संघ और बदलता विमर्श

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अनिल पांडेय (वरिष्ठ पत्रकार )
एक सदी पहले मुट्ठीभर लोगों से शुरू हुआ संगठन आज देश के सबसे सशक्त और प्रभावी संगठनों में गिना जाता है। इसके बावजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ न तो कभी आत्मप्रचार की दौड़ में शामिल हुआ और न ही उसने संगठित दुष्प्रचारों का जवाब देने को आवश्यक समझा। लेकिन समय बदल रहा है। दशकों तक लगातार निशाना बनाए जाने के बाद अब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने सीधे सवालों का जवाब देना जरूरी समझा। उन्होंने स्पष्ट किया कि हिंदू और हिंदुत्व का वास्तविक अर्थ क्या है, और क्यों संघ पर लगाए जाने वाले आरोप महज राजनीतिक हथकंडे हैं।
‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि’ के भाव के साथ राष्ट्रसेवा में जुटा यह संगठन दशकों से वामपंथी–उदारवादी विमर्श और पश्चिमी चश्मे से भारत को देखने वालों का सबसे प्रिय निशाना रहा है। संघ की आलोचना आज भी खुद को ‘लिबरल’ और ‘प्रगतिशील’ साबित करने की अनिवार्य शर्त मानी जाती है। लेकिन अब परिदृश्य बदल रहा है और नरेटिव का पेंडुलम संघ की ओर झुकता दिखाई दे रहा है। नई दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित ‘100 वर्ष की संघ यात्रा: नए क्षितिज’ कार्यक्रम में मोहन भागवत ने साफ कहा, ‘हिंदू मतलब जो अपने-अपने रास्ते पर श्रद्धा रखे, दूसरों का भी सम्मान करे और रास्तों को लेकर झगड़ा न करे। यह परंपरा और संस्कृति जिनकी है, वही हिंदू है।’ उनका सीधा संदेश था-हिंदू का अर्थ ‘हिंदू बनाम अन्य’ नहीं, बल्कि समावेशिता है।
संघ के खिलाफ हमेशा राजनीति की जाती रही है। मोहन भागवत ने कहा कि संघ के बारे में चर्चाएं बहुत होती हैं, लेकिन तथ्यपरक जानकारियां कम होती हैं। लेकिन यदि विमर्श तथ्यों पर आधारित हो जाए, तो संघ-विरोधी दुष्प्रचार ठहर नहीं पाएंगे। दरअसल, तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीति लंबे समय से चुनावी फायदे के लिए संघ का हौव्वा खड़ा करती रही है। संघ का नाम लेकर एक समुदाय विशेष को डराए रखना है ताकि थोक में उनके वोट मिल सकें। हिंदू राष्ट्र का हौव्वा खड़ा कर दलितों को आरक्षण पर खतरे का भय दिखाया जाता है। यही कारण है कि असहिष्णुता आंदोलन जैसे अभियानों को हवा दी गई और संघ-भाजपा को तालिबान बताने तक की कोशिश हुई।
संघ पर सबसे तीखा हमला वामपंथी विचारधारा से आता है। इसका कारण महज राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता नहीं है, बल्कि गहरी वैचारिक असहमति है। वामपंथियों का मानना है कि राष्ट्र की पहचान केवल आर्थिक वर्ग-संघर्ष और वैश्विक मार्क्सवादी एजेंडे से परिभाषित होनी चाहिए। दूसरी ओर, संघ मानता है कि भारत की आत्मा उसकी संस्कृति और सभ्यता में निहित है। यही कारण है कि वामपंथी विमर्श में संघ को अक्सर “प्रतिक्रियावादी” और ‘फासीवादी’ ठहराने का प्रयास किया जाता है।इसके अतिरिक्त, स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ही वामपंथी धारा ने भारत की राष्ट्रीय अस्मिता को गौण रखकर अंतरराष्ट्रीय साम्यवादी क्रांति को प्राथमिकता दी, जबकि संघ ने भारत- केंद्रित राष्ट्रवाद को अपनी मूल धुरी बनाया। यह वैचारिक विरोध आज भी कायम है।
संघ भारत को सांस्कृतिक राष्ट्र मानता है, जबकि वामपंथ इसे 1947 में जन्मे ‘नेशन स्टेट’ से आगे देख ही नहीं पाता। वामपंथ समाज को संघर्ष की दृष्टि से देखता है, जबकि संघ सहयोग और एकता पर बल देता है। वामपंथ की प्रेरणा मार्क्स, लेनिन और माओ हैं। संघ अपनी जड़ों को भारत की परंपरा, सनातन और अध्यात्म में खोजता है। यही कारण है कि संघ चाहे शिक्षा, सेवा या सामाजिक कार्य में कितना भी योगदान क्यों न करे, वामपंथी विमर्श उसकी छवि को संदिग्ध बनाने से बाज नहीं आता।

क्या हिंदू तालिबान हो सकता है?
मोहन भागवत ने इस सवाल को सिरे से खारिज कर दिया। उन्होंने कहा,’हमारे यहां न कोई एक किताब है, न कोई एक पैगम्बर, न कोई सर्वमान्य गुरु। यहां 33 करोड़ देवी-देवताओं की पूजा होती है। बौद्ध, जैन जैसी परंपराएं भी सहज रूप से फलती-फूलती रही हैं। कोई भी रास्ता गलत नहीं माना गया। हिंदू जन्मना समावेशी होता है, और इस समावेश की कोई सीमा नहीं। स्पष्ट है कि हिंदुओं की तालिबान से तुलना न केवल तथ्यहीन है, बल्कि भारत की आत्मा को समझने में असफलता भी है।मार्क्स और मैकाले की दृष्टि से प्रभावित बुद्धिजीवियों के लिए भारत महज एक ‘नेशन स्टेट’ है। लेकिन भागवत का मानना है कि भारत अनादि काल से राष्ट्र रहा है। जिसका हजारों साल का इतिहास है। राष्ट्र केवल राजनीतिक संरचना नहीं, बल्कि सांस्कृतिक एकता और आध्यात्मिक परंपरा से जन्म लेता है।
मोहन भागवत के वक्तव्य का सार यही है कि संघ के बारे में सत्य और सही जानकारी सामने आनी चाहिए। निष्कर्ष निकालना सभी का अधिकार है, लेकिन भ्रम और दुष्प्रचार पर आधारित आलोचना अब स्वीकार्य नहीं होगी। भारत की संस्कृति का मूल भाव सद्भाव और समावेश है। जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र के नाम पर विभाजनकारी राजनीति करने भले इसे न मानें, लेकिन भागवत की परिभाषा ने संघ पर लगे पुराने आरोपों को अप्रासंगिक बना दिया है। उन्होंने हिंदू, हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र की ऐसी व्याख्या दी है जो विरोधियों को नई चुनौती देती है और भविष्य के विमर्श को नई दिशा।

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