ठाकरे बंधुओं का हिंदी विरोध

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शम्भूनाथ शुक्ल (वरिष्ठ पत्रकार )
भारत दुनिया का सातवां सबसे बड़े भू-भाग वाला देश है. आबादी के मामले में विश्व का दूसरा. किंतु दिक्कत यह है कि इस देश में 22 तो भाषाएं हैं और असंख्य बोलियां. इन सभी भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में रखा गया है और इन्हें राष्ट्रीय भाषाएं कहा जाता है. भारत संघ के कामकाज के के लिए देवनागरी लिपि में लिखी हुई हिंदी और रोमन लिपि में लिखी गई अंग्रेजी को राजभाषा कहा गया है.भारत में 28 राज्य और 8 केंद्र शासित प्रदेश हैं. भारत में 78.05 प्रतिशत लोग इंडो-आर्यन भाषाएं बोलते हैं और 19.64 प्रतिशत लोग द्रविड़ भाषाओं का प्रयोग करते हैं. शेष में कुछ लोग आस्ट्रो-एशियाटिक और सिनो-तिब्बती भाषाओं को उपयोग में लाते हैं. पर इंडो-आर्यन भाषाएं बोलने वालों के बीच भी भाषा को लेकर कोई एकरूपता नहीं है. ये लोग भी भाषा के प्रश्न पर परस्पर लड़ते रहते हैं.
ताजा विवाद मराठी और हिंदी बोलने को ले कर है. दोनों ही इंडो-आर्यन भाषाएं हैं. दोनों की लिपि देवनागरी है और ध्वनियां एवं शब्द भी काफी कुछ मिलते हैं. परंतु महाराष्ट्र के मराठी भाषी लोग कहते हैं, कि यहां की भाषा मराठी है इसलिए यहां रहने के लिए मराठी आनी चाहिए. उनकी मांग गलत भी नहीं है. जिस क्षेत्र में हम रहते हैं वहां पर रोजाना के कामकाज के लिए वहां की भाषा सीखनी ही चाहिए. मगर मराठी न बोलने पर मार-पीट करना निंदनीय है.दरअसल महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने राज्य में कक्षा एक से पांच तक के बच्चों के लिए मराठी और अंग्रेजी के साथ हिंदी को भी अनिवार्य कर दिया था. बस इसी बात पर ठाकरे बंधु बिफर गए और उद्धव तथा राज ठाकरे ने मिल कर हिंदी के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया.
महाराष्ट्र में मराठी पहचान को लेकर आंदोलन होते रहे हैं. शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे ने नौकरियों से दक्षिण भारतीयों को बाहर करने का अभियान चलाया था. उनके भतीजे राज ठाकरे ने 9 मार्च 2006 को महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) का गठन कर मुंबई से उत्तर भारतीयों को खदेड़ने का आंदोलन चलाया था. इसके पहले भी भाषा को लेकर भी महाराष्ट्र में आंदोलन चले. जब भाषायी आधार पर राज्य बने तब बम्बई राज्य में गुजराती और राजस्थानी व्यापारी तथा उत्तर प्रदेश के मजदूर बहुत अधिक थे. मराठी भाषी लोगों की उग्रता को देखते हुए विदर्भ, बरार और बम्बई को मिलाकर महाराष्ट्र राज्य बनाया गया. इसके बाद भी मराठी भाषियों का कहना था कि कर्नाटक के धारवाड़ इलाके में मराठी बोली जाती है इसलिए उसे भी महाराष्ट्र में शामिल किया जाए.

