काम में फिसड्डी साबित हो रही है संसद

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नीरज कुमार दुबे
(वरिष्ठ स्तंभकार)
भारतीय लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण मंच संसद जनता के प्रतिनिधियों को नीति और विधायी कार्यों पर गहन विमर्श का अवसर प्रदान करता है। लेकिन आज संपन्न मानसून सत्र इसका विपरीत चित्र प्रस्तुत करता है। हम आपको बता दें कि लगभग एक महीने तक चले इस सत्र में लोकसभा ने 12 और राज्यसभा ने 15 विधेयक पारित किए। कागज़ों पर यह भले उपलब्धि दिखती है, किंतु वास्तविकता यह है कि अधिकांश विधेयक बिना सार्थक चर्चा के शोर-शराबे और हंगामे के बीच पारित हुए।
दोनों सदनों में कामकाज की स्थिति वाकई काफी चिंताजनक रही। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला के अनुसार, 419 तारांकित प्रश्न सूचीबद्ध थे, किंतु बार-बार होने वाले व्यवधानों के कारण मात्र 55 प्रश्नों के ही मौखिक उत्तर हो पाए। साथ ही जहां सत्र की शुरुआत में 120 घंटे चर्चा का लक्ष्य रखा गया था, वहीं विपक्ष के निरंतर गतिरोध के चलते सदन केवल 37 घंटे ही चर्चा कर सका। इसी तरह राज्यसभा का प्रदर्शन भी निराशाजनक रहा। उपसभापति हरिवंश के अनुसार, सदन का कुल कामकाज मात्र 38.88 प्रतिशत ही हुआ और शून्यकाल तथा प्रश्नकाल एक बार भी सामान्य तरीके से संचालित नहीं हो सका। यह आंकड़े दर्शाते हैं कि संसदीय प्रणाली अपनी गुणवत्ता और प्रभावशीलता खोती जा रही है।
हम आपको याद दिला दें कि सत्र की शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कहकर की थी कि सरकार हर मुद्दे पर चर्चा को तैयार है। बावजूद इसके, विपक्ष ने बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) और ‘ऑपरेशन सिंदूर’ जैसे मुद्दों पर हंगामा करते हुए लगातार कार्यवाही ठप रखी। कई सांसद, जो अपने क्षेत्र के मुद्दों को उठाने की तैयारी के साथ संसद पहुँचे थे, अपनी बात रखने से वंचित रह गए। यह न केवल सांसदों की भूमिका को कमतर करता है बल्कि जनता की आकांक्षाओं को भी ठेस पहुँचाता है। देखा जाये तो संसद का मूल उद्देश्य है— कानून निर्माण पर व्यापक चर्चा और विमर्श। चर्चा से कानून के पक्ष-विपक्ष, उसके प्रभाव और संभावित खामियों पर प्रकाश पड़ता है। किंतु हंगामे के बीच जब विधेयक संक्षिप्त औपचारिकता के बाद पारित होते हैं, तो उनकी गुणवत्ता और पारदर्शिता दोनों प्रभावित होती हैं। यह न केवल विधायी प्रक्रिया की गंभीरता को कम करता है, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा को भी आहत करता है।
इसके अलावा, जिस तरह अन्य क्षेत्रों में ‘नो वर्क नो पे’ का सिद्धांत लागू है, उसी तरह सांसदों पर भी यह नियम लागू होना चाहिए। यदि वह जानबूझकर हंगामे और व्यवधान के कारण संसद का काम ठप करते हैं, तो करदाताओं के पैसों से मिलने वाले वेतन और भत्तों पर उनका कोई अधिकार नहीं बनता। साथ ही, जिस तरह दागी नेताओं को एक माह तक जेल में रहने पर स्वतः उनका मंत्री पद समाप्त होने के प्रावधान वाला विधेयक पेश किया