भारतीय संविधान को खतरा किससे? बलबीर पुंज

By Team Live Bihar 30 Views
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बलबीर पुंज

संसद में संविधान की 75वीं वर्षगांठ पर चर्चा हुई. इस दौरान नेता विपक्ष ने हिन्दू समाज को फिर से निशाने पर लिया. उन्होंने एक हाथ में संविधान और दूसरे में हिन्दुओं के प्राचीन ग्रंथ ‘मनुस्मृति’ की प्रति को पकड़ते हुए कहा देश ‘मनुस्मृति’ से नहीं चल सकता. यह ठीक है कि संविधान को खतरा है, परंतु क्या यह ‘मनुस्मृति’ से है? भारतीय संविधान जिन मूल्यों पर स्थापित है, वह देश की सनातन संस्कृति से प्रेरित जीवन मूल्यों – बहुलतावाद, लोकतंत्र, सह-अस्तित्व और सेकुलरवाद पर आधारित है. इन तत्वों का लाभ देश के सामाजिक-राजनीतिक जीवन में सभी को समान मिले, उसकी व्यवस्था करने का दायित्व कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका पर है. संक्षेप में कहें, तो भारतीय संविधान और उसमें समाहित मूल्यों की सुरक्षा की एकमात्र गांरटी स्वतंत्र भारत का हिन्दू चरित्र ही है.

राहुल गांधी ने जिस ‘मनुस्मृति’ को कलंकित करने का प्रयास किया, वह कालजयी सनातन सभ्यता का हिस्सा जरुर है, परंतु वह शाश्वत नहीं है. सनातन का अर्थ है – चिर पुरातन, नित्य नूतन. कालातीत हिन्दू समाज ने समय के अनुसार स्वयं को बदला और अपने जीवनमूल्यों – बहुलतवाद, लोकतंत्र और पंथनिरपेक्षता की छाया में ढाला है. स्वयं गांधी जी ने इस विषय पर 4 मई, 1928 को एक पत्र में लिखा था – ‘…मैं मनुस्मृति को बुरा नहीं मानता. उसमें काफी कुछ प्रशंसनीय है… उसमें कुछ बुरा भी है. सुधारक को अच्छी चीज़ें ले लेनी चाहिए और बुरी चीज़ें छोड़ देनी चाहिए’.

यह उन्हीं गांधी जी के विचार हैं, जिन्होंने सिक्ख गुरुओं की परंपरा से लेकर स्वामी विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, वीर सावरकर, डॉ. आंबेडकर, डॉ. हेडगवार आदि सहित कभी भी अस्पृश्यता जैसे सामाजिक कुरीतियों का समर्थन नहीं किया और इन्हीं महापुरुषों की स्वतंत्र भारत में संविधान निर्धारित आरक्षण व्यवस्था के पीछे बहुत बड़ी प्रेरणा रही है.
अक्सर, ‘मनुस्मृति’ के बहाने अस्पृश्यता रूपी सामाजिक कुरीतियों के लिए ‘ब्राह्मणवाद’ को कटघरे में खड़ा किया जाता है. परंतु संविधान-निर्माता डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर ने छुआछूत के लिए कभी ब्राह्मण समाज को कलंकित नहीं किया, जैसा आज स्वयंभू अंबेडकरवादी, स्वघोषित गांधीवादी या वामपंथी करते हैं.

अपनी रचना में डॉ. आंबेडकर ने लिखा था – ‘मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि मनु ने जाति कानून नहीं बनाया… यह वर्ण-व्यवस्था मनु से बहुत पहले से अस्तित्व में थी”. उन्होंने इसके लिए ब्राह्म‍णों को कोई दोष नहीं देते हुए लिखा, “ब्राह्म‍ण कई दूसरी चीजों के दोषी हो सकते हैं… किंतु गैर-ब्राह्म‍ण आबादी को जाति-व्यवस्था में बांधना उनके स्वभाव के प्रतिकूल था’. वामपंथी, और सेकुलरवादी गुट वर्षों से ‘सामाजिक अन्यायों’ की बात तो करते हैं, लेकिन उनका असली मकसद इनका समाधान करना नहीं, बल्कि समाज में जातीय संघर्ष को बनाए रखना है.

