अमेरिकी मित्र का ट्रेड चरित्र, नहीं बन रही बात

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महेश खरे (वरिष्ठ पत्रकार)
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मित्र डोनाल्ड ट्रंप ने ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ की धुन में भारत पर टैरिफ बम फोड़ दिया है। ट्रंप जल्दी में हैं। अमेरिका की तस्वीर बदलने के लिए उनके पास सिर्फ साढ़े तीन साल बचे हैं। और बात बन नहीं पा रही। खुद को शांति दूत के रूप में स्थापित करने और अमेरिका को और समृद्ध बनाने की दिशा में उन्होंने जितने पांव फैलाए, डॉलर पर उतना सकारात्मक असर दिख नहीं पाया। चुनाव में हर कदम पर साथ देने वाले अमीर दोस्त को भी वे दुश्मन बना चुके हैं। और आने वाले समय में ना जाने कितने रोड़े वे अपने हाथों अमेरिका की राह में जमा कर देंगे, अभी यह कहना जल्दबाजी ही होगी।
उनके आलोचक बयान देते समय शायद यह भूल जाते हैं कि एक कामयाब व्यापारी से राष्ट्रपति बने ट्रंप को घाटे का सौदा किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं है। वणिक बुद्धि वाला इंसान जब देश के सर्वोच्च पद पर पहुंच जाता है तो वह देश और दुनिया से बस नेम और फेम ही तो चाहता है।
अमेरिकी राष्ट्रपति के दो ही लक्ष्य हैं शांति का नोबल और अमेरिका की बेहतरी। लेकिन हड़बड़ाहट उन्हें अविश्वसनीयता के करीब लाती जा रही है। वे यह भी याद नहीं रख पा रहे हैं कि कमजोर से कमजोर व्यक्ति सबकुछ भूल सकता है लेकिन अपमान नहीं भूल सकता। शायद जेलेंस्की भी अपने अपमान को नहीं भूल पाएं। युद्ध की विभीषिका का सामना कर रहे यूक्रेन के राष्ट्रपति को ट्रंप अपमानित करके लौटा देते हैं। जो व्यक्ति देश के सम्मान की खातिर लड़ रहा हो वह कितना झुक पाएगा? शायद ट्रंप इसका सही-सही अंदाजा नहीं लगा पाए। यह सब करके उन्हें क्या मिला? जेलेंस्की शर्तें ठुकराकर चले गए तो ट्रंप भी तो खाली हाथ ही रहे। जिस मिनरल्स के लिए उन्होंने कैमरे के सामने यूक्रेन के राष्ट्रपति पर दवाब डाला उस समय वह भी तो ट्रंप को नहीं मिल पाए। किसी फैसले में अगर आपका लाभ नहीं होता है तो मतलब साफ है कि आप घाटे में ही रहे।
ऐसा ही कुछ दवाब वे अपने मित्र राष्ट्र भारत पर डालते हुए नजर आ रहे हैं। लेकिन यूक्रेन और भारत की हैसियत को समान रूप से आंकने वाले ट्रंप भूल कर रहे हैं। 2030 तक द्विपक्षीय व्यापार को 500 बिलियन डॉलर तक ले जाने के लिए हो रही बातचीत के बीच 25 फीसदी टैरिफ का बम फोड़कर ट्रंप को आखिर क्या हासिल होगा? भारत किसी भी दवाब के आगे झुकने वाला नहीं है। यह तो पीएम मोदी अमेरिका दौरे के समय ही स्पष्ट कर चुके हैं। अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में संयम बहुत काम आता है। भारत आज भी इसी राह पर है।
अचानक टैरिफ वार छेड़ देने के पीछे केवल आर्थिक नहीं ग्लोबल पोलिटिकल कारणों और होड़ से भी इंकार नहीं किया जा सकता। जब छठे दौर की बातचीत के लिए अगस्त महीने में ही अमेरिकी दल भारत आने वाला हो तब चंद दिनों पहले 25 फीसदी टैरिफ की घोषणा के पीछे पहली वजह तो संसद में पीएम मोदी के भाषण को माना जा रहा है। ऑपरेशन सिंदूर के दौरान सीजफायर कराने का ट्रंप लगभग 28-29 बार दावा कर चुके हैं। उनका कहना था कि ट्रेड डील का दवाब बनाकर उन्होंने सीजफायर करवाया। अगर ट्रेड डील का असर होता तो 25 फीसदी टैरिफ थोपने की जरूरत ही क्यों पड़ती? सिंदूर पर संसद में चर्चा का जवाब देते हुए पीएम मोदी ने साफ कर दिया कि सीजफायर का निर्णय पाकिस्तान की गुहार लगाने के बाद हुआ। इसमें किसी भी तीसरे देश की कोई भूमिका नहीं है।
