बिहार चुनाव: विचारों को काफ़िर करार देने की राजनीति: 7 सच्चाइयाँ जो आज भी उतनी ही भयावह हैं

आपकी आवाज़, आपके मुद्दे

4 Min Read
राजनीति में विचारों की आज़ादी और विरोधियों को काफ़िर करार देने का चलन
Highlights
  • • सच बोलने वालों को इतिहास भर में निशाना बनाया गया • सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग नई “सज़ा” बन चुकी है • बिहार चुनाव पर गलत धारणाओं का विश्लेषण • लालू यादव की राजनीति का सामाजिक प्रभाव • लोकतंत्र में असहमति की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण

काफ़िर करार देना राजनीति – इतिहास से लेकर आज तक जारी एक पुरानी प्रवृत्ति

राजनीति में किसी विचारधारा को काफ़िर, देशद्रोही, या गद्दार करार देना कोई नया चलन नहीं है।
मध्यकाल से लेकर आधुनिक भारत तक, हर दौर में ऐसा हुआ है।

यूरोप में ब्रूनो को सिर्फ इसलिए जला दिया गया क्योंकि उसने चर्च द्वारा स्थापित ब्रह्मांड संबंधी सिद्धांतों पर सवाल उठाए। ब्रूनो की मौत यह बताती है कि सत्ता अपने विरोधी विचारों को कितना क्रूर होकर कुचल सकती है।

आज भी स्थिति बहुत नहीं बदली है—बस जुल्म का तरीका बदल गया है। जहाँ पहले सच बोलने वालों को चिताओं पर जलाया जाता था, वहीं अब ट्रोल आर्मी, सोशल मीडिया लिंचिंग और करेक्टर असैसिनेशन आम तरीका बन गया है।

बिहार चुनाव: गांधी, अनलहक और वाल्तेयर—सच बोलने वालों की लंबी शृंखला

गांधी को गोली मारी गई, वाल्तेयर को ईसाई पुरोहितों ने कब्र में जगह नहीं दी, और ‘अनलहक’ कहने वाले सूफी संतों को मार डाला गया।

इतिहास गवाह है:
सच बोलने वाला हमेशा खतरे में रहता है, लेकिन सच बोलने का सिलसिला कभी रुकता नहीं।

आज के लोकतंत्र में विचारों की आज़ादी पर नए खतरे

आपके दिए कंटेंट में एक मजदूर भाई की बातों को लेकर एक पोस्ट लिखा गया था—जिसे कुछ लोगों ने अपमानजनक शब्दों से नीचा दिखाने की कोशिश की।

इस तरह का माहौल यह दर्शाता है कि:
• आज भी लोगों को मतभेद से ज़्यादा मखौल पसंद है।
• तर्क की जगह ट्रोलिंग ने ले ली है।
• विरोधी विचार रखने वालों को गाली देकर चुप कराने की संस्कृति मजबूत होती जा रही है।

लोकतंत्र का सार ही यही है कि हर कोई अपनी बात कह सके, मगर आज माहौल ऐसा बनाया जा रहा है कि लोग बोलने से पहले सौ बार सोचें।

यह भी पढ़े : https://livebihar.com/bihar-vidhansabha-satra-maithili-urdu-sanskrit-oath/

बिहार चुनाव—धांधली के दावों, आरोपों और कड़वी सच्चाइयों का विश्लेषण

आपके कंटेंट में बिहार विधानसभा चुनाव की चर्चा बेहद तर्कपूर्ण ढंग से की गई थी।
कुछ लोग “SIR” या “धांधली” की बात कर रहे हैं, जबकि भारतीय चुनाव व्यवस्था में बड़ा हेरफेर संभव ही नहीं है।

इतिहास खुद साबित करता है—
• 1971 में इंदिरा गांधी पर रूस की “अदृश्य स्याही” का आरोप लगा।
• 1995 में लालू यादव के चुनाव को धांधली बताया गया।
• 2014 में नीतीश बुरी तरह हार गए, 2020 में तीसरे नंबर पर आ गए।

अगर धांधली इतनी ही आसान होती, तो हर चुनाव का परिणाम एक जैसा क्यों नहीं होता?

हां, चुनाव से पहले पैसे बांटना गलत था—इसकी आलोचना भी जरूरी है।
लेकिन बड़े आरोप तथ्यों पर नहीं, मनगढंत कथाओं पर टिके हैं।

Do Follow us. : https://www.facebook.com/share/1CWTaAHLaw/?mibextid=wwXIfr

लालू यादव और सामाजिक न्याय की राजनीति—जमीनी हकीकत

बिहार चुनाव: विचारों को काफ़िर करार देने की राजनीति: 7 सच्चाइयाँ जो आज भी उतनी ही भयावह हैं 1

कंटेंट में सबसे प्रखर बात यह थी कि कैसे बिहार में सामाजिक न्याय की राजनीति समय के साथ वर्चस्ववादी राजनीति में बदल गई।

लालू प्रसाद ने एक समय सामाजिक न्याय के लिए बड़ी भूमिका निभाई थी, लेकिन धीरे-धीरे समर्थकों और जातियों को सत्ता का अहंकार दे दिया।
नतीजा—
• दलित–पिछड़े उनसे दूर हुए
• सामाजिक न्याय का आदर्श धुंधला हो गया
• महागठबंधन खुद अंदर से कमजोर हो गया

यह चुनाव उसी बदलाव का परिणाम है।

लोकतंत्र की रक्षा सच बोलने से होती है, चुप रहने से नहीं

आपका दिया हुआ कंटेंट अंत में जिस बात पर ज़ोर देता है, वह लोकतंत्र की सबसे बड़ी सच्चाई है—
कायरता सच बोलने से रोकती है, लेकिन सच बोलने वाले कभी नहीं रुकते।

यह पंक्ति सिर्फ एक विचार नहीं, बल्कि लोकतंत्र का सार है।

Do Follow us. : https://www.youtube.com/results?search_query=livebihar

Share This Article