अरजाल समस्या पर आपने विचार किया है ?

मुसलमानों में जाति: पसमांदा आंदोलन की विफलता और अरजाल की अनदेखी

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प्रेमकुमार मणि
(साहित्यकार और विश्लेषक )
श्री नूर हसन आज़ाद जी मिलने आए. वह पिछले तीन दशकों से साथ रहे हैं. तब मुसलमानों का पसमांदा आंदोलन आरंभिक दौर में था. अली अनवर, नूर हसन आज़ाद और उस्मान हलालखोर एक साथ सक्रिय दिखते थे. अली अनवर ने मसावात की जंग शीर्षक से एक किताब लिखी. जनता दल यू ने 2006 और 2012 में उन्हें राज्यसभा में सदस्य बना कर भेजा. उन्हें लोग जान गए. उस्मान हलालखोर को अति पिछड़ा वर्ग आयोग का सदस्य बनाया गया. नूर हसन जमीनी लड़ाई लड़ते रहे और पचास की उम्र में ही दिल के ऐसे मरीज हुए कि उन्हें ओपन हार्ट सर्जरी करानी पडी. मैंने उन्हें हाल-चाल जानने के लिए फोन किया तब उन्होंने कहा आपसे मिलना चाहूंगा. मैं आ सकता हूँ ? और वह आए. बहुत दिनों के बाद मुलाकात हुई थी. इसलिए कोई डेढ़ घंटे हमलोग बात करते रहे. उन्होंने बताया पसमांदा आंदोलन ढह चुका है. मुसलमानों के पिछड़े ( अजलाफ ) समूह को नीतीश राज की योजनाओं का कुछ लाभ जरूर मिला, लेकिन अरजाल ( दलित ) समूह आज तक हासिये पर है. मैंने विस्तार से जानकारी ली. पूरी जानकारी उदास करने वाली थी.
याद कर सकता हूँ कि 2004 के जुलाई महीने की किसी तारीख को तत्कालीन सांसद नीतीश कुमार ने मेरे आग्रह पर लोकसभा में दलित मुसलमानों का मुद्दा उठाया था. उनके इस भाषण पर आरएसएस के मुखपत्र पांचजन्य ने उनकी तीखी आलोचना की थी. हिन्दू मिजाज के बुद्धिजीवियों का मत रहा है कि अछूतपन और दलितपन केवल हिन्दू समाज की समस्या रही है. हालांकि पिछड़े वर्ग में मुस्लिम पिछड़े भी शामिल किए गए हैं,लेकिन अनुसूचित जाति संवर्ग में मुसलमानों और ईसाइयों को शामिल नहीं किया गया है. 1936 में लिखे गए एक लेख में गाँधी ने ईसाई दलितों की समस्या को उठाया था. केरल में सीरियन ईसाई दलित ईसाइयों को चर्च की प्रार्थना में सब से पीछे खड़े होने की इजाजत देते थे. गाँधी ने दलित ईसाइयों को कहा कि वे लोग पूरे चर्च में बिखर कर प्रार्थना में शामिल हों. यह एक मौन विद्रोह था. इसकी चर्चा नीतीश जी ने अपने भाषण में की थी. तब राजनीतिक तौर पर मैं और नीतीश जी साथ काम कर थे. उस वक्तव्य को अख़बारों में विज्ञापन के तौर पर पार्टी ने प्रकाशित करवाया था. तब नीतीश कुमार आज की तरह सठियाये नहीं थे.
अनेक बुद्धिजीवियों को जाति और दलित समस्या को समझने में उलझन होती है. वे इसके लिए केवल हिन्दू सामाजिक दर्शन को जिम्मेदार समझते हैं. मनुस्मृति को लक्ष्य करते हुए उनकी आलोचना होती है. ब्राह्मणवाद का अर्थ वे पूरी तरह समझ नहीं पाते. यह ब्राह्मणवाद दरअसल सामाजिक गतिकी को रोकने की एक व्यवस्था है, जिसका प्रचलन पूरे भारतीय उपमहाद्वीप और यहाँ के सभी धर्मों में है. जाति और अछूतपन की व्यवस्था न केवल हिन्दुओं