मोदी का यह बयान ट्रंप को असहज करने के लिए पर्याप्त था। शायद इसीलिए दूसरे दिन ही उन्होंने भारत पर टैरिफ की घोषणा कर दी। हद तो तब हो गई जब ट्रंप ने भारत की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था को ही ‘डेड इकोनोमी’ कह दिया। दूसरा कारण रूस और चीन के साथ वर्चस्व का खेल है। ट्रंप चीन पर कूटनीतिक वर्चस्व चाहते हैं। उस पर भारी-भरकम टैरिफ भी थोप चुके हैं। जब चीन ने जवाबी टैरिफ लागू किया तब जाकर समझौता हुआ। इसी तरह ट्रंप भारत पर रूस से कच्चा तेल और हथियारों की खरीद बंद कराने पर जोर दे रहे हैं। रूस भारत का सोवियत संघ के जमाने से मित्र राष्ट्र रहा है। फिर वह हमें सस्ते दर पर तेल उपलब्ध करा रहा है। सवाल यह भी है कि हम किस से क्या व्यापार करते हैं, यह हमारा निर्णय है। इसमें अमेरिका हो अथवा कोई और उसका दखल कैसे स्वीकार किया जा सकता है? रूस से व्यापार के मुद्दे पर तो अमेरिका पैनाल्टी लगाने की धौंस देने की मुद्रा में है। धौंस इसलिए कहा क्योंकि पैनाल्टी प्यार से तो ठोकी नहीं जा सकती। बातचीत में सहमति ना हो पाने का एक और सबसे बड़ा बिंदू है भारत के कृषि और डेयरी क्षेत्र में प्रवेश की अमेरिकी मंशा। भारत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि देश हित उसके लिए सर्वोपरि है। इसमें किसी भी तरह के समझौते का प्रश्न ही नहीं उठता। फिर अमेरिका की गायों को मांसाहारी घास खिलाया जाता है। इस कारण वहां के डेयरी प्रोडक्ट्स भारतीयों को स्वीकार नहीं होंगे।
यहां यह बताना भी जरूरी है कि अमेरिका हमारा सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है। इसलिए ट्रंप को भारत और यहां की अर्थव्यवस्था के बारे में मुंह खोलने से पहले संयम और सम्मान की भाषा का व्यवहार करना चाहिए। द्विपक्षीय व्यापारिक रिश्तों में प्रगाढ़ता के लिए यह गुण आवश्यक है। ऑपरेशन सिंदूर के बाद ट्रंप के अब तक के बयान और व्यवहार इस लक्ष्मण रेखा को लांघते दिखाई देते हैं। अब देखिए रूस से व्यापार बंदी के मुद्दे पर ट्रंप का रुख अस्पष्ट है। जिस पाकिस्तान के साथ अमेरिका ने तेल सन्धि की है। वह भी चीन और रूस का ट्रेड पार्टनर है। आतंकवाद के मुद्दे पर ट्रंप लंबी-लंबी हांकते हैं। लेकिन, आतंक के सबसे बड़े पोषक देश पाकिस्तान के जनरल मुनीर को लंच कराते हैं। यह दोहरा चरित्र अमेरिका जैसे महान देश के प्रमुख की छवि पर फिट नहीं बैठता। शायद यही कारण है कि ट्रंप की सकारात्मक छवि का ग्राफ विदेशों में ही नहीं स्वयं अमेरिका में गिरता जा रहा है।
हालांकि इस बात से पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत पर थोपा गया टैरिफ स्थायी नहीं है, खुद ट्रंप ही इसे कम कर सकते हैं। वह इसलिए क्योंकि जितनी भारत को अमेरिका की जरूरत है उतनी ही अमेरिका को भी भारत की जरूरत है। फिर भी ट्रंप के पल-पल बदलते रुख के मद्देनजर भारत को अमेरिका पर निर्भरता और कम करने के प्रश्न पर गंभीरता से विचार करना होगा। इस दोस्त पर भरोसा तो किया जा सकता है। मगर, निर्भर नहीं रहा जा सकता। भारत ने इस दिशा में शुरुआत कर दी है। जहां रक्षा सौदे पर सरकार ने मौन साध लिया है। वहीं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वदेशी के जरिए आत्मनिर्भर भारत के मंत्र पर जोर दिया है।

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