विदेशी आकाओं का पिछलग्गू पाकिस्तान

By Aslam Abbas 113 Views Add a Comment
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बलबीर पुंज
(वरिष्ठ पत्रकार)

‘ऑपरेशन सिंदूर’ में बुरी तरह परास्त होने के बाद पाकिस्तान दोबारा कैसे गरज रहा है? बकौल मीडिया रिपोर्ट, उसने इस्लामाबाद में भारतीय राजनयिकों को पेयजल, गैस और समाचार पत्रों की आपूर्ति रोक दी है। यह खबर तब सामने आई, जब पाकिस्तानी सेना प्रमुख असीम मुनीर फिर से अमेरिका में सजदा करने पहुंचे हुए थे। इस दौरान एक निजी कार्यक्रम में मुनीर ने किसी खालिस फिदायीन की तरह अपने साथ आधी दुनिया (भारत सहित) को परमाणु हमले से समाप्त करने और भविष्य में सिंधु नदी पर बनने वाले बांध को मिसाइलों से उड़ाने की गीदड़भभकी दी।

सवाल यह कि आतंकवाद की पौधशाला पाकिस्तान में यह हिम्मत कहां से आई? अमेरिका, मुनीर की भाषा में कहें तो, ‘चमचमाती मर्सिडीज’ रूपी भारत के खिलाफ ‘कूड़े से भरे ट्रक’ जैसे पाकिस्तान का साथ क्यों दे रहा है?
पहले हमें यह समझना होगा कि पाकिस्तान अपनी संवैधानिक घोषणा के अनुरूप न तो वास्तव में कोई इस्लामी देश है और न ही उसका भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों से कोई सरोकार है। पश्चिमी शक्तियों ने इस कृत्रिम राष्ट्र को अपनी सामरिक-रणनीतिक आवश्यकताओं के लिए जन्मा था। उनके लिए इस्लाम महज एक बहाना था और तत्कालीन मुस्लिम समाज केवल हथियार। अपने जन्म से लेकर आज तक पाकिस्तान इस भूमिका को पूरी शिद्दत से निभा रहा है। वस्तुतः पाकिस्तान खंडित भारत का वह क्षेत्र है, जो अब भी औपनिवेशिक शक्तियों के नियंत्रण में है और जिसका प्रयोग वे भारत की सनातन संस्कृति, उसकी अस्मिता और उसके वैभव-समृद्धि के विरुद्ध करते आ रहे हैं।

भारतीय उपमहाद्वीप में शायद ही कोई मुसलमान होगा, जो फिलीस्तीन-ईरान के प्रति मजहबी कारणों से भावनात्मक सरोकार नहीं रखता हो। गत दिनों जब इजराइल-अमेरिका और ईरान के बीच सैन्य टकराव हुआ, तब भारत ने मामले में संतुलन बनाए रखा। इस मामले में पाकिस्तान की भूमिका बड़ी रोचक रही। जब इस वर्ष 21 जून को अपने ‘मित्र’ यहूदी राष्ट्र इजराइल का साथ देते हुए अमेरिका ने ईरान के तीन परमाणु ठिकानों पर बमबारी की थी, तब उसी कालखंड में असीम मुनीर का पाकिस्तान अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप को “रणनीतिक दूरदर्शी और शानदार राजनीतिज्ञता” बताते हुए नोबल शांति पुरस्कार देने की सिफारिश कर रहा था। यदि अमेरिका-इजराइल गाज़ा में ‘नरसंहार/उत्पीड़न’ के ‘अपराधी’ हैं, तो पाकिस्तान भी उतना ही ‘दोषी’ है।

यह दुनियाभर (भारत सहित) के मुसलमानों के लिए बड़ा संदेश है कि जिस पाकिस्तान को वे इस्लामी भावना का प्रतीक समझते हैं, वह असल में जन्म से औपनिवेशिक ताकतों की कठपुतली है। प्रख्यात राजनयिक नरेंद्र सिंह सरीला की पुस्तक ‘द शैडो ऑफ द ग्रेट गेम, द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ इंडियाज़ पार्टिशन’ और आर्थिक इतिहासकार प्रसेनजित के. बसु की पुस्तक ‘एशिया रिबॉर्न’ में इसका तथ्यों के साथ विस्तृत जिक्र किया गया है।

