गुरुवचन जगत (मणिपुर के पूर्व राज्यपाल एवं जम्मू-कश्मीर के पूर्व पुलिस महानिदेशक)
‘दुश्मन को बिना लड़े हरा देना, कौशल की पराकाष्ठा है’–प्रसिद्ध चीनी जनरल सन त्ज़ु ने यह सूक्ति 500 ईसा पूर्व दी थी; जो आज भी सटीक है। चीनी अपने पुरातन सैन्य रणनीतिकारों के अच्छे शिष्य रहे हैं, जैसा कि भारतीय उपमहाद्वीप और हिंद महासागर को लेकर उनकी भू-राजनीतिक रणनीति ‘स्ट्रिंग ऑफ़ पर्ल्स’ में परिलक्षित है, जहां से होकर वैश्विक जहाजरानी का बड़ा हिस्सा गुजरता है। उन्होंने ग्वादर (पाकिस्तान), हम्बन्तोता (श्रीलंका), क्यौकप्यू (म्यांमार) और जिबूती में बंदरगाह विकसित किए। इसे जब उनकी बेल्ट एंड रोड पहल से जोड़कर देखें तो इस क्षेत्र पर बनता उनका वर्चस्व और चीनी व्यापार एवं सैन्य ताकत प्रदर्शित करती क्षमता साफ दिखती है। साल 1978 से 2005 तक उनकी इकोनॉमी 9 फीसदी दर से बढ़ी, जिसने उन्हें एक गरीब देश से विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में बदल दिया।
इसी वक्त, उसने एक दीर्घकालिक भू-राजनीतिक रणनीति भी चलानी शुरू की। इन बंदरगाहों और अन्य बुनियादी ढांचे को बनाने में दशकों लग गए। आज, उपमहाद्वीप के राजनीतिक मानचित्र को देखते हुए, खुद को जिस तेजी से अलग-थलग माहौल में पा रहे हैं, उससे हम आंखें मूंद नहीं सकते। पाकिस्तान से लगती उत्तर-पश्चिमी सीमा शत्रुतापूर्ण है; उत्तर-पूर्वी परिदृश्य में चीन का दबदबा है, शत्रुतापूर्ण बांग्लादेश, तटस्थ नेपाल, नटखट म्यांमार और कमजोर भूटान है। दक्षिण में, श्रीलंका खुद को चीनी प्रभाव में धंसता पा रहा है। सालों चले तमिल-सिंहली संघर्ष के बाद दिशा भटकी भारतीय शांति स्थापना मुहिम ने बहुत हद तक आपसी भरोसा तोड़ा। इस रिश्ते को सुधारने को अगले दशकों में खास नहीं किया। पुराना सहयोगी मालदीव हमें मुश्किल सहन करता है। दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ कोई सार्थक व्यापार समझौता नहीं, तो हम खड़े कहां हैं?
दुनिया हिंसा के भंवर में फंसी है और कई अन्य ज्वलंत बिंदु हैं, जो हमें हिंसा की ओर धकेल सकते हैं। तीन साल पहले, जब यूक्रेन-रूस युद्ध छिड़ा था, तो हमारे प्रधानमंत्री ने हिंसा खत्म करने का आह्वान किया था : ‘यह युग युद्ध का नहीं है’ जिसकी प्रतिध्वनि दुनियाभर में गूंजी। हालांकि,तब से दुनिया विनाशकारी परिणाम के भंवर की ओर खिंचती प्रतीत हो रही है। मध्य-पूर्व और यूक्रेन में तबाही पर बात करने से पहले देखें कि मौजूदा परिदृश्य में हम किस स्थिति में हैं।
सच है कि हमने लगभग कभी युद्ध नहीं चाहा, लेकिन जब कभी इसने हमारे दरवाजे पर दस्तक दी तो हम हमेशा आगे बढ़े और अपना बचाव किया। हालांकि, अहम यह कि युद्ध को अपनी सीमाओं से दूर रखा जाए, इससे पहले कि यह हमें नुकसान पहुंचाए। इसके लिए, अपने पास मजबूत रक्षा बल के साथ-साथ कुशल कूटनीति होनी जरूरी है। सबसे पहले अपने पड़ोस और अपने आसपास के दोस्तों के साथ खास सक्रिय रहना चाहिए। लेकिन, लगता है आसपास के क्षेत्र में हमारा कोई दोस्त नहीं रहा। यह रातोंरात बनी स्थिति नहीं, बल्कि हमारे द्वारा किसी भी सार्थक प्रयास की अनुपस्थिति में, चीन द्वारा की गई श्रमसाध्य नीतिगत पहलों का परिणाम है। जबकि हमने आत्म-त्याग में जीना चुना। चीन ने चतुराई से अपना खेल खेला और इन देशों को उनकी जरूरत अनुसार समय-समय पर वित्तीय मदद, बुनियादी ढांचा निर्माण और अन्य भौतिक मदद प्रदान करके दिल जीत लिया। अब उसके पास हमारी सीमाओं और सीमावर्ती राज्यों में परेशानी खड़े करने की क्षमता है, चाहे वह पूर्वोत्तर हो या उत्तर-पश्चिम। रणनीतिक लक्ष्यों के साथ सक्रिय राजनयिक मिशन रखने से इस परिदृश्य से बचा जा सकता था।
