बिहार में मतदाता सूची पुनरीक्षण संबंधी चिंताएं

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अशोक लवासा (पूर्व चुनाव आयुक्त)
जरूरी नहीं जो कानूनी तौर पर हो, वह हमेशा उचित हो। मतदाता सूचियों का ‘शोधन’ एक सराहनीय उद्देश्य, एक जायज मांग और कठिन जिम्मेदारी है। भारत के पहले मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) सुकुमार सेन ने मतदाता सूची (ईआर) की गुणवत्ता पर अपनी पूरी तसल्ली होने बाद ही 1951 में प्रथम चुनाव करवाने से पहले, 18 महीने तक काफी दबाव झेला था। वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त ने भी, जब इस साल की शुरुआत में, मतदाता सूची में कथित हेराफेरी और विसंगतियों की शिकायतों पर प्रतिक्रिया देते हुए 90 दिनों के अंदर सुधारात्मक कदम उठाने का आश्वासन देश को दिया था। लेकिन इस दिशा में उठाए गए एक कदम ने चुनाव आयोग को विवाद के घेरे में ला दिया, जो कि पिछले कुछ समय से इस संस्थान को घेरने वाले कई विवादों में एक है। हालांकि इस मामले में अब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद स्थिति स्पष्ट होती नजर आ रही है।
समय-समय पर चुनाव करवाने वाले काम के विपरीत, मतदाता सूची तैयार करना एक सतत प्रक्रिया है, जिसमें जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 की धारा 21 (2) और मतदाता पंजीकरण नियमों के नियम 25 के अनुसार प्रत्येक चुनाव से पहले संशोधन किया जाना शामिल है। इस हिसाब से, 2024 में हुए लोकसभा चुनावों से पहले एक राष्ट्रव्यापी संशोधन कार्य किया जाना बनता था।
इस साल 24 जून को चुनाव आयोग ने बिहार की मतदाता सूचियों का विशेष गहन संशोधन करने का आदेश दिया, जबकि वहां होने वाले विधानसभा चुनाव में चंद महीने बाकी हैं। ऊपरी तौर से, इसका मंतव्य यह सुनिश्चित करना है कि ‘मतदाता सूची में सभी पात्र नागरिक जुड़ें’, ‘कोई अयोग्य मतदाता न हो’ और ‘सूची में मतदाताओं को जोड़ने या हटाने की प्रक्रिया में पूरी पारदर्शिता हो।’ इस आदेश में गहन संशोधन हेतु विस्तृत प्रक्रिया की रूपरेखा दी गई, लेकिन इसने मतदाता सूची में 2003 से पहले और इसके बाद जुड़े मतदाताओं के बीच एक विवादास्पद अंतर खड़ा कर दिया, उस साल बिहार में आखिरी मर्तबा एसआईआर कार्य हुआ था।
इस आदेश में 2003 के बाद जुड़े मतदाताओं को अपनी नागरिकता सिद्ध करने के लिए, आयोग द्वारा तय दस्तावेज प्रस्तुत करके अपने दावों को सिद्ध करना अनिवार्य था। भले ही मतदाता के रूप में उनका नाम शामिल करते वक्त, ‘जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 23 के अनुरूप मतदाता संशोधन अधिकारी उनकी पात्रता की शर्तों की सत्यापना, अपनी तसल्ली होने तक, पहले ही कर चुका हो।’ तर्क दिया गया, यह कार्य ईसीआईएनईटी पर शोधित सूची को प्रकाशित करने योग्य बनाएगा।
यह घोषणा करने का वक्त और इसे अचानक किए जाने से हो-हल्ला मच गया, खासकर इसलिए कि यह प्रक्रिया उन अन्य राज्यों में नहीं करवाई गई जहां ‘शुद्धीकरण’ किया जाना इतना ही महत्वपूर्ण था और चुनाव भी तुरंत नहीं होने वाले थे। संदेह की वजह यह समझने में मुश्किल होना रही कि चुनाव आयोग किस चीज़ को आधार बनाकर 2003 तक पंजीकृत हुए लोगों की साक्ष्य-साख का अधिक मोल डाल रहा है। जबकि चुनाव आयोग खुद कहता है कि प्रवासन, मृत्यु, रोजगार आदि की संभावना दोनों श्रेणी के मतदाताओं पर लागू होती है। तो समझना मुश्किल है कि 2003 से पहले वाली और बाद वाली में अपनाई प्रक्रिया के बीच फर्क क्यों रखा जा रहा है? खासकर जब संक्षिप्त संशोधन या विशेष गहन संशोधन या चालू पंजीकरण के दौरान अपनाई जाने वाली प्रक्रिया एक जैसी है, जिसमें दस्तावेज जमा करवाए जाते हैं और बूथ स्तर का अधिकारी उनकी भौतिक सत्यापना करता है।
