेंगे।
इन कानूनों में तकनीकी बदलाव किए गए हैं, जैसे इलेक्ट्रॉनिक सबूतों को स्वीकार करना, जो जांच प्रक्रिया को अधिक कुशल और प्रभावी बनाता है। कुछ लोगों का मानना है कि इन नए कानूनों में कई जगह अस्पष्टताएं हैं। मानवाधिकार कार्यकर्ता भी चिंतित हैं कि इन कानूनों का इस्तेमाल मौलिक अधिकारों का हनन करने के लिए किया जा सकता है। कुछ विपक्षी दलों और कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि इन कानूनों को बनाने में पर्याप्त चर्चा और विचार-विमर्श नहीं किया गया है। कुछ का मानना है कि इन कानूनों के तहत सरकार को बहुत अधिक शक्तियां दे दी गई हैं, जिसका दुरुपयोग हो सकता है।
कई विपक्षी दल और नागरिक संगठन इन कानूनों को लोकतंत्र के लिए चुनौती मानते हैं, उनकी राय में ये कानून सरकार को विरोधियों को दबाने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अतिक्रमण का एक उपकरण प्रदान कर सकते हैं। कानूनों में अस्पष्ट और व्यापक शब्दों के प्रयोग से इनके दुरुपयोग का डर है, विपक्ष का आरोप है कि इन कानूनों को संसद में बिना पर्याप्त चर्चा और बहस के जल्दबाजी में पारित किया गया। उनका कहना है कि ये कानून व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, विशेषकर गिरफ्तारी और हिरासत से संबंधित प्रावधानों को लेकर चिंता जताई गई है।
कुछ लोगों का मानना है कि ये कानून पुलिस को अधिक शक्तियां देंगे, जिससे नागरिकों का दमन बढ़ सकता है। विद्वानों के अनुसार, ये कानून न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए चुनौती हो सकते हैं। अल्पसंख्यक समुदाय और विपक्षी दलों का आरोप है कि ये कानून विशेष रूप से उनके लिए चिंताजनक स्थितियां उत्पन्न करते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि इन कानूनों को लागू करने के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचा और मानव संसाधन अभी भी पर्याप्त नहीं हैं। लोग चिंतित हैं कि इन कानूनों का गलत इस्तेमाल हो सकता है और अधिकारों का हनन हो सकता है।
कुछ लोग नए कानूनों का स्वागत कर रहे हैं, जबकि कुछ को संदेह है। कई का मानना है कि इन कानूनों के प्रभाव का सही आकलन करने में समय लगेगा। तर्क देते हैं कि ये कानून देश में कानून व्यवस्था को मजबूत करेंगे, अपराधों पर अंकुश लगाएंगे और न्यायपालिका को अधिक प्रभावी बनाएंगे। वकीलों का एक वर्ग इन कानूनों का विरोध कर रहा है क्योंकि उन्हें लगता है कि ये कानून न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर करेंगे। नागरिक समाज के कई संगठन इन कानूनों का विरोध कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ये कानून लोकतंत्र के मूल्यों के खिलाफ हैं। नए कानून में ‘देशद्रोह’ और राजद्रोह के दायरे को लेकर कई सवाल उठे हैं। विपक्ष का तर्क है कि यह प्रावधान सरकार के आलोचकों को निशाना बनाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। जमानत मिलने के मानदंडों को लेकर भी कई सवाल उठे हैं। पुलिसिया हिरासत के दौरान लोगों के अधिकारों की सुरक्षा को लेकर चिंताएं व्यक्त की गई हैं। नए कानून में डिजिटल निगरानी के प्रावधानों को लेकर भी चिंताएं व्यक्त की गई हैं।
भारतीय न्याय संहिता, भारतीय साक्ष्य अधिनियम और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता में हुए बदलावों के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू हैं। इन कानूनों के दीर्घकालिक प्रभाव का आकलन करने के लिए अभी और समय की आवश्यकता है। देखना बाकी है कि ये कानून जमीनी स्तर पर कैसे लागू किए जाते हैं और उनका आम नागरिकों के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि कानून एक जीवंत दस्तावेज है और समय के साथ इसमें बदलाव होते रहते हैं।