कश्मीर में, जहां पाकिस्तानी एजेंसियों ने खून-खराबे करवाने की फिराक में हमारी ज़मीन को दागदार किया, हमने मजबूती दिखाई, और हमारे राजनीतिक नेतृत्व एवं सशस्त्र बल प्रतिक्रिया देने में दृढ़ और निर्णायक रहे। सक्रिय प्रतिकर्म का नतीजा रहा कि चार दिन बाद, दुश्मन शांति की दुहाई डालता दिखा, और हमने उदारता से उनकी याचना स्वीकार कर ली, हालांकि एक वर्ग अधिक कठोर कार्रवाई करने के पक्ष में था। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने युद्धविराम का श्रेय लिया, लेकिन हमारे प्रधानमंत्री ने उन्हें स्पष्ट कहा कि भारत को कभी किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता मंजूर नहीं। अमेरिका, उसके राष्ट्रपति और सैन्य नेतृत्व ने आतंकवाद को काबू करने में तथाकथित मदद के लिए पाकिस्तान की प्रशंसा की है। और गत बुधवार ट्रम्प ने व्हाइट हाउस में पाक सेना प्रमुख की मेज़बानी की।
हाल ही में सीमा पारीय झड़पों में, चीनी निश्चित रूप से पाकिस्तानियों के साथ थे, रूसियों ने भी हमारे प्रति विगत के समर्थन जैसा उत्साह नहीं दिखाया और अमेरिकी लहज़ा अपमानजनक रहा। इसकी तुलना 1971 में भारत और सोवियत संघ के बीच हस्ताक्षरित शांति, मैत्री व सहयोग की संधि से करें। तब अमेरिका ने बंगाल की खाड़ी में अपना 7वां बेड़ा तैनात कर दिया था और ब्रिटेन ने हमारे खिलाफ विमान वाहक बेड़ा रवाना किया। हालांकि, सोवियत ने परमाणु पनडुब्बियों और विध्वंसक ग्रुप्स की तैनाती करके अड़ंगा लगा दिया। अमेरिका और ब्रिटेन पीछे हट गए, और शेष इतिहास है। कारण कुछ भी रहे, लेकिन तथ्य यह कि जब हमें सहयोगी की आवश्यकता थी, तो हमारे पास एक था।
लंबे समय तक, भारतीय सॉफ्ट पॉवर ने देश को अपने कद से कहीं अधिक प्रदर्शन करने में मदद की। भारत एशियाई-अफ्रीकी सहयोग को लेकर हुए बांडुंग सम्मेलन (1955) के प्रमुख आयोजकों में एक था; भारत और अन्य गुट निरपेक्ष देशों ने अफ्रीका के साथ घनिष्ठ संबंधों को बढ़ावा देने की पहल की, नेहरू ने तो इसे ‘बहन’ महाद्वीप का नाम दिया। बाद की सरकारों ने घनिष्ठ संबंध विकसित करने के प्रयास जारी रखे- क्या हाल ही में कुछ ऐसा हुआ कि कोई भी हमारे हित में साथ आया? नेपाल और विशेष रूप से नेपाली सेना का हमारे साथ गर्भनाल का संबंध रहा है, उनके कई जनरलों ने एनडीए में प्रशिक्षण लिया है। भारतीय गोरखा रेजिमेंट में नियमित नेपाली नागरिकों की भर्ती होती थी – यह क्यों बंद हो गई? बांग्लादेश की स्वतंत्रता के मुख्य समर्थक और वास्तुकार होने के बावजूद, आज हम खुद को विपरीत पाले में खड़े क्यों पा रहे हैं? कुछ पश्चिमी देशों ने निष्पक्ष खेलने की कोशिश की; हालांकि, बेचैन करने वाली बात रही हमारे पड़ोसियों की चुप्पी।
मध्य-पूर्व एशिया में चल रहे संघर्ष से पूरा इलाका इसकी चपेट में आने का खतरा बन चला है, जिसमें युद्धरत पक्ष एक-दूसरे को मिटाने को आमादा हैं। ड्रोन और मिसाइलों के रूप में प्रौद्योगिकी इसे प्रलयंकारी रूप दे रही है। रात को मिसाइलों से निकलती आग की लपटों से आसमान जगमगा उठता है और नेपथ्य में हवाई हमले के सायरन की भयावह आवाज़ें भी सुनाई देती हैं। उधर यूरोप में, रूस और उसके सहयोगियों का नाटो के समर्थन पाए यूक्रेन के साथ युद्ध धधक रहा है। क्या इन क्षेत्रीय युद्धों के गहरे आयाम हैं – बेशक।अमेरिकी के आर्थिक और सैन्य, दोनों तरह के आधिपत्य को,रूस और चीन से संयुक्त चुनौती मिल रही है। नाटो की पुरानी व्यवस्था, जो 20वीं सदी में काफी मजबूत थी, अमेरिका द्वारा उत्तरोतर राष्ट्रवादी रुख अपनाने के कारण कमजोर पड़ गई। हमें अपनी विदेश नीति निर्माण और क्रियान्वयन में ओर सक्रियता की जरूरत है। साझा कूटनीतिक और आर्थिक लक्ष्यों के जरिये पड़ोसियों को जीतना चाहिए।
अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में, चुप्पी साधना या तटस्थ दिखना हमेशा अच्छे विकल्प नहीं होते। कभी-कभी, अपनी आस्तीन में इक्का छिपाकर रखते हुए हाथ खाली दिखाना बुद्धिमानी होती है। जब भी यूक्रेन युद्ध के संबंध में संयुक्त राष्ट्र में युद्ध विराम का मामला उठता है, हमने अनुपस्थित होना चुना। इसी तरह, गाज़ा के संबंध में भी हमने अनुपस्थिति दर्ज करवाई। नतीजा, न तो पश्चिम हमसे खुश है और न ही रूस। अब समय आ गया है कि हम खुद में सुधार करें और मजबूत दोस्ती के साथ-साथ मजबूत प्रतिरोधक भय विकसित करें।
पड़ोसी देशों से बेहतर रिश्ते बनाने की जरुरत