बल्कि मुसलमानों और ईसाइयों में भी है. ( अरूँधती राय के उपन्यास गॉड ऑफ स्माल थिंग्स में इसकी एक झलक मिलती है ) ऊँची जातियां न केवल हिन्दुओं में बल्कि मुसलमानों और ईसाइयों में भी है. हिन्दुओं में जो द्विज हैं, मुसलमानों में असरफ हो जाते हैं. मुसलमानों का समाज साफ़ तौर से तीन हिस्सों में विभाजित है, असरफ, अजलाफ और अरजाल. अरजाल दलित मुस्लमान हैं, जिनकी तरफ किसी का ध्यान नहीं गया है.
बिहार में कुछ प्रमुख दलित मुस्लिम समूह इस प्रकार हैं-
धोबी, पमरिया, नट, हलालखोर ( इन्हें लालबेगी,मेहतर और भंगी भी कहा जाता है ) बक्खो, भठियारा, भाट, डफाली, साईँ ( इसी साईँ के हिन्दू हिस्से गुसाईं में महाकवि तुलसीदास जन्मे थे) , सिकलगर , मिरियासिन, नालबंद, मिर्शिकार, मदारी, गधेडी, कलंदर आदि. इन सबकी जनसंख्या तकरीबन दस लाख होगी. इनकी तबाही बेबसी का हिसाब रखने वाला कोई नहीं है.
हमारे समाजशास्त्रियों और इतिहासकारों ने सबाल्टर्न दृष्टिकोण से भारतीय समाज को देखने की कभी कोशिश नहीं की. हिन्दू समाज को द्विज नजरिये और मुस्लिम को असरफ ंजरिये से देखा गया. भारत के नब्बे फीसद मुसलमान आज भी कुरान और मस्जिद से दूर हैं. वे उर्दू और पर्शियन से भी दूर हैं. इनके संख्याबल पर ही जिन्ना ने पॉलिटिक्स की और आज भी उस परंपरा के लोग कर रहे हैं. उनके लिए मुसलमान का अर्थ होता है, गोल अरबी टोपी और उटंग पजामा या फिर बकरे की तरह की दाढ़ी, टोंटीदार लोटा या फिर शिरवानी पोशाक. ये बस दस फीसद असरफ और उनके दुमछल्ले मुसलमानों के लिबास और धज हैं. मुसलमानों की नब्बे फीसद आबादी छोटे-छोटे काम कर किसी तरह जीवन यापन कर रही है. दस फीसद असरफ अकलियत के नाम पर तमाम सरकारी सुविधाएं और ओहदे हासिल किए हुए हैं. इस्लाम के नाम पर उनका उसी तरह उन्मादी शोषण होता रहा है जिस तरह हिंदुत्व के नाम पर हिन्दू पिछड़े दलित समाज का होता है.
हिन्दू दलित और पिछड़े वर्ग के लोग जागरूक हो रहे हैं. मुसलमानों को मजहबी अफीम चटा कर सुला दिया जाता है. मेरा स्पष्ट तौर पर मानना है कि यदि 1937 और 1946 के चुनाव में सभी मुसलमानों को वोट का अधिकार मिला होता तो मुस्लिम लीग की पॉलिटिक्स पिट गयी होती. उस वक्त दस फीसद से भी कम मुसलमान वोटर थे. इसमें अधिकांश असरफ जमात के थे. इन सब ने ही जिन्ना की पॉलिटिक्स को परवान चढ़ाया था. न्याय की गुहार करने वाले इन मुसलमानों ने अपने निचले तबकों के हाल का कोई जायजा नहीं लिया. उनके बीच से कोई राजाराम मोहन राय, जोतिबा फुले या आम्बेडकर नहीं पैदा हुआ. आखिर क्यों ?
फिलहाल अरजाल तबके की समस्याओं के निराकरण केलिए केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों को एक सक्षम आयोग का गठन तत्काल प्रभाव से करना चाहिए. यह मानवता और सामाजिक न्याय दोनों के लिए जरूरी है. इस पर सामाजिक विचारकों को गंभीरता से विचार करना चाहिए.

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