बिहार की नुसरत और बुर्के वाली रूबीन

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शंभूनाथ शुक्ल
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा एक मुस्लिम महिला आयुष चिकित्सक नुसरत का नक़ाब खींचने का वीडियो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रहा है। किसी भी परदानशीं महिला का बुर्का, घूँघट या हिज़ाब उठाना सही नहीं कहा जा सकता। निश्चय ही नीतीश कुमार जैसे संजीदा राजनेता द्वारा किसी महिला का बुर्का खींचने की वजह उसको अपमानित या बेपरदा करने की नहीं रही होगी। फिर भी किसी महिला का बुर्का हटाने को सही तो नहीं कहा जा सकता। इतने उच्च पद पर आसीन एक राजनेता को महिला की अस्मिता और उसकी शर्म, लिहाज़ को बनाये रखना था। बुर्का, घूँघट और हिज़ाब समाज में एक महिला की अस्मिता और उसकी प्राइवेसी के प्रतीक हैं। अगर वह परदा करती है तो उसके परदे का सम्मान करना चाहिए। ठीक उसी तरह जैसे कोई पुरुष किसी महिला की तलाशी नहीं ले सकता, यह क़ानूनन जुर्म है। भले वह पुरुष उसका पिता, भाई, बेटा और यहाँ तक कि उसका पति ही क्यों न हो। इसे उस महिला की निजता का उल्लंघन ही माना जाएगा।

बुर्के के पीछे की सजल आँखें!
ऐसे विवाद के वक़त मुझे एक मुस्लिम ख़ातून रूबीन की याद आती है। रूबीन नाम की वह महिला मुझे त्रिवेंद्रम राजधानी एक्सप्रेस में मिली थी। कोविड के कुछ महीने पहले मैं त्रिवेंद्रम राजधानी एक्सप्रेस की एसी फ़र्स्ट क्लास से उडुपी जा रहा था। साथ में मेरे एक मित्र भी थे। निज़ामुद्दीन रेलवे स्टेशन से ट्रेन जैसे ही आगे बढ़ी हमारे केबिन में एक मुस्लिम जोड़ा आ गया। वे लोग सऊदी अरब से आ रहे थे। पति दुबला-पतला और उसके चेहरे पर दाढ़ी थी। जबकि बीवी ख़ूब खाते-पीते घर की लग रही थी, पर उसने अपने बदन पर बुरक़ा इस तरह से लपेट रखा था, कि बस उसकी दो सजल आँखें ही दिख रही थीं। उनका दो बर्थ वाला कूपा दूसरा था, लेकिन वहाँ कोई और सवारी सो रही थी, अत: वे हमारे चार बर्थ वाले कूपे में आ गए।

बुर्का के पीछे का आत्म विश्वास
हमारे यहाँ दो बर्थ ख़ाली थीं। उस बुरक़े वाली स्त्री ने बताया कि उसके अपने कूपे में लेटे मियाँ-बीवी ने कहा है, कि वे लोग कोटा उतर जाएँगे, इसलिए वह इधर आ गई। वह मेरी बर्थ पर मेरे बग़ल में बैठ गई और पति मित्र की बर्थ पर। स्त्री की गोद में एक साल का प्यारा-सा बच्चा था। कुछ देर की हिचक के बाद महिला ने हमसे पूछा, कि हम कहाँ जा रहे हैं? हमारे उडुपी बताने पर वह ख़ुश हुई और बोली, हम उडुपी के अगले स्टेशन मंगलौर उतरेंगे। मैने पूछा कहाँ के रहने वाले हैं? महिला ने बताया कि मैं मंगलोरियन हूँ और ये चेन्नई के। फिर तो उसने बातचीत का ज़रिया ही खोल दिया। बताने लगी, कि मेरी तीन बहनें हैं। जबकि ये दो भाई। जेठ सरकारी नौकरी में हैं और जेठानी कॉलेज में पढ़ाती है। वे सब चेन्नई में रहते हैं। अपने बारे में बताया कि हम उडुपी के करीब कुंडापुर के हैं। उसने भले बुरक़ा पहन रखा हो पर मुझसे बात करने में उसे झिझक नहीं थी।

