कमलेश पांडे (राजनीतिक विश्लेषक)
आए दिन बदलती वैश्विक परिस्थितियों के बीच जियो-पॉलिटिकल लव ट्रेंगल के दृष्टिगत एक रूस, एक भारत और एक चीन के अघोषित स्वप्न यक्ष प्रश्न समुपस्थित है। देखा जाए तो प्रथम-द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रणेता रहे अमेरिका-यूरोप की कुचक्री नीतियों के प्रतिरोध स्वरूप बन रहे यूरेशियाई ब्लॉक यानी ‘रूस-चीन-भारत’ के समूह और उसके प्रस्तावित आरआईसी त्रिकोण के सम्मुख यह मौलिक सवाल समुपस्थित है कि क्या इस त्रिकोण के बिना उनके विश्वव्यापी भविष्य और उनकी सफलता दोनों संदिग्ध रहेगी।
ऐसा इसलिए कि वर्तमान अमेरिकी सनक और हनक के प्रतिक्रिया स्वरूप अब भारत ने गुटनिरपेक्षता के बजाए रूस के साथ चीन की ओर जिस तरह से अपना झुकाव प्रदर्शित किया है, वह अमेरिका-यूरोप के मित्रगत समझ और उन पर आधारित तिकड़मों को तो करारा जवाब है ही, साथ ही भारत अपनी गुटनिरपेक्ष नीतियों से इतर भी एक नया और ठोस संकेत दे रहा है, जिसे समझने की जरूरत है। अपने दूरगामी राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के लिए भारत किसी भी विकसित देश के धौंसपट्टी में नहीं आएगा और इसकी भरपाई के लिए घोर शत्रु से भी हाथ मिलाने में नहीं हिचकिचाएगा। अमेरिका यदि पाकिस्तान-बंगलादेश को भारत के खिलाफ भड़कएगा तो भारत भी अब चुप नहीं रहेगा, बल्कि आक्रामक रणनीतिक पलटवार ऑपरेशन सिंदूर की भांति करेगा।
ऐसे में संयुक्त राज्य अमेरिका और दो दर्जन देशों से अधिक की सदस्यता वाले यूरोपीय संघ में शामिल नाटो देशों के अंतरराष्ट्रीय तिकड़मों से निपटने के लिए जरूरी है कि रूस, भारत, चीन तीनों अपना-अपना विस्तार करें। खुद को उम्मीद से ज्यादा मजबूत बनाएं। इस दृष्टि से भारत के सदाबहार दोस्त सोवियत संघ में शामिल रहे रूस और अन्य चौदह देशों के अलावा, तुर्किये, सीरिया, मिश्र, सऊदी अरब आदि के उसमें मिलने से ही एक वृहत रूस या रूसी परिसंघ का सपना पूरा होगा। लिहाजा इस क्षेत्र में नाटो की बढ़ती दखल से भविष्य में मामले उलझ सकते हैं। इसी प्रकार भारत को उसके पड़ोसी देशों, यथा- पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, म्यांमार, नेपाल, तिब्बत, भूटान, श्रीलंका, मालदीव के अलावा भी थाईलैंड, कम्बोडिया, सिंगापुर, इंडोनेशिया, मलेशिया आदि देशों को भारत में मिलाने के नैतिक प्रयत्न जारी रखने होंगे, क्योंकि इससे ही एक भारत का सपना पूरा होगा। वहीं, इस क्षेत्र में अमेरिका या चीन के बढ़ती दखल से भविष्य में मामले उलझ सकते हैं।
ठीक इसी तरह से चीन के विस्तार के लिए ताइवान, उत्तर कोरिया, दक्षिण कोरिया, जापान, लाओस, वियतनाम आदि देशों को उसमें मिलाना जरूरी है, जिससे एक चीन का सपना जल्द पूरा होगा। लेकिन यहां पर भी अमेरिका या जापान के बढ़ते दखल से भविष्य में मामले उलझ सकते हैं। इस नजरिए से देखा जाए तो ये तीनों इतने वृहत भौगोलिक पॉलिटिकल ब्लॉक हैं, जिन पर रूस, भारत और चीन की पकड़ मजबूत होने से उनके संयुक्त रणनीतिक एजेंडे को बल मिलेगा। इसलिए यदि इनके एजेंडे में यह विषय शामिल नहीं है तो अविलंब कर लीजिए। इससे तीनों देशों का ही भला होगा।