24 जून की प्रारंभिक अधिसूचना के अनुसार यह आशंका व्यक्त की गई कि 2003 के बाद पंजीकृत मतदाता यदि कोई संतोषजनक दस्तावेजी साक्ष्य प्रस्तुत करने में विफल रहते हैं तो उनका नाम मसौदा मतदाता सूची से स्वत: हट जाएगा। चुनाव आयोग के लिए अच्छा रहता यदि आदेश के साथ-साथ एक प्रेस नोट भी जारी करता, यह समझाने के लिए कि 24 जून के आदेश के पैरा 13 से जो अर्थ निकाले जा रहे हैं, वह वैसा नहीं है, जब उसमें कहा गया ः ‘मसौदा सूची में उन सभी मतदाताओं के नाम शामिल होंगे जो 25 जुलाई, 2025 से पहले-पहले विधिवत भरा हुआ पंजीकरण फॉर्म जमा करवा देंगे। चूंकि यह एक गहन संशोधन है, इसलिए यदि 25 जुलाई, 2025 से पहले पंजीकरण फॉर्म जमा नहीं करवाया जाता, तब मतदाता का नाम मसौदा सूची में शामिल नहीं किया जा सकेगा।’
चुनाव आयोग को तुरंत स्पष्ट करना चाहिए था कि ‘विधिवत भरे गए फॉर्म’ से यहां आशय ‘केवल वही फॉर्म जिनके साथ अपेक्षित दस्तावेज संलग्न हों’ नहीं है व बूथ स्तरीय अधिकारी ऐसे पंजीकरण फार्म मसौदा सूची में शामिल न किए जाने की ‘अनुशंसा’ नहीं करेगा और नतीजन उनका नाम मसौदा मतदाता सूची से बाहर रह जाएगा। ऐसे स्पष्टीकरण से, मसौदा सूची से वोटर्स के नाम हट जाने बारे बनी गलतफहमी दूर होने में मदद मिलती।
चूंकि तय किए दस्तावेज पेश करने की करोड़ों लोगों की क्षमता पर संदेह स्वाभाविक है, खासकर तब, जब चुनाव आयोग की स्वीकारोक्ति मुताबिक, यह काम पहले करना चाहिए था। इसका अहसास होने पर आयोग ने 30 जून को स्पष्टीकरण दिया ः ‘कोई भी व्यक्ति जिसका नाम 2003 की बिहार मतदाता सूची में नहीं है, वह अभी भी अपने माता या पिता के लिए कोई अन्य दस्तावेज प्रदान करने के बजाय 2003 की मतदाता सूची में दर्ज जानकारी का संदर्भ उपयोग कर सकता है… इसके लिए, 2003 वाली मतदाता सूची वाला प्रासंगिक विवरण पर्याप्त होगा’। यह किए जाने से उन लोगों का बोझ हल्का हो गया होगा, जिनके लिए इससे पूर्व उक्त दस्तावेज पेश करना जरूरी था व उन्हें पाना कठिन हो सकता था।
वास्तविक मतदाताओं द्वारा दस्तावेज़ प्रस्तुत करने में संभावित व्यावहारिक कठिनाइयों के अलावा, जिस बात ने विवाद को और हवा दी, वह है चुनाव आयोग द्वारा जन्मतिथि के आधार पर अंतर करना जैसे 1 जुलाई, 1987 से पहले जन्मे लोगों के लिए अपने जन्म का दस्तावेज़ी सबूत देना अनिवार्य है, और 1 जुलाई, 1987 से 2 दिसंबर, 2004 के बीच पैदा हुए लोगों को ‘अपना और पिता या माता में किसी एक का’ कोई दस्तावेज़ प्रस्तुत करना है और 2 दिसंबर, 2004 के बाद जन्मे लोगों को ‘अपना और पिता और माता, तीनों का’ दस्तावेज़ प्रस्तुत करते हुए जन्मतिथि और/या जन्म स्थान सिद्ध करना है। चुनाव आयोग का तर्क है कि यह अंतर विशेष गहन संशोधन की वजह से है, क्योंकि यह प्रावधान उस ‘अनुच्छेद 326 को सख्ती से लागू करता है’ जो ‘भारत के प्रत्येक वयस्क नागरिक’ को मताधिकार प्रदान करता है।
हंगामा इस बात पर खड़ा हुआ कि अब तक तो उसी अनुच्छेद 326 को बरकरार रखने में चुनाव आयोग तमाम अन्य दस्तावेजी साक्ष्यों और भौतिक सत्यापना पर भरोसा करता आया है, लेकिन अब नागरिकता अधिनियम के प्रावधानों को नत्थी करने के लिए यह नया फर्क बना रहा है। यह बहस का विषय है कि ऐसे देश में जहां सरकार द्वारा कोई नागरिकता दस्तावेज जारी नहीं किया जाता, क्या चुनाव आयोग को ऐसे प्रावधानों का पालन करना चाहिए जिससे नागरिकों को मतदान अधिकार से वंचित करने का खतरा खड़ा हो जाए या उसे अपनी पुरानी समय-सिद्ध प्रक्रिया का पालन करना चाहिए। चुनाव आयोग अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी के मद्देनजर मतदाताओं का नाम शामिल करने में सदा से समावेशी दृष्टिकोण को प्राथमिकता देता आया है। तब इसने एक नया दृष्टिकोण और प्रक्रिया क्यों चुनी?
पहले से पंजीकृत उन मतदाताओं के भाग्य का क्या होगा, जिन्हें बाकायदा वोटर कार्ड जारी कर रखे हैं, लेकिन अब तय दस्तावेज दिखाने में असमर्थता के कारण मताधिकार से वंचित होना पड़ेगा? क्या उनकी नागरिकता तय करने के लिए सरकार उनके मामलों को अपने हाथ में लेगी? असम में सालों पहले इसी किस्म की कवायद में डी (संदिग्ध) श्रेणी में रखे गए लोगों का भाग्य अभी मालूम नहीं है। बिहार में भी विशेष गहन संशोधन से ऐसेे ‘गुमशुदा’ नागरिक पैदा होने की आशंकाएं स्वाभाविक हैं।

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