भारतीय सेना के पराक्रम का जयघोष

भारत की वीरता, इतिहास के गौरव से रूबरू

8 Min Read

हाइफा दिवस विशेष:

डॉ. नवीन कुमार मिश्र 

हाइफा को तुर्कों के कब्जे से मुक्त कराने के लिए ब्रिटिश सेना की मदद में गए जोधपुर, मैसूर और हैदराबाद के सैनिकों ने अहम भूमिका निभाई थी। भारतीय सैनिकों की वीरता, साहस और बलिदान से मुक्त हुई के बारे में सुनकर वर्ष 1919 से संपूर्ण विश्व से यहूदी इजराइल में आकर बसते गए, जिससे यहूदियों की संख्या लगातार बढ़ती चली गई। अंततः वर्ष 1948 में राज्य-राष्ट्र के रूप में इजराइल अस्तित्व में आ गया।  दो हजार वर्षों से भारत को छोड़कर सम्पूर्ण विश्व में दुर्व्यवहार और अमानवीय यातनाओं के शिकार हो रहे यहूदी अपनी जन्मभूमि को स्वतंत्र देखने और वहां बसकर गरिमामय जीवन जीने के इच्छुक थे। माना जाता है कि इजरायल की आजादी का रास्ता हाइफा की लड़ाई से ही खुला था, जब भारतीय सैनिकों ने सिर्फ परंपरागत रूप में भाले, तलवारों और घोड़ों के सहारे ही 23 सितंबर 1918 को तुर्की, जर्मन, आस्ट्रिया, हंगरी की आधुनिक हथियारों से वाली सेनाओं को लड़ाई में हरा दिया। 

1299 में स्थापित अत्यंत शक्तिशाली आटोमन साम्राज्य, जो दक्षिण-पूर्व यूरोप, पश्चिम एशिया व अफ्रीका तक फैला था, समय के साथ अस्तित्व विहीन होता चला गया। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अपनी सेना के लिए आपूर्ति जारी रखने के उद्देश्य से लिए ब्रिटिश जनरल एलेनबी को रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हाइफा के बंदरगाह और रेलवे स्टेशन को अपने नियंत्रण में करना चुनौती बन गया था, जहां तुर्की द्वारा आर्थिक व व्यापारिक गतिविधियों पर रोक लगा दिया गया था। 

हाइफा पर नियंत्रण के लिए जनरल ऐलेनबी के नेतृत्व में 22 सितंबर 1918 को हुए हमलें में 30 तुर्की सैनिक मारे गए तथा 311 सैनिकों को उनकी चार मशीनगनों के साथ पकड़ लिया गया।

 जब इम्पीरियल सेनाओं ने शहर का हवाई दृश्य लिया, तो ऐसा लग रहा था कि शहर पूरी तरह से खाली हो गया था।इसलिए ब्रिगेडियर जनरल एडीए किंग ने हाइफा पर कब्जा करने के लिए नाझरथ रोड पर अपनी लाइट आर्म्ड ब्रिगेड की एक टुकड़ी 22 सितंबर को ही भेजी परन्तु कार्मेल पर्वत के ऊपर से मशीनगनों व तोपों के साथ हमलें के कारण जब ब्रिटिश सेना को दुश्मन की मोर्चाबंदी और ताकत के बारे में पता चला, तब ब्रिगेडियर जनरल एडीए किंग ने सेना को वापस बुलाना पड़ा, परन्तु भारतीय योद्धा सेना को वापस बुलाने के निर्णय से खुश नहीं थे।

सैनिकों का कहना था कि बगैर लड़े लौटना अपमान होगा, क्योंकि भारत में शत्रु के डर से मैदान छोड़कर भागने से उचित लड़कर बलिदान होना ही श्रेयस्कर माना जाता है। भारतीय सैनिकों ने युद्ध नहीं करने के निर्णय को अस्वीकार कर दिया तथा उनकी जिद के आगे ब्रिटिश ब्रिगेडियर जनरल को झुकना पड़ा। उनको हाइफा पर हमले की अनुमति दे दी गई। जोधपुर व मैसूर के भारतीय घुड़सवार और पैदल सेना ने केवल भालों व तलवारों के साथ 23 सितंबर को हाइफा की ओर बढ़ना शुरू किया। उनका रास्ता कार्मेल पर्वत श्रृंखला के साथ लगा हुआ था और किशोन नदी व इसकी सहायक नदियों के साथ दलदली भूमि की एक पट्टी तक सीमित था। जैसे ही 14वीं व 15वीं कैवेलरी ब्रिगेड आगे की ओर बढ़ी कार्मेल पर्वत पर तैनात 77 एमएम की तोपों से हमले शुरू हो गए।

