चुनावी रण के बाद सन्नाटा, अब सबकी नज़र नतीजों पर
बिहार चुनाव 2025 के शोरगुल के बाद अब माहौल में सन्नाटा है। चुनाव प्रचार का कोलाहल थम चुका है, सभी तलवारें म्यान में लौट आई हैं और अब सभी राजनीतिक दल परिणाम के अनुमानों में जुट गए हैं। हर तरफ बस एक ही सवाल गूंज रहा है—कौन जीतेगा और किसकी सरकार बनेगी?
वरिष्ठ पत्रकार के रूप में यह सवाल बार-बार पूछा जा रहा है, लेकिन पत्रकारिता के गुरुओं राजेन्द्र माथुर और एसपी सिंह की सीख याद दिलाती है—“चुनाव पर कुछ भी लिखो, लेकिन परिणाम की भविष्यवाणी मत करो।” यही कारण है कि लेखक ने चार लोकसभा और पांच विधानसभा चुनाव कवर करने के बावजूद कभी परिणाम पर टिप्पणी नहीं की। इस सिद्धांत पर वे आज भी कायम हैं।
‘इंडी गठबंधन’ बिखरा, कांग्रेस-राजद की दरार हुई गहरी

इस बार का चुनाव नतीजों से पहले ही कई राजनीतिक रिश्तों को तोड़ गया। इंडी गठबंधन (INDI Alliance) के भीतर मतभेद साफ दिखे। कांग्रेस और राजद के बीच गहरे असंतोष ने गठबंधन की एकता पर सवाल खड़े कर दिए।
दोनों “राजकुमार”—राहुल गांधी और तेजस्वी यादव—साथ तो आए, लेकिन दिलों में दूरी साफ झलकती रही। बिहार की जनता इन खेलों को बखूबी समझती है। राहुल गांधी को यह भ्रम है कि कांग्रेस बिहार में शानदार प्रदर्शन करेगी, लेकिन ज़मीन पर यह केवल एक छलावा साबित होगा।
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लालू यादव का ‘मास्टरस्ट्रोक’, कांग्रेस के पंख कतर दिए
लालू प्रसाद यादव ने इस चुनाव में पर्दे के पीछे रहकर बड़ा खेल खेला। उन्होंने राहुल गांधी को बीजेपी के खिलाफ “तोप” की तरह इस्तेमाल किया, लेकिन कांग्रेस को मज़बूत होने से रोक दिया। लालू की प्राथमिकता स्पष्ट है—तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनते देखना।
कांग्रेस उनके लिए सिर्फ एक औज़ार थी, जिसे काम भर चलाने के बाद किनारे कर देना था। यही वजह रही कि उन्होंने कांग्रेस के भीतर मनमुटाव को और बढ़ने दिया।
कांग्रेस की आंतरिक कलह ने किया जनता को निराश
कांग्रेस की अंदरूनी लड़ाई ने जनता में गलत संदेश भेजा। राहुल गांधी के नज़दीकी एक बड़े नेता पर “सीट बेचने” के आरोप लगे, जो हाथापाई तक पहुंच गए। इससे पार्टी की साख बुरी तरह गिरी।
ऐसा ही एक प्रकरण दिल्ली चुनाव में अजय माकन के समय भी हुआ था, जब पैसे लेकर टिकट बांटने के आरोपों के बाद कांग्रेस बुरी तरह हारी थी। अब वही इतिहास बिहार में दोहराया जा रहा है।
ओवैसी की एंट्री से ‘पूर्वांचल समीकरण’ बदला
इस चुनाव में ओवैसी की पार्टी ने पूर्वांचल की कई सीटों पर कांग्रेस को कड़ी चुनौती दी। दिलचस्प बात यह है कि तेलंगाना में ओवैसी कांग्रेस के साथ हैं, लेकिन बिहार में उन्होंने उसी पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।
यह “गलबाहें वहां और कटार यहां” वाला राजनीतिक दृश्य कांग्रेस के लिए बेहद नुकसानदायक साबित हुआ।
राहुल गांधी का ‘वोट चोरी’ नारा हुआ फेल
राहुल गांधी अपने “वोट चोरी” वाले नारे से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। यह नारा जनता को प्रभावित नहीं कर रहा क्योंकि मतदाता अब परिपक्व हो चुका है। राहुल गांधी लगातार चुनाव हारते रहे हैं और अब उनके लिए यह नारा एक बहाना बन गया है।
कांग्रेस नेता शशि थरूर और पी. चिदंबरम जैसे वरिष्ठ नेताओं की आलोचना ने स्थिति और बिगाड़ दी। चिदंबरम ने मुंबई आतंकी हमले के वक्त कांग्रेस की “कमज़ोरी” उजागर कर दी, जिससे राहुल गांधी का “नरेन्द्र सरेंडर” नारा भी फीका पड़ गया।
युवाओं को समझ नहीं पाए राहुल गांधी
राहुल गांधी युवाओं की सोच और उम्मीदों को समझने में नाकाम रहे। वह ‘जेनजी’ (Gen Z) की बातें करते हैं, लेकिन भारतीय युवा आज आत्मनिर्भरता की राह पर है।
आज का युवा संघर्ष और मेहनत से अपनी मंज़िल पा रहा है, न कि वंशवाद से। कांग्रेस वही पार्टी है जो आरक्षण और परिवारवाद दोनों में डूबी हुई है। इसलिए भारत का युवा कांग्रेस के वादों से प्रभावित नहीं हो रहा।
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‘बूढ़ी पार्टी’ की गिरती साख और राहुल की असफल रणनीति
अब सवाल है—कांग्रेस को कितनी सीटें मिलेंगी? अब तक की रिपोर्ट्स के मुताबिक, पार्टी पिछली बार से भी कम सीटों पर सिमट सकती है।
इस पतन का कारण राहुल गांधी की असफल रणनीति है। वह न तो संगठन को मज़बूत कर पाए, न ही नए नेताओं को अवसर दिया।
उनकी राजनीति “जिम्मेदारी-मुक्त नेतृत्व” की मिसाल बन चुकी है, और यही वजह है कि कांग्रेस का जहाज़ अब डूबने के कगार पर है।
कांग्रेस के लिए कठिन राह, राहुल के लिए सीख
बिहार चुनाव 2025 के नतीजे चाहे जो भी हों, एक बात तय है—कांग्रेस का भविष्य उसके ही नेतृत्व के कारण अस्थिर है।
राहुल गांधी को अब आत्ममंथन करना होगा कि पार्टी को ‘राजघराने की परंपरा’ से निकालकर “जनता की उम्मीदों की पार्टी” कैसे बनाया जाए।
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