Vande Mataram 7 अहम पहलू: वंदे मातरम विवाद पर संसद में 10 घंटे की बहस—इतिहास, राजनीति और विचारधारा की पूरी कहानी

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संसद में वंदे मातरम पर हुई 10 घंटे की बहस

भारत की संसद में उन्नीसवीं सदी में लिखे गए एक गीत ‘वंदे मातरम’ को लेकर 10 घंटे की ऐतिहासिक बहस चली। यह बहस केवल एक गीत को लेकर नहीं थी, बल्कि इसके पीछे छिपे इतिहास, संघर्ष, विचारधाराओं और समय-समय पर बदलते भारतीय दृष्टिकोण को लेकर थी। आपके दिए गए पूरे संदर्भ को आधार बनाते हुए नीचे इसका विस्तृत, स्पष्ट, आसान और SEO-अनुकूल विश्लेषण प्रस्तुत है।

वंदे मातरम का जन्म और राष्ट्रीय आंदोलन में इसकी धड़कन

वंदे मातरम वह गीत है जिसे बंकिमचंद्र ने 1875 में लिखा और 1882 में प्रकाशित अपने उपन्यास ‘आनंदमठ’ में शामिल किया। गीत की पहली पंक्ति ‘वंदे मातरम’ जल्द ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नारा बन गई। न जाने कितने स्वतंत्रता सेनानी इस उद्घोष के साथ जेल गए, कोड़ों से पीटे गए और फांसी के फंदों पर चढ़ गए। यह इसकी सच्चाई और ताकत का एक पहलू है, जो इसे भारत की आत्मा से जोड़ता है।

ब्रिटिश शासन, दो बड़ी लड़ाइयाँ और ‘पराक्रम’ की बहस

संदर्भ के अनुसार भारत में ब्रिटिश शासन की शुरुआत 1757 के प्लासी युद्ध से होती है, जहाँ सिराजुदौला की सेना ईस्ट इंडिया कंपनी से पराजित हो जाती है। इसके 61 साल बाद 1818 के भीमा-कोरेगांव युद्ध में कंपनी ने पेशवा सेना को हराया।

परंपरागत इतिहास दोनों युद्धों को भारत की बहादुर जातियों—मुस्लिम योद्धाओं, मराठों और ब्राह्मण पराक्रम—की हार के रूप में बताता है। लेकिन आपके दिए डेटा के अनुसार, यह केवल आधा सच है।

दोनों जगह अंग्रेजों का नेतृत्व था, पर सेना मुख्य रूप से दलित जातियों के लोगों की थी।
• प्लासी में: दुसाध समुदाय
• भीमा कोरेगांव में: महार समुदाय

फुले और आंबेडकर ने इन लड़ाइयों को दलित पराक्रम का प्रतीक बताया—एक ऐसा दृष्टिकोण जो पारंपरिक ‘मार्शल रेस’ की धारणा को चुनौती देता है।

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Vande Mataram: औपनिवेशिक इतिहास को देखने की अलग-अलग दृष्टियाँ

राष्ट्रवादी इतिहास ने प्लासी को सिराजुद्दौला की पराजय के रूप में दिखाया, मानो यह भारतीयता की हार थी। लेकिन समाज सुधारक फुले, बंकिम, आंबेडकर, और मार्क्स जैसी शख्सियतों ने ब्रिटिश शासन को एक ऐसे युग परिवर्तन के रूप में देखा जिसने सदियों से दबी जातियों और समुदायों को थोड़ा स्पेस दिया।

उनके अनुसार, ब्रिटिश राज आने से पहले देश के शासक असरफ मुसलमान और द्विज हिन्दू थे।
इनके पतन को दबे हुए तबकों ने मुक्ति के रूप में देखा—चाहे वह बंगाल हो या महाराष्ट्र।

‘आनंदमठ’ की कहानी और अंग्रेजों को ‘मित्र’ बताने का सवाल

उपन्यास आनंदमठ मुस्लिम शासन के विरुद्ध हुए सन्यासी विद्रोह पर आधारित है।
अंत में, एक ‘दिव्य पुरुष’ कहता है—

अंग्रेज मित्र राजा हैं। उनसे अभी संघर्ष न करो।

यह बंकिम की सोच थी, जबकि महाराष्ट्र में तिलक इसके बिल्कुल उलट अंग्रेज-विरोधी थे।

यही अंतर्विरोध बाद में कांग्रेस में मॉडरेट बनाम रेडिकल के रूप में भी देखने को मिला।

Vande Mataram: भारतीय राष्ट्रवाद में जाति, धर्म और विचारधाराओं का टकराव

आपके डेटा के अनुसार:
• कुछ राष्ट्रवादी अंग्रेजों के जाने के बाद फिर से मुस्लिम शासन या पेशवा शासन लौटने की संभावना देखते थे।
• सावरकर ने अपनी किताब में 1857 के विद्रोह को मुस्लिम-पेशवा गठबंधन का रूप बताया।
• फुले और आंबेडकर ने ब्रिटिश शासन में दलितों को राहत देखी।
• बंकिम ने इसे हिन्दुओं की मुक्ति का मार्ग माना।

ये सभी दृष्टियाँ एक बड़े सामाजिक प्रश्न की ओर इशारा करती हैं—

कौन-सा भारत सही है? वह भारत जो सिर्फ धार्मिक पहचान से देखता है, या वह भारत जो जाति और सामाजिक संरचना को भी समझता है?

गांधी, नेहरू और राष्ट्रीय आंदोलन का आधुनिक स्वरूप

गांधी और नेहरू ने भारतीय राष्ट्रवाद को आधुनिक रूप देने की कोशिश की।
बाद में इसमें फुले और आंबेडकर की सोच को भी शामिल किया गया—
जहाँ ब्राह्मणवादी और इस्लामी दोनों प्रकार की दकियानूसी सोच पर प्रश्न उठाया गया।

आपके डेटा के अनुसार—

यदि कोई ब्राह्मणवाद की आलोचना तो करता है पर इस्लामी पाखंड पर चुप रहता है, या इसके उलट—तो यह पाखंड है।

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अब संसद में वंदे मातरम पर बहस का मतलब क्या?

सवाल यही है—

वंदे मातरम संविधान सभा द्वारा स्वीकार राष्ट्रगीत है।
फिर इसे संसद में बहस का विषय क्यों बनाया गया?

यदि इसका विरोध होता है तो वह संविधान का विरोध है और उसके परिणाम होने चाहिए।

लेकिन यदि विमर्श करना है, तो वह संसद की तंग दीवारों में नहीं,
बल्कि इतिहास के विद्वानों की उपस्थिति में होना चाहिए—ताकि अनछुए आयाम सामने आएँ।

Vande Mataram: बराबरी, भाईचारा और भारत का भविष्य

आपके डेटा का अंतिम संदेश यही कहता है—
2014 में बिहार में प्रधानमंत्री ने कहा था:

“हिन्दू और मुसलमान लड़ेंगे, या मिलकर गरीबी से लड़ेंगे?”

आज भी यही सबसे आवश्यक बात है—
राष्ट्र निर्माण, समानता, भाईचारा और सामाजिक एकजुटता।

किसी भी नए विवाद या विभाजन की राजनीति से देश को नुकसान ही होगा।

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