इस्लाम के नाम पर जब भारत विभाजित हुआ, तब पाकिस्तान ने शरीयत आधारित वैचारिक अधिष्ठान को अपनी व्यवस्था का आधार बनाया, जिसे ‘काफिर-कुफ्र-शिर्क’ अवधारणा से प्रेरणा मिलती है. यही कारण है कि वहां हिन्दू-सिक्ख आबादी 1947 में 15-16 प्रतिशत से घटकर आज डेढ़ प्रतिशत रह गई है, शिया-सुन्नी-अहमदिया आदि इस्लामी संप्रदायों में खूनी टकराव है. यही हाल बांग्लादेश का भी है, जहां उदारवादी सरकार के हालिया तख्तापलट के बाद इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा चुन-चुनकर हिन्दुओं को निशाना बनाया जा रहा है. मुस्लिम बहुल कश्मीर में भी साढ़े तीन दशक पहले इसका भयावह रूप दिख चुका है. ऐसा क्यों हुआ,उसका कारण डॉ.आंबेडकर ने अपनी किताब ‘पाकिस्तान ऑर पार्टिशन ऑफ इंडिया’ में लिखा था, ‘इस्लाम का बंधुत्व मानवता का सार्वभौमिक बंधुत्व नहीं है. यह केवल मुसलमानों के लिए मुसलमानों का बंधुत्व है… जो इस समुदाय से बाहर हैं, उनके लिए केवल तिरस्कार और शत्रुता है. इस्लाम कभी किसी सच्चे मुसलमान को यह अनुमति नहीं देता कि वह भारत को अपनी मातृभूमि माने और किसी हिन्दू को अपना आत्मीय बंधु समझे’. अन्य गैर-मुस्लिमों की भांति दलित भी इस्लाम में ‘काफिर’ हैं, जिनकी नियति भी पहले से निर्धारित है.

वामपंथियों का लोकतंत्र-संविधान में कितना विश्वास है, इसका उत्तर भी बाबासाहेब आंबेडकर के 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में दिए भाषण में मिल जाता है. उनके अनुसार,’…कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा की तानाशाही सिद्धांत पर आधारित संविधान चाहती है. वे भारतीय संविधान की निंदा इसलिए करते हैं कि वह संसदीय लोकतंत्र पर आधारित है….’ चूंकि वामपंथी विचारधारा के केंद्र में हिंसा और प्रतिशोध है, इसलिए विश्व में जहां-जहां उनकी सत्ता रही, वहां वे संतुष्ट और खुशहाल समाज का निर्माण नहीं कर पाए. सही मायनों यदि देश के संविधान पर कभी खतरा आया था, तो वह 1975-77 का आपातकाल था, जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए थोप दिया था. कांग्रेस इन दिनों न्यायापालिका के विवेक और निष्पक्षता पर भी सवाल उठा रही है. उन्हें 1970-80 का दौर याद करना चाहिए.

‘वर्ष 1968 में कांग्रेस ने बहरुल इस्लाम को दूसरी बार सांसद बनाकर राज्यसभा भेजा था, जिन्होंने 1972 में राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया और उन्हें गुवाहाटी उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बना दिया गया. वहां से सेवानिवृत होने के बाद उन्हें अभूतपूर्व तरीके से 1980 में पुन: सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश नियुक्त कर दिया गया. 1983 में शीर्ष अदालत से त्यागपत्र देने के बाद इस्लाम को कांग्रेस ने फिर से तीसरी बार राज्यसभा भेज दिया.’ राहुल गांधी सहित वाम-जिहादी-सेकुलर जमात द्वारा संविधान को केवल सनातन संस्कृति या मनुस्मृति से ही खतरा बताना, किसी कपटी मुनीम द्वारा ‘रेड हेरिंग’ करने जैसा है. ‘रेड हेरिंग’ अंग्रेजी लेखा-जोखे में इस्तेमाल होने वाला जुमला है, जो एक खास धोखे का प्रतीक है. इसमें जानबूझकर बही खाते में छोटी गड़बड़ी को दर्शाया जाता है, ताकि जांचकर्ताओं का ध्यान किसी बड़े घपले से भटकाया जा सके.

ऐसा ही ‘मनुस्मृति’ के साथ भी किया जाता है, जिससे जनता का ध्यान उन जहरीली विचारधाराओं और ताकतों से भटक जाए, जिनसे भारत के अस्तित्व, पहचान, संविधान और उसमें प्रदत्त जीवनमूल्यों को सर्वाधिक खतरा है. दुर्भाग्य से उसी ‘बहुलतावाद, सह-अस्तित्व और सेकुलर विरोधी’ मानसिकता को कांग्रेस सहित अन्य छद्म-सेकुलरवादियों और वामपंथियों के साथ फिर उन व्यक्तियों का प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन प्राप्त है, जो अमेरिकी जॉर्ज सोरोस जैसे ‘धनपशुओं’ के टुकड़ों पर पलकर उनके औपनिवेशिक-साम्राज्यवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने और देश को तबाह करने का प्रयास कर रहे हैं.

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