मैसूर लांसर्स ने दक्षिण की ओर से पर्वत कार्मेल पर चढ़ाई कर दो नेवी बंदूकों को अपने कब्जे में कर लिया तथा मशीनगनों के सामने से लड़ते हुए उनका सफाया कर दिया। मेजर दलपत सिंह के नेतृत्व में जोधपुर कैवेलरी गोलीबारी के बीच आगे बढ़ती रही और तलवार और भालें से तुर्की सैनिकों को मारते हुए हाइफा पर कब्जा कर लिया और 402 वर्षों से तुर्की शासन से स्वतंत्र कराकर हाइफा को मुक्त कर दिया।

केवल दो रेजीमेंट ने परंपरागत हथियारों से लड़कर 1000 से अधिक अत्याधुनिक मशीनगन व तोपों से युक्त तुर्की की सेना को हराकर मात्र एक दिन में युद्ध जीत लिया। साथ ही 1532 दुश्मनों को युद्ध बंदी बनाया गया तथा 17 बंदूकों और 11 मशीनगनों को कब्जे में ले लिया गया था। इस जंग में 900 से अधिक भारतीय सैनिकों का इजराइल की धरती पर बलिदान हुआ।

हाइफा को स्वतंत्र करने में मेजर दलपर सिंह का बड़ा योगदान होने के कारण उन्हें ‘ हीरो ऑफ हाइफा’ भी कहा गया तथा उनके साथ कैप्टन अनूप सिंह और लेफ्टिनेंट सगत सिंह को मिलिट्री क्रॉस से सम्मानित किया गया। कैप्टन बहादुर अमन सिंह जोधा और जमादार जोर सिंह को युद्ध में उनकी वीरता के लिए इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट से सम्मानित किया गया। हाइफा को मुक्त करवाने वाली जोधपुर, मैसूर और हैदराबाद की रियासतों से संबंधित तीनों कैवलरी को मिलाकर भारतीय गणतंत्र में 61वीं कैवलरी रेजिमेंट के रूप में गठन किया गया। यह कैवलरी रेजिमेंट 23 सितंबर को प्रत्येक वर्ष हाइफा दिवस मनाती है।

इजराइल में बलिदान हुए भारतीय सैनिकों की याद में नई दिल्ली में पहले प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरु के आवास, जो अब प्रधानमंत्री संग्राहलय है, के पास 8 मार्च 1924 को वाइसरॉय रीडिंग के समय इस प्रतिमा का अनावरण हुआ था, जो पीतल की बनी ये तीन मूर्तियाँ हैदराबाद, जोधपुर और मैसूर रियासतों के घुड़सवार सैनिकों का प्रतीक हैं।

इसकी सुरक्षा में 19 किंग जॉर्ज फिफ्थ ओन लैंसर्स तैनात था और गार्ड ऑफ ऑनर 2/13 फ्रंटियर फोर्सेज रायफल्स ने दी थी। हाइफा में भारतीय सैनिको के बलिदान के सौ वर्ष पूर्ण होने पर नई दिल्ली में तीन मूर्ति चौक का नाम 23 जनवरी 2018 को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और तत्कालीन इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की उपस्थिति में ‘ तीन मूर्ति हाइफा चौक रखा गया।

देश की स्वाधीनता के बाद भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी भारतीय वीरों के समाधि स्थल हाइफा पर पहुंचे, जिसके बाद भारतीय सैनिकों के अदम्य साहस और इजराइल के साथ भारत की घनिष्ठता की ओर विश्व का ध्यान आकृष्ट हुआ। इजराइल में प्रत्येक वर्ष समारोह कर 23 सितंबर को हाइफा दिवस के रूप में मनाया जाता है। इजरायल में बच्चों को साहसी बनाने के लिए पाठ्य-पुस्तकों में हाइफा युद्ध और भारतीय सैनिकों के शौर्य-गाथाओं को पढ़ाया जा रहा है। भारत में भी हाइफा को मुक्त करने वाले भारतीय सैनिकों के पराक्रम को पाठ्यक्रम में शामिल करने की उम्मीद की जानी चाहिए।

Share This Article