‘सास और जेठानी बुर्का नहीं ओढ़तीं’
मैंने पूछा कि तुम कितने साल से सऊदी में हो? बोली- तीन साल से। ‘तब तो तुम्हें तो सऊदी बोली यानि कि अरबी आती होगी?’ मेरे सवाल पर वह बोली- “बस थोड़ी-थोड़ी समझ लेती हूँ” फिर सीखी क्यों नहीं? मैंने आगे पूछा, तो उसका जवाब था कि मुझे हिंदुस्तानी बोली और हिंदुस्तान पसंद है। मैं अरबी सीखूँगी भी नहीं। उसने बताया कि सऊदी में बुरक़ा अनिवार्य है और वहाँ औरतें अकेले घर से नहीं निकल सकतीं। मैंने कहा कि इस तरह का बुरक़ा पहनना वहीं सीखा? बोली नहीं, हमारे अब्बू बुरक़े के पाबंद हैं। जबकि ससुराल में न सास पहने न जेठानी। इतना कहते हुए उसने चेहरे से नक़ाब उतार दिया। गेहुँआ रंग और सुतवाँ नाक! वह सुंदर महिला थी। उसने बताया कि उसका नाम रूबीन है। पति का नाम अब्दुल्लाह। जो एक साल का बच्चा उसकी गोद में था, उसका नाम उसके पति ने फ़ातिमा रखा है, लेकिन रूबीन ने उसमें अयान और जोड़ा है।

आप लोग अपनी बीवियों को क्यों नहीं लाए?
रूबीन ने यह भी बताया कि अयान इसलिए जोड़ा ताकि आगे चलकर बच्ची अगर माँ से पूछे, कि तुमने मेरा पुराना जैसा नाम ‘फातिमा’ क्यों रखा तो वह उसे बता देगी कि ‘अयान’ तो मॉडर्न नाम है। बोली, ‘यह नाम पढ़े-लिखे मुस्लिम भी रखते हैं, हिंदू भी और ईसाई भी’। फिर उसने हम लोगों का नाम पूछा। नाम के आगे शुक्ला सुन कर वह कहने लगी कि क्या हमारी तरफ़ जो शिनॉय होते हैं, वही यूपी में शुक्ला हो गए! उसकी यह व्याख्या अच्छी लगी। “आप लोग अपनी बीवियों को लेकर क्यों नहीं आए?” अचानक उसने धमाकेदार सवाल किया। उसे यह समझाने में काफी दिक्कत हुई, कि हम लोग अपनी बीवियों को लेकर क्यों नहीं आए। उसने यह भी पूछा कि हमारे कितने बच्चे हैं? मैंने बताया कि तीन बेटियाँ हैं। और उनके भी बच्चे हैं। बच्चों की फ़ोटो मांगी पर फ़ोटो तो मेरे पास थी नहीं।

सुबह वह कर्नाटकी साड़ी में आई
उसके पास बातों की कमी नहीं थी। तब तक कोटा आ गया और वे दोनों पति-पत्नी अपने ‘जी’ केबिन में चले गए और ‘एफ’ में हम अकेले रह गए। लेकिन जाते-जाते वह कह गई, कि जब भी आप लोग बोर हों, हमारे केबिन में आ जाइएगा। और मैं बोर हुई तो आप लोगों के पास आ जाऊँगी। शाम को वह बच्ची को लेकर आई। अब वह बुरक़ा नहीं पहने थी। उसने साड़ी पहन रखी थी, एकदम कर्नाटकी अंदाज में। बोली- पसंद तो मुझे साड़ी ही है। लेकिन बुरक़ा पहनना ही पड़ता है। उसने कहा कि आप लोगों की तरफ़ अच्छा है। वहाँ मुसलमान औरतों पर बुरक़े की पाबंदी नहीं है। जो मन आए पहनो। मगर हमारे साउथ में इतना खुलापन नहीं है। मैंने कहा कि नार्थ इंडिया में अधिकतर मुसलमान पहले हिंदू थे, बाद में वे कन्वर्ट होकर मुसलमान बने हैं। इसलिए पहरावे, रीति-रिवाज और जाति-बिरादरी में वे हिंदू जैसे ही हैं।

पेड़े खा कर बच्ची परक गई!
कोटा के बाद हमारी त्रिवेन्द्रम एक्सप्रेस ट्रेन वडोदरा आकर रुकी। रात पौने 11 बज़ रहे थे। वडोदरा स्टेशन पर हमारे एक अन्य मित्र कई पैकेट गुजराती नमकीन के तथा खूब घोंटे गए खोये के पेड़े लेकर हमारे केबिन में आ गए। ट्रेन दस मिनट तक वहाँ रुकती है, तब तक वे हमारे साथ ही रहे। अगले रोज़ सुबह नाश्ते के बाद रूबीन अपनी बच्ची फातिमा अयान को लेकर हमारे केबिन में आई। आज उसने बुरका तो पहन रखा था, लेकिन चेहरा और सिर खुला हुआ था। उसने बताया, कि उसके कूपे में चूंकि हम दो लोग ही हैं, इसलिए यह भी कब तक अपनी ममा और डैडी का चेहरा देखे! रात भर ये रोती रही। मैं इसके डैडी के पाँव दबाने लगी, तो इसने रोना शुरू कर दिया। हमने बच्ची को पेड़े खिलाए और उसे भी दिए। पेड़े खाकर बच्ची भी हमसे परक गई। और वह हमारी गोद में आ गई।
रूबीन को भी पेड़े खूब स्वादिष्ट लगे, और दो पेड़े वह अपने पति के लिए भी ले गई। वह सऊदी अरब के बारे में चाव से बताती रही। उसने हमसे कहा, कि आप लोग वहाँ आइएगा, लेकिन बिजिनेस वीज़ा लेकर ही। क्योंकि वहाँ टूरिस्ट वीज़ा बहुत मुश्किल से मिलता है। वहाँ तो सिर्फ हज करने वाले जा सकते हैं। मैंने पूछा कि यह बच्ची तो सऊदी में पैदा हुई होगी? बोली- नहीं, जब यह होने वाली थी, तब मैं हिंदुस्तान आ गई थी। डिलीवरी मायके में हुई। यूं भी मैं नहीं चाहती कि हमारी बेटी सऊदी की औलाद कहलाए। उसने यह भी बताया कि वैसे वहाँ पर अगर हम करीब एक करोड़ रूपये दे दें तो हमें सऊदी का ग्रीन कार्ड मिल सकता है। पर हम लेंगे नहीं, क्योंकि इतना रुपया दें, फिर वहाँ की नागरिक सुविधाएं हम हासिल नहीं कर सकते। सऊदी कोई अच्छा मुल्क नहीं है। बहुत भेद-भाव होता है, हमारे साथ। मगर पेट के वास्ते वहाँ पड़े हैं।

रूबीन ने हमें शृंगेरी जाने का सुझाव दिया
अब हमारी ट्रेन कोंकण रेलवे के रूट पर चल रही थी। ट्रेन रत्नागिरि पार कर चुकी थी। दोनों तरफ सह्याद्रि की पहाड़ियाँ, जंगल, झरने और उफनाती नदियां थीं। इनको निहारते हुए रूबीन बोली- सऊदी में हम इस हरियाली को तरस जाते हैं। उसकी आँखों में अपनी धरती और अपने लोगों के लिए प्यार उमड़ता स्पष्ट दीख रहा था। रूबीन इस्लाम पंथ की अनुयाई थी, लेकिन कट्टरता उसमें नहीं थी। उसे हरीतिमा से प्यार था, उसे संगीत से प्यार था और गाने-बजाने से भी। उसे हिंदुस्तान से प्यार था और हिन्दू धार्मिक रीति-रिवाजों से भी। उसने हमसे बार-बार कहा, कि आप जब अगुम्बे जाएँ तो शृंगेरी स्थित शारदा पीठ पर जाएँ और शंकराचार्य से भी मिलें। उसने बताया, कि यह मठ आदि शंकराचार्य ने ही बनवाया था, इसलिए आप लोग जरूर जाएँ।

उदास रूबीन ने अपनी चिंता जतायी
फिर वह चली गई। शाम को रूबीन फिर आई, और उसने बताया, कि वे लोग भी उडुपी ही उतर रहे हैं। क्योंकि ट्रेन बहुत लेट हो चुकी है। उसने कुंडापुर से अपने मायके वालों को बुलवा लिया है। वह अपने साथ खजूर के बिस्किट्स लाई थी। उसने कहा, कि ये खाएं। सऊदी के हैं। बिस्किट्स स्वादिष्ट थे। उसने हमसे कहा, कि रात हो रही है। आप लोग उडुपी ही रुक जाएँ, क्योंकि अगुम्बे का रास्ता घाट (चढ़ाव-उतराव) का है। ऊपर से कोबरा और लीच (जोकों) से भरा जंगल। हमने हामी भरी। रात करीब आठ बजे उसने हमारे केबिन का दरवाजा खोलते हुए कहा- जल्दी सामान पैक करिए, ट्रेन यहाँ कुल दो मिनट रुकेगी। अब तक ट्रेन में सफर करते हुए 33 घंटे हो चुके थे। हमने सामान बटोरा और अटेंडेंट को बुलाकर सामान उतरवाया।

ख़ुदा हाफ़िज़ रूबीन
नीचे दो-तीन खातूनें बुरके में खड़ी थीं, और एक दाढ़