महाराष्ट्र से ही हिंदी हुई सम्मानित
महाराष्ट्र में हिंदी के विरोध में राज ठाकरे के तेवर तीखे रहे हैं. किंतु इस बार शिवसेना का उद्धव ठाकरे गुट भी उनके साथ है. शरद पवार की एनसीपी भी उन्हें समर्थन दे रही है. यद्यपि कांग्रेस मौन है और 5 जुलाई को मुंबई के वर्ली इलाके में हुई रैली से शरद पवार ने भी दूरी बनाई. इसके अलावा मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कक्षा पांच तक हिंदी अनिवार्य रखने के अपने निर्णय को भी वापस ले लिया है. फिर भी ठाकरे बंधु हिंदी को ले कर आक्रामक हैं. वे भूल जाते हैं कि जिस हिंदी भाषा का विरोध वे कर रहे हैं, उसकी जड़ें महाराष्ट्र में ही हैं. मराठा अस्मिता की नींव रखने वाले शिवाजी महाराज ने हिंदी का पोषण किया था. उन्होंने अपने दरबार के कवि भूषण को इतना अधिक सम्मान दिया था कि एक बार वे बोल उठे- शिवा को सराहों कि सराहों छत्रसाल को!

शिवा को सराहों कि सराहों छत्रसाल को!
कवि भूषण जब शिवाजी महाराज से मिले तब शिवाजी इनकी वीर रस की कविताओं से बहुत अधिक प्रभावित हुए. शिवाजी का राज तिलक हुआ तो उस मौके पर भूषण की कविता इंद्र जिम जंभ पर बाड़व सुअम्ब पर रावण सदंभ पर रघुकुल राज है. पौन बारिबाह पर संभु रतिनाह पर ज्यौं सहस्रबाहु पर राम द्विजराज है. दावा द्रुम दंड पर चीता मृग झुंड पर भूषन बितुंड पर जैसे मृगराज है. तेज तम-अंस पर कान्ह जिम कंस पर यौं मलेच्छ-बंस पर सेर सिवराज है. का पाठ हुआ था. श्याम बेनेगल ने अपने धारावाहिक भारत एक खोज में इसका उदाहरण दिया है. शिवाजी का यह राजकवि भूषण जब बुंदेलखंड आया तब पन्ना नरेश महाराज छत्रसाल ने उनकी पालकी को कंधा दिया. उस समय भूषण अभिभूत हो कर बोले- शिवा को सराहों कि सराहों छत्रसाल को!
आजादी की लड़ाई में बाल गंगाधर तिलक और गांधी जी के गुरु गोपाल कृष्ण गोखले भी हिंदी को ही पूरे देश के बीच प्रचलन की भाषा बनाने के समर्थक थे. दोनों का मानना था कि प्राथमिक स्तर पर हिंदी को अनिवार्य किया जाना चाहिए. तिलक तो पूरे देश में शिक्षा का माध्यम हिंदी को बनाना चाहते थे. उन्होंने हिंदी को पूरे भारत का तिलक कहा था. गांधी जी ने पूरे देश में हिंदी के प्रचलन को बढ़ावा देने के लिए 17 जून 1918 को दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की नींव रखी थी. गांधी जी इस सभा के आजीवन अध्यक्ष रहे. 1948 में उनकी मृत्यु के बाद डॉ. राजेंद्र प्रसाद इसके अध्यक्ष बने. उस दौरान दक्षिण के राज्यों तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल और आंध्र के लोगों के बीच हिंदी को लोकप्रिय बनाने में इस संस्था का योगदान भुलाया नहीं जा सकता.
डॉ. राजेंद्र प्रसाद की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और पीवी नरसिम्हा राव दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के अध्यक्ष रहे. 2019 से वी. मुरलीधरन इसके अध्यक्ष हैं. चेन्नई, तिरुचिरापल्ली, एर्नाकुलम, हैदराबाद और धारवाड़ से सभा आज भी हिंदी पत्रिकाएं प्रकाशित कर रही हैं.विश्वविद्यालय अनुदान आयोग दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा से हिंदी सीखकर निकले छात्रों को मान्यता भी देता है. तमिलनाडु में पहले हिंदी विरोध नहीं था. बच्चों की सबसे लोकप्रिय पत्रिका रही चंदामामा 1947 से लगातार 2013 तक हिंदी में भी प्रकाशित होती रही. फिल्म निर्माता बी. नागीरेड्डी ने इसका प्रकाशन शुरू किया था और चक्रपाणि इसके संपादक थे. 1967 में तमिलनाडु में जब हिंदी विरोधी आंदोलन चला तब भी यह पत्रिका छपती रही थी.
