रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की प्रस्तावित नई दिल्ली यात्रा से ठीक पहले अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में एक असहज स्थिति पैदा हो गई है। फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन के राजदूतों द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित एक लेख को लेकर भारत ने कड़ा एतराज जताया है। इस संयुक्त लेख में राष्ट्रपति पुतिन पर यूक्रेन में शांति प्रयासों को रोकने का आरोप लगाया गया, जिसे भारतीय विदेश मंत्रालय ने असामान्य और कूटनीतिक मर्यादाओं के विरुद्ध करार दिया है।
India-Yurope- भारत ने क्यों जताई आपत्ति?
फ्रांस के राजदूत थियेरी मथू, जर्मनी के राजदूत फिलिप अकरमैन और ब्रिटेन की राजदूत लिन्डी कैमरन ने एक प्रमुख भारतीय अख़बार में संयुक्त रूप से लेख लिखा। इस लेख में उन्होंने कहा कि दुनिया युद्ध के अंत की अपेक्षा कर रही है, लेकिन रूस इस दिशा में गंभीर नहीं दिख रहा।
लेख में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस बयान का भी हवाला दिया गया जिसमें उन्होंने कहा था कि समाधान युद्धभूमि पर नहीं मिलेगा। इसी संदर्भ को जोड़ते हुए रूस की भूमिका पर तीखा सवाल खड़ा किया गया।

इस पूरे घटनाक्रम पर विदेश मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों ने स्पष्ट रूप से कहा कि किसी तीसरे देश के राष्ट्राध्यक्ष की भारत यात्रा से पहले इस प्रकार की सार्वजनिक टिप्पणी कूटनीतिक संवेदनशीलता के खिलाफ है। अधिकारियों ने यह भी कहा कि भारत ने इस घटनाक्रम को “गंभीरता से नोट” किया है।
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India-Yurope: कूटनीतिक आचार संहिता और वियना कन्वेंशन का उल्लंघन?
अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की मूल भावना स्पष्ट रूप से कहती है कि किसी देश में तैनात राजदूत उस देश की संवेदनशील विदेश नीति या द्विपक्षीय संबंधों में सार्वजनिक हस्तक्षेप नहीं करते। 1961 की वियना राजनयिक संधि भी यही निर्देश देती है कि मेज़बान देश की राजनीतिक प्रक्रियाओं में अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।
तीनों यूरोपीय राजदूतों का यह संयुक्त लेख न केवल भारत-रूस संबंधों से जुड़ी संवेदनशीलता को प्रभावित करता है, बल्कि यह एक प्रकार की ऐसी सार्वजनिक कूटनीति बन जाती है जो वार्ता के माहौल को ही बाधित कर सकती है।
यूक्रेन युद्ध के बाद भारत का संतुलित रुख
यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद पश्चिमी देशों ने रूस को वैश्विक स्तर पर अलग-थलग करने का प्रयास किया। लेकिन भारत ने अपने दीर्घकालिक सामरिक हितों, ऊर्जा सुरक्षा और वैश्विक संतुलन को ध्यान में रखते हुए रूस के साथ संवाद और व्यापार को जारी रखा।
यही वजह है कि यूरोपीय देशों के भीतर समय-समय पर यह असंतोष दिखता रहा है कि भारत उनके रणनीतिक रुख से अलग अपनी स्वतंत्र विदेश नीति पर चलता रहा है।
सवाल यह भी—भारत को ही क्यों चुना गया?
एक बड़ा सवाल यह भी उठता है कि राष्ट्रपति पुतिन इससे पहले भी कई देशों की यात्रा कर चुके हैं, लेकिन वहां मौजूद यूरोपीय राजदूतों ने ऐसा कोई संयुक्त लेख प्रकाशित नहीं किया। फिर भारत में ही यह कदम क्यों उठाया गया?
विशेषज्ञ मानते हैं कि इसका सीधा संबंध भारत की बढ़ती वैश्विक हैसियत, ग्लोबल साउथ में नेतृत्व और ऊर्जा संतुलन की निर्णायक भूमिका से जुड़ा है। यूरोपीय देश जानते हैं कि आज भारत की रूस नीति वैश्विक समीकरणों को प्रभावित करने की क्षमता रखती है।
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भारत के लिए आगे की कूटनीतिक चुनौती
इस पूरे विवाद के बीच भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि रूस के साथ उसकी ऐतिहासिक रणनीतिक साझेदारी किसी भी बाहरी दबाव से प्रभावित न हो। साथ ही एक मेज़बान देश के रूप में यह संदेश भी साफ़ देना ज़रूरी है कि कूटनीतिक मर्यादाओं का उल्लंघन स्वीकार नहीं किया जाएगा।
विदेश मंत्रालय द्वारा औपचारिक वार्ता या सख़्त शब्दों में आपत्ति दर्ज करना एक संतुलित कदम माना जा सकता है, जिससे न तो विवाद बढ़े और न ही भारत की स्थिति कमजोर पड़े।
भारत की वैश्विक छवि और निष्पक्ष मध्यस्थ की भूमिका
भारत ने हमेशा यह स्पष्ट किया है कि वह किसी भी युद्ध का समर्थक नहीं है और संवाद से समाधान में विश्वास रखता है। यही वजह है कि भारत की छवि आज एक निष्पक्ष, संतुलित और भरोसेमंद वैश्विक शक्ति के रूप में बनी है।
यूरोपीय राजदूतों का यह लेख इसी संतुलन को प्रभावित करने की कोशिश जैसा देखा जा रहा है, जिसे भारत ने समय रहते गंभीरता से लिया है।
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