नेताओं-अभिनेताओं के कुनबे में कुचलता हुनर

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Highlights
  • • भारत में लोकतंत्र होने के बावजूद राजनीति में गहरा परिवारवाद या नेपोटिज्म देखा जा सकता है। • अधिकांश राजनीतिक दलों की अगली पीढ़ी नेताओं के बाल-बच्चे या परिवारजन होते हैं। • सत्ता का हस्तांतरण राजा की तरह परिवार में ही होता है, कभी-कभी बेटियां, पत्नियां या बहनें शामिल होती हैं। • राजनीति में ताकत मिलने के बाद आर्थिक स्थिति में तेजी से सुधार और संपत्ति का निर्माण होता है। • लोकतंत्र के नाम पर असली उद्देश्य अक्सर संसाधनों और शक्ति का केंद्रीकरण होता है। • भाई-भतीजावाद का प्रभाव फिल्मी दुनिया में भी दिखाई देता है, जहां ज्यादातर स्टार्स परिवार से आते हैं। • संघर्ष करके अपने करियर की शुरुआत करने वाले अभिनेता/अभिनेत्री बहुत कम हैं, उदाहरण: कंगना राणौत, नवाजुद्दीन सिद्दीकी। • राजनीतिक दल और फिल्म उद्योग दोनों में ही नेपोटिज्म की प्रक्रिया लगातार तीसरी पीढ़ी तक पहुंच रही है। • सत्ता और आर्थिक ताकत के मिलने के बाद इसे किसी बाहरी व्यक्ति को देना मुश्किल हो जाता है। • लोकतंत्र और समान अवसर के ढोल पीटने के बावजूद वास्तविक शक्ति परिवारजन तक सीमित रहती है।

क्षमा शर्मा
(वरिष्ठ पत्रकार)
अपने देश में लोकतंत्र है। इसे विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है, लेकिन यहां अब भी सामंतवाद की जड़ें बेहद गहरी हैं। इसका उदाहरण राजनीतिक दलों को देखकर आसानी से मिल जाता है। फिल्मी दुनिया, जो अपने आप को देश-काल की सीमाओं से परे बताती है, उसमें भी यह समान प्रवृत्ति देखी जा सकती है।

हमारे देश के अधिकांश राजनीतिक दलों की अगली पीढ़ी के रूप में नेताओं के ही बाल-बच्चे सामने आते हैं। पिता अपने पुत्र का राजनीति में राजा की तरह राज्याभिषेक कर देते हैं। जिस तरह राजा की गद्दी उसके बेटे को मिलती थी, राजनीति में भी यही देखा जा सकता है। हां, कभी-कभी इसमें बेटियों, बहनों या पत्नियों को भी शामिल किया जाता है। यानी कि सत्ता हर हाल में चाहिए और वह अपने बाद भी हमेशा बनी रहनी चाहिए। इसमें भी वारिस या उत्तराधिकार का नियम लागू होता है।

बिहार के एक वरिष्ठ नेता, जो जयप्रकाश नारायण के कांग्रेस विरोधी आंदोलन की नैया पर सवारी करते हुए राजनीति के शिखर तक पहुंचे, ने कहा था कि “यदि हम अपने बच्चों की मदद नहीं करेंगे, तो क्या हमारे बच्चे भीख मांगेंगे?” इसी तरह उन्होंने कहा था कि “अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री न बनाएं, तो क्या तुम्हारी पत्नी को बनाना चाहिए?” उत्तर प्रदेश की एक पार्टी में 22 परिवारजन सक्रिय राजनीति में हैं। हाल ही में फेसबुक पर किसी ने लिखा था कि बिहार की राजनीति में अनेक दलों में परिवार के 27 प्रतिशत लोग शामिल हैं।

अपने परिवारजनों को आगे बढ़ाने में कोई भी दल पीछे नहीं है। महाराष्ट्र से लेकर झारखंड, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर, बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और बंगाल कहीं भी देखें, बात तो आम जनता की होती है, लेकिन उसके प्रतिनिधित्व के नाम पर दलों के उच्च पद हमेशा परिवारजनों को ही मिलते हैं। ऐसा क्यों मान लिया जाता है कि नेतृत्व देने की सारी क्षमता सिर्फ राजनेताओं के परिवारों के पास ही होती है?

दरअसल, यह देश शक्तिपूजक है। एक बार जो ताकत का स्वाद चख लेता है, वह उसे कभी खोना नहीं चाहता। राजनीति से ज्यादा शक्ति भला और किसके पास हो सकती है। चाहे जितनी गरीबी और साधनहीनता हो, “By the people, For the people, Of the people” के ढोल को पीटा जाए, असली मकसद साधनों का बेहिसाब जुगाड़ ही होता है। वर्ना यह कैसे संभव होता कि राजनीति में आते ही किसी की आर्थिक स्थिति अचानक छलांग मारकर आकाश छूने लगे।

यह सारी आर्थिक ताकत समर्थक भी जुटाती है। साइकिल पर चलते नेता अचानक मर्सिडीज या पोर्श में नजर आने लगते हैं। जब यह बेशुमार ताकत एक बार मिल जाती है, तो भला कौन इसे जाने दे। वर्षों में जो जगह बनाई गई है, उसे किसी बाहरी को क्यों छीनने दिया जाए? इसलिए सबसे पहले अपने ही बाल-बच्चों और अन्य परिवारजनों का ख्याल आता है।

कहते हैं न कि घुटने हमेशा पेट की ओर मुड़ते हैं। हर चुनाव से पहले राजनीतिक सुधार और चुनावी प्रक्रिया में सुधार की बातें होती हैं। मगर सुधार करने वाले वही लोग होते हैं, जो कानून बनाते हैं और जिन्हें खुद सुधरने की जरूरत होती है। आखिर वास्तविक लोकतंत्र चाहिए ही किसे? सत्ता, चाहे जैसे मिले, मिलनी चाहिए।

इसे अंग्रेजी में नेपोटिज्म कहते हैं। इसके मायने हैं कि अपने अधिकार का प्रयोग करके परिवार के सदस्यों को लाभ पहुँचाना। इसे ही भाई-भतीजावाद या कुनबापरस्ती भी कहते हैं।

आजकल लोगों के जीवन को दो चीजें सबसे ज्यादा प्रभावित करती हैं – राजनीति और फिल्मी दुनिया। फिल्मी दुनिया में भी कुनबापरस्ती या नेपोटिज्म का बोलबाला है। अब वहां कोई मिठुन चक्रवर्ती या धर्मेंद्र जैसा सितारा स्वतः संघर्ष करके नहीं मिलता। कंगना राणौत जैसी कुछ ही अभिनेत्रियाँ हैं, जिन्होंने कठिन संघर्ष के बाद इस दुनिया में जगह बनाई। नवाजुद्दीन सिद्दीकी जैसे कुछ ही अभिनेता हैं।

जैसा नजर आता है, अधिकांश जगह अपने ही परिवारजन या उनके बच्चे ही प्रमुख भूमिका में होते हैं। जब इस बारे में उनसे पूछा जाता है, तो कई कहते हैं कि “ऐसा कुछ नहीं है, हमें भी बहुत संघर्ष करना पड़ा।” कुछ बेबाक लोग सवाल पर सवाल करते हैं कि आखिर नेपोटिज्म कहां नहीं है। और अब इस प्रकार की तीसरी पीढ़ी भी फिल्मों में जगह बनाने लगी है।

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