लेकिन मराठी तो हिंदी संवर्ग (इंडो-आर्यन) की भाषा है. लिपि भी समान है फिर भी इतना तीखा विरोध देख कर लगता है कि ठाकरे बंधुओं की कुंठा उन्हें इस विरोध के लिए उकसा रही है. महाराष्ट्र में आम लोगों की मानसिकता हिंदी विरोध की नहीं है. हिंदी का पहला अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय- महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में है. हिंदी सिनेमा का पूरा उद्योग मुंबई में है. बॉलीवुड उद्योग मुंबई को एक अलग चमक देता है. और यह सारा उद्योग हिंदी के बूते फल-फूल रहा है. अब कैसे हिंदी भाषियों को महाराष्ट्र से दूर किया जा सकता है? जो हिंदी तिलक और गोखले के अलावा गांधी, बाबूराव विष्णु पराड़कर, माधव राव सप्रे,गजानन माधव मुक्तिबोध जैसे मराठी भाषी समाज से फली-फूली उसे ठाकरे बंधु अपनी राजनीति का मुद्दा बनाये हैं.
रुचि भल्ला इलाहाबाद की हैं और आजकल सातारा के फलटन तालुक्का में रह रही हैं. बारामती के निकट का यह इलाका मराठवाड़ा का केंद्र है. रुचि बताती हैं, महाराष्ट्र के आम लोगों में हिंदी को लेकर कोई दुर्भावना नहीं है. वे हिंदी आसानी से समझ लेते हैं और बोल भी लेते हैं. भले उनके बोलने में उच्चारण दोष हो या लिंग भेद को वह समझ न पाएं लेकिन हिंदी से अनजान नहीं हैं. इन लोगों का कहना है कि कक्षा एक से तीन भाषा पढ़ाये जाने से बच्चों पर पाठ्यक्रम का काफी बोझ पड़ेगा. बेहतर रहे कि हिंदी की पढ़ाई कक्षा पांच से शुरू कराई जाए. फिर भले वह आठवें या दसवें दर्जे तक पढ़ाई जाए. रुचि भल्ला का यह भी कहना है कि हिंदी के नाम पर आजकल जो बनावटी हिंदी पढ़ाई जाती है, वह भी लोगों के गले नहीं उतार रही.
उनके अनुसार हिंदी देश की प्रचलन की भाषा है. उसे उसी के अनुरूप चलाएं, शुद्धता पर जोर न दें. मुंबई में मुंबैया हिंदी तो कोलकाता में कलकतिया हिंदी, तमिलनाडु में तमिलियन हिंदी तो शायद लोग इसे सहज रूप में लेंगे. बात उनकी बहुत हद तक सही है. हिंदी का यही स्वरूप गैर हिंदी भाषियों के गले उतरेगा.
पूरे विश्व में हिंदी लगभग सौ करोड़ लोग बोल लेते होंगे. भले वे अपनी यह बोली देवनागरी में लिख न पाते हों. भारत के बाहर पाकिस्तानी और बांग्लादेशी, नेपाली हिंदी ही बोलते हैं. हिंदी में रील और टिक-टाक बनाते हैं. ऐसी हिंदी को फलने-फूलने दिया जाए तो हिंदी चलेगी. हिंदी का मार्केट बहुत बड़ा है. बाकी ठाकरे बंधुओं का विरोध तो फिलहाल निकाय चुनाव में अपने झंडे गाड़ने तक सीमित है.

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