नीरज कुमार दुबे
(वरिष्ठ स्तम्भकार)
लोकतंत्र में चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाएँ केवल चुनाव नहीं करातीं, बल्कि वह राजनीतिक दलों और मतदाताओं के बीच विश्वास का सेतु भी होती हैं। जब इन संस्थाओं की विश्वसनीयता पर हमला होता है तो उसका असर पूरे लोकतांत्रिक ढांचे पर पड़ता है। कांग्रेस ने सीएसडीएस द्वारा जारी किए गए गलत आँकड़ों के आधार पर चुनाव आयोग पर सवाल उठाए। देखा जाये तो यह घटना केवल एक ‘डेटा एरर’ नहीं थी, बल्कि इसके राजनीतिक और संस्थागत निहितार्थ गंभीर हैं। भारत का चुनाव आयोग दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का प्रहरी है। यदि उस पर बार-बार हमले होते हैं तो मतदाताओं के मन में यह संदेश जाता है कि चुनाव पूरी तरह निष्पक्ष नहीं हैं। यह लोकतंत्र में विश्वास को कमजोर करने वाला कारक है।
जहां तक पूरे घटनाक्रम की बात है तो आपको बता दें कि 18 अगस्त को कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने एक्स पर एक ग्राफिक पोस्ट करते हुए भारत निर्वाचन आयोग की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े किए थे। उनके अनुसार 2024 के लोकसभा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के बीच महज़ छह महीने की अवधि में कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में मतदाताओं की संख्या में असामान्य गिरावट और वृद्धि दर्ज की गई थी। उन्होंने दावा किया था कि रामटेक और देवळाली में लगभग 40 फीसदी मतदाता हटा दिए गए थे जबकि नासिक वेस्ट और हिंगना में मतदाताओं की संख्या में 45 फीसदीकी वृद्धि हुई थी। व्यंग्य करते हुए उन्होंने लिखा था– अब अगली बार वे कहेंगे कि 2+2 = 420।
यह आंकड़े लोकनीति-सीएसडीएस के प्रोफेसर संजय कुमार द्वारा दिए गए थे। लेकिन मात्र 48 घंटों में यह पूरा दावा धराशायी हो गया और संजय कुमार को सार्वजनिक माफी माँगनी पड़ी। हम आपको बता दें कि 17 अगस्त को संजय कुमार ने नासिक वेस्ट और हिंगना के उदाहरण देते हुए कहा था कि वहाँ विधानसभा मतदाता संख्या लोकसभा के मुकाबले अप्रत्याशित रूप से बढ़ गई है। नासिक वेस्ट में उन्होंने वृद्धि को 47 फीसदी बताया था। हिंगना में उन्होंने वृद्धि को 43% बताया था। इन संख्याओं को कांग्रेस नेताओं और समर्थकों ने चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर सवाल उठाने के लिए तुरंत इस्तेमाल किया।
लेकिन 19 अगस्त को संजय कुमार ने अपनी पोस्ट डिलीट कर माफी माँगी। उन्होंने स्वीकार किया कि उनकी डेटा टीम ने गलत पंक्तियाँ पढ़ लीं और इसी कारण संख्याएँ बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत हो गईं। उन्होंने कहा कि उनका मकसद ग़लत सूचना फैलाना नहीं था। हम आपको बता दें कि आधिकारिक आँकड़ों के मुताबिक वास्तविकता में मतदाताओं की वृद्धि 3 से 6 फीसदीके बीच थी जबकि उसमें 45% वृद्धि की बात फैलाई जा रही थी।
इस विवाद ने भाजपा को कांग्रेस और सीएसडीएस दोनों पर हमला करने का मौका दिया। बीजेपी आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय ने कहा कि सीएसडीएस वर्षों से केवल शोध संस्था के रूप में नहीं, बल्कि नैरेटिव सेटिंग का औजार बनकर काम कर रहा है। उन्होंने विदेशी फंडिंग पर सवाल उठाए और आरोप लगाया कि इसका मकसद भारत की सामाजिक एकता को कमजोर करना है। उन्होंने यह भी कहा कि सीएसडीएस अपने सर्वेक्षणों में हिंदू समाज को जातिगत रूप से विभाजित दिखाता है, जबकि मुस्लिम समाज को एकरूप दिखाया जाता है। अमित मालवीय के अनुसार, यह रोज़ मिसरीड जैसी मासूम गलती नहीं बल्कि एक सुनियोजित प्रयास था जो उलटा पड़ गया।
इसके अलावा, चूँकि सीएसडीएस को भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद से फंडिंग मिलती है, इसलिए उसने भी इस घटना पर संज्ञान लिया। परिषद् ने कहा कि यह अनुदान नियमों का उल्लंघन है और चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था की विश्वसनीयता को कमजोर करने की कोशिश है। परिषद् ने सीएसडीएस को शो-कॉज़ नोटिस जारी करने की घोषणा की है। देखा जाये तो यह पूरा प्रकरण हमें कई अहम सबक देता है। एक सबक यह है कि चुनाव से जुड़े आँकड़े अत्यंत संवेदनशील होते हैं। एक गंभीर विश्लेषक को इन्हें प्रकाशित करने से पहले कई बार जाँचना चाहिए। दूसरा- जैसे ही संजय कुमार ने पोस्ट किया, वैसे ही कांग्रेस नेताओं ने चुनाव आयोग पर हमला कर दिया इससे संदेह होता है कि क्या कांग्रेस को पहले से पता था कि संजय कुमार क्या पोस्ट करने जा रहे हैं।
इसके अलावा, शोध संस्थानों की छोटी-सी गलती भी उन्हें राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा बना सकती है और जनता के बीच ऐसी संस्थाओं पर भरोसा कम करती है। सीएसडीएस जैसी संस्था,, यदि बिना जाँच-पड़ताल के आंकड़े सार्वजनिक करती है तो उसकी विश्वसनीयता पर तो असर पड़ता ही है, साथ ही पूरी रिसर्च कम्युनिटी की निष्पक्षता पर भी प्रश्नचिह्न लगता है। इससे यह धारणा बनती है कि शोध संस्थान भी राजनीति का उपकरण बनते जा रहे हैं।
बहरहाल, पवन खेड़ा और संजय कुमार के बयानों से शुरू हुआ यह विवाद केवल आंकड़ों की ग़लत व्याख्या तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसने शोध संस्थानों की विश्वसनीयता, चुनाव आयोग की साख और राजनीतिक दलों की रणनीति– तीनों को केंद्र में ला खड़ा किया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि डेटा आधारित राजनीति में ज़रा-सी लापरवाही भी बड़े नैरेटिव युद्ध का हथियार बन सकती है।
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