अपनी किताब में सरीला ने तत्कालीन ब्रितानी राजनीतिज्ञों और सैन्य-अधिकारियों के बीच हुए गुप्त पत्राचारों का हवाला दिया है। 5 मई, 1945 को तब के ब्रितानी प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने एक गुप्त रिपोर्ट मंगवाई, जिसमें कहा गया था कि ब्रिटेन को भारत के उत्तर-पश्चिमी हिस्से (वर्तमान पाकिस्तान) में अपनी फौजी मौजूदगी बनाई रखनी चाहिए, ताकि सोवियत रूस के बढ़ते खतरे को रोका जा सके। इसी रिपोर्ट में बलूचिस्तान को भारत से अलग करने की सिफारिश भी की गई थी, ताकि खाड़ी और मध्य-पूर्व में ब्रितानी हित सुरक्षित रहें। इतना ही नहीं, 3 जून, 1947 को ब्रिटेन के तत्कालीन विदेश सचिव अर्नेस्ट बेविन ने एक सम्मेलन में साफ तौर पर कहा था – “भारत का बंटवारा, ब्रिटेन को मध्य-पूर्व में मजबूत करेगा।” प्रसेनजित के अनुसार, ब्रिटेन की सामरिक महत्वकांक्षा उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत (वर्तमान खैबर पख्तूनख्वा) और बलूचिस्तान पर नियंत्रण बनाए रखने की थी, ताकि ईरान, इराक और खाड़ी के तेल-समृद्ध क्षेत्रों पर अपना प्रभाव सुरक्षित रखा जा सके।

यही कारण है कि विभाजन के बाद पाकिस्तान शीतयुद्ध के सैन्य गुटों – ‘सीटो’ और ‘सेंटो’ में शामिल हो गया। ब्रितानी सरपरस्ती में, अमेरिका ने सोवियत विस्तारवाद को रोकने के लिए पाकिस्तान का इस्तेमाल किया। कई वर्षों तक पेशावर एयरबेस अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए का ठिकाना रहा। 1970 के दशक में पाकिस्तान के सहयोग से अमेरिका ने चीन के साथ राजनयिक संपर्क साधा। 1971 में भारत के खिलाफ युद्ध में अमेरिका ने खुले तौर पर पाकिस्तान का साथ दिया।

जैसे ब्रिटेन ने भारत में अपने राजनीतिक-सामरिक उद्देश्यों के लिए इस्लाम और सदियों से व्याप्त तनावपूर्ण हिन्दू-मुस्लिम संबंध को चतुराई से हथियार बनाया था, वही नुस्खा अमेरिका ने 1980 के दशक में अपनाया। जब सोवियत संघ ने 1979 में अफगानिस्तान पर आक्रमण किया, तब उसे परास्त करने के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान और सऊदी अरब की मदद से ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरित मुजाहिदीनों को अफगानिस्तान में संगठित किया। इन्हीं मुजाहिदीनों ने कालांतर में तालिबान और कई आतंकवादी संगठनों का रूप ले लिया। वर्ष 2001 में न्यूयॉर्क के भीषण 9/11 आतंकवादी हमले के बाद अमेरिकी सामरिक हितों में पाकिस्तान की उपयोगिता और बढ़ गई।
आज जिस क्षेत्र को पाकिस्तान कहा जाता है, वह दुनिया के सबसे संवेदनशील भू-भाग पर स्थित है, जिसकी सीमाएं पांच प्रमुख सभ्यतागत क्षेत्रों – भारत, चीन, मध्य-एशिया, फारस और अरब से जुड़ती हैं। यही कारण है कि चाहे पाकिस्तान कितना ही बदहाल हो और चाहे वह कितना ही बड़ा आतंकवाद का केंद्र हो, वह अमेरिका-चीन आदि वैश्विक महाशक्तियों के लिए रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण रहेगा। वर्तमान अमेरिका का इतिहास 250 वर्ष पुराना है। वह स्वयं को मानवाधिकारों का झंडाबरदार बताता है और दुनिया को अपनी इच्छानुसार संचालित करना चाहता है। इसके लिए उसे ऐसे देशों-प्रतिनिधियों की आवश्यकता होती है, जो उसके इशारों पर चलें। हजारों वर्षों से भारत अपनी सभ्यतागत विविधता, गौरवशाली सांस्कृतिक इतिहास और लोकतांत्रिक परंपराओं के कारण कभी किसी का पिछलग्गू नहीं बना और न ही उसे बनना चाहिए। इसके विपरीत, यदि बाजारू भाषा में कहें, तो पाकिस्तान अमेरिका का ‘चमचा’ बनकर ही गर्व का अनुभव करता है।

पाकिस्तान सिर्फ सेना, सामंती ताकतों और एक अभिजात वर्ग की उपज है, जो इस्लाम के नाम पर अपने लोगों को बरगलाता और भारत की बहुलतावादी सनातन परंपरा से घृणा करते हुए उसे मिटाने को असफल जोर लगाता है। अन्यथा क्या कारण है कि चीन के जगजाहिर मुस्लिम-विरोधी एजेंडे, जिसमें रमजान में रोजा रखने, हिजाब पहनने और कुरान पढ़ने आदि पर उइगर मुसलमानों को अमानवीय सजा दी जाती है – उसके बाद भी पाकिस्तान चीन की गोद में खेल रहा है।

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