निकट भविष्य में यदि भारत-रूस के प्रभाववश इजरायल का भी इस त्रिकोण को साथ मिल गया तो यह सोने पर सोहागा वाली स्थिति होगी। इससे अरब व यूरोप के उन हिस्सों पर भी भारत-रूस की पकड़ मजबूत होगी, जिन पर इजरायल की धाक जमेगी। यदि वह यरूशलेम-इंग्लैंड एक्सप्रेस-वे विकसित कर लेता है तो यह उसके लिए बहुत सुकून की बात होगी। यह स्थिति अमेरिका-रूस दोनों के लिए सुखद होगी। नई दिल्ली-मॉस्को एक्सप्रेस-वे और नई दिल्ली-बीजिंग एक्सप्रेस-वे, नई दिल्ली-सिंगापुर एक्सप्रेस-वे और नई दिल्ली-यरूशलेम एक्सप्रेस-वे बना दिया जाए तो इसके और बेहतर परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। इसी तरह से रूस के मास्को-बीजिंग एक्सप्रेस-वे, मास्को-इस्ताम्बुल (तुर्किये) एक्सप्रेस-वे, मॉस्को-बर्लिन एक्सप्रेस-वे, मॉस्को-पेरिस एक्सप्रेस-वे के सपने देखे जाएं तो यह उसके लिए बेहतर हो सकता है।
रही बात चीन की तो उसके लिए बीजिंग-इस्ताम्बुल (तुर्किये) एक्सप्रेस-वे, टोकियो एक्सप्रेस वे-वॉटर वे, चीन-लाओस एक्सप्रेस-वे से उसके कारोबार में भी इजाफा हो सकता है। लेकिन क्या ऐसा करना आसान है? जवाब होगा- शायद हां भी और नहीं भी। आज जिस तरह से अरब मुल्कों पर वर्चस्व को लेकर, भारतीय उपमहाद्वीप में वर्चस्व को लेकर, दक्षिण चीन सागर में वर्चस्व को लेकर, हिन्द महासागर में वर्चस्व को लेकर, यूक्रेन में वर्चस्व को लॉकर, तिब्बत पर वर्चस्व को लेकर, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में वर्चस्व को लेकर अमेरिका-यूरोप और रूस-चीन के बीच तलवारें खींची रहती हैं, शह-मात के खेल चलते रहते हैं, उसके दृष्टिगत अब भारत का साथ रूस-चीन को मिलने के संकेत भर से अमेरिका और उसके यूरोपीय समर्थक देशों की परेशानी बढ़ गई है।
समझा जाता है कि अब रूस-भारत-चीन का प्रस्तावित त्रिकोण ही अमेरिका-यूरोप के देशों को उनकी लक्ष्मण रेखा बताएगा, ताकि एशिया-यूरोप में हथियार व गोला-बारूद खपाने को लेकर उनकी जो शातिर व भड़काऊ नीतियां हैं, वह बदली जा सकें।
इस बारे में अब नए सिरे से उन्हें समझना होगा और जब वे समझने की कोशिश नहीं करेंगे तो फिर उसकी काट भी निकालनी होगी। भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर के साथ जब चीनी विदेश मंत्री वांग यी की बातचीत हुई थी तो इसी क्रम में ‘एक-चीन’ नीति से संबंधित बात भी उठी थी। इसके बाद चीनी विदेश मंत्री ने दावा किया कि भारत ने ताइवान को चीन का अंग मान लिया है। फिर भारत के विदेश मंत्री ने उनकी कथित टिप्पणियों पर अपना स्पष्टीकरण दिया। इस पर चीन ने ‘आश्चर्य’ व्यक्त किया है। क्योंकि भारत ने कहा था कि ताईवान पर उसके रुख में कोई बदलाव नहीं आया है और उसके साथ नयी दिल्ली के संबंध आर्थिक, तकनीकी और सांस्कृतिक पहलुओं पर केंद्रित हैं।
जयशंकर ने ऐसा इसलिए कहा होगा कि अभी तो मित्रता की पुनः शुरुआत हो रही है, जिसकी अग्नि परीक्षा अभी बाकी है। और फिर जब पाकिस्तान, अफगानिस्तान, पीओके, नेपाल, भूटान, तिब्बत, अरुणाचल प्रदेश, बंगलादेश, म्यांमार, श्रीलंका, मालदीव से जुड़े मामलों पर जब चीन के स्टैंड भारत के हितों के अनुकूल होंगे तो भारत भी उनके हितों का ख्याल रखेगा। यही वजह है कि चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता माओ निंग ने कहा कि, ‘‘हम भारत के स्पष्टीकरण से हैरान हैं।’’ वह जयशंकर की टिप्पणियों यानी भारत के स्पष्टीकरण की खबरों पर चीन के आधिकारिक मीडिया के एक सवाल का जवाब दे रही थीं। यह स्पष्टीकरण भी तब आया जब चीनी विदेश मंत्रालय ने वांग के साथ बातचीत के दौरान जयशंकर के बयान को गलत तरीके से उद्धृत करते हुए कहा था कि ताईवान चीन का हिस्सा है।
चीनी प्रवक्ता ने दावा किया कि बीजिंग इस स्पष्टीकरण को ‘तथ्यों के साथ असंगत’ पाता है। ऐसा लगता है कि भारत में कुछ लोगों ने ताईवान के मुद्दे पर चीन की संप्रभुता को कमज़ोर करने और चीन-भारत संबंधों में सुधार को बाधित करने की कोशिश की है। चीन इस पर गंभीर चिंता व्यक्त करता है और इसका कड़ा विरोध करता है। इसलिए मैं इस बात पर ज़ोर देना चाहती हूं कि दुनिया में सिर्फ़ एक ही चीन है और ताईवान चीन के भूभाग का एक अविभाज्य हिस्सा है। भारत सहित अंतरराष्ट्रीय समुदाय में इस पर व्यापक सहमति है। चीन को उम्मीद है कि भारत ‘एक-चीन’ के सिद्धांत का गंभीरता से पालन करेगा, संवेदनशील मुद्दों को उचित ढंग से संभालेगा और द्विपक्षीय संबंधों के निरंतर विकास को बढ़ावा देगा। भारत ने ‘एक-चीन’ नीति का समर्थन किया था, लेकिन 2011 के बाद से किसी भी द्विपक्षीय दस्तावेज़ में इस नीति को शामिल नहीं किया गया है। जबकि चीन ने अक्सर भारत से ‘एक-चीन’ नीति का पालन करने का आग्रह किया है। यद्यपि भारत और ताईवान के बीच औपचारिक कूटनीतिक संबंध नहीं हैं, फिर भी उनके द्विपक्षीय व्यापार संबंध लगातार बढ़ रहे हैं। ताईवान एक स्वशासी द्वीप है जिसकी आबादी 2.3 करोड़ से अधिक है। यह दुनिया के लगभग 70 प्रतिशत सेमीकंडक्टर का उत्पादन करता है, जिसमें सबसे उन्नत चिप्स शामिल हैं जो लगभग सभी इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों जैसे स्मार्टफोन, कार के पुर्जे, डेटा सेंटर, लड़ाकू विमान और एआई तकनीकों के लिए आवश्यक हैं।
31 अगस्त-1 सितंबर तक मोदी, पुतिन समेत दुनिया के 20 नेता एससीओ शिखर सम्मेलन में भाग लेंगे, जिसका नेतृत्व चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग करेंगे। तियानजिन में आयोजित होने वाला शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) का शिखर सम्मेलन इस समूह के इतिहास का सबसे बड़ा शिखर सम्मेलन होगा। यह चीन द्वारा आयोजित पांचवां शिखर सम्मेलन है। चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग और रूस के उनके समकक्ष व्लादिमीर पुतिन के अलावा, प्रधानमंत्री मोदी और दुनिया के कई नेता इस शिखर सम्मेलन में भाग लेंगे। तुर्किये के राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोआन, उनके इंडोनेशियाई समकक्ष प्रबोवो सुबियांतो, मलेशिया के प्रधानमंत्री अनवर इब्राहिम और वियतनाम के प्रधानमंत्री फाम मिन्ह चिन्ह आदि इस शिखर सम्मेलन में भाग लेने वाले अन्य प्रमुख नेता होंगे। जबकि भारतीय उपमहाद्वीप से पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ, नेपाल के प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली और मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्जू शिखर सम्मेलन में भाग लेंगे। वहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतानियो गुतारेस और एससीओ महासचिव नूरलान येरमेकबायेव सहित 10 अंतरराष्ट्रीय संगठनों के अधिकारी इस कार्यक्रम में भाग लेंगे, जिससे यह संगठन के इतिहास में सबसे बड़ा कार्यक्रम बन जाएगा।
Related Stories
Uncover the stories that related to the post!