गया है उसी तरह लगातार हंगामा करने वाले सांसदों की सदस्यता स्वतः समाप्त करने पर भी गंभीर विचार होना चाहिए। यह लोकतंत्र को बचाने और संसद की गरिमा बनाए रखने के लिए आवश्यक है। यह भी दिलचस्प रहा कि सत्र से पहले यह अपेक्षा थी कि जस्टिस यशवंत वर्मा के पद से हटाने की प्रक्रिया प्रमुख राजनीतिक मुद्दा बनेगी। किंतु अप्रत्याशित रूप से उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के इस्तीफे ने इस मानसून सत्र को एक ऐतिहासिक राजनीतिक मोड़ दे दिया।
भारत ने वर्ष 2047 तक विकसित भारत का संकल्प लिया है और पूरा राष्ट्र इस लक्ष्य की दिशा में गति पकड़ चुका है। लेकिन जब संसद में विपक्षी सांसद लगातार हंगामा कर व्यवधान डालते हैं, तो यह सीधे-सीधे विकसित भारत की राह में रोड़ा डालने जैसा है। देखा जाये तो विकास की गति केवल सड़कों, पुलों और उद्योगों से नहीं तय होती, बल्कि सुचारु और प्रभावी विधायी व्यवस्था से भी होती है। संसद ही वह स्थान है जहां नीतियों का खाका तैयार होता है, संसाधनों का प्रबंधन तय होता है और जनता की आवाज़ नीतियों में रूपांतरित होती है। यदि यही मंच बार-बार शोर-शराबे में जकड़ जाए और कार्यवाही बाधित हो, तो विकास की गाड़ी आगे कैसे बढ़ेगी?
विपक्ष का दायित्व है कि वह सरकार को कटघरे में खड़ा करे, सवाल पूछे और जनहित के मुद्दों पर रचनात्मक बहस करे। लेकिन विपक्ष यदि सवाल पूछने की बजाय हंगामा करने को ही हथियार बनाए, तो यह लोकतंत्र के साथ ही देश की विकास यात्रा के साथ अन्याय है। संसद का हर मिनट करदाताओं के करोड़ों रुपये के बराबर होता है। ऐसे में यह समय और धन व्यर्थ करना देश की प्रगति में बाधा डालने जैसा है। आज जब पूरा भारत विकसित राष्ट्र बनने की दिशा में तेज़ी से आगे बढ़ रहा है, तब विपक्षी सांसदों को चाहिए कि वह हंगामा छोड़कर सार्थक बहस और ठोस सुझावों के माध्यम से योगदान करें। विकास केवल सरकार का नहीं, बल्कि पूरे राजनीतिक तंत्र और समाज का साझा दायित्व है। यदि संसद ही ठप कर दी जाएगी, तो विकसित भारत का संकल्प केवल एक अधूरा सपना बनकर रह जाएगा।
बहरहाल, स्पष्ट है कि भारतीय संसदीय प्रणाली इस समय गंभीर संकट से गुजर रही है। आंकड़े बताते हैं कि संसद का अधिकांश समय सार्थक चर्चा और विधायी कार्यों की बजाय शोर-शराबे में नष्ट हो रहा है। विपक्ष यदि लोकतंत्र की रक्षा का दावा करता है, तो उसे पहले संसद की कार्यप्रणाली को ठप करने की बजाय संवाद और बहस के रास्ते पर लौटना होगा। लोकतंत्र बहुमत और विपक्ष दोनों की जिम्मेदारी से चलता है। संसद को हंगामे की भेंट चढ़ाना देश और जनता के हितों को सीधा नुकसान पहुँचाता है। इसलिए अब समय आ गया है कि संसद में अनुशासन और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए कठोर नियम बनाए जाएं। हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं लेकिन यदि हमारी संसदीय प्रणाली औसत दर्जे का प्रदर्शन करेगी तो यह स्थिति हर भारतीय के लिए शर्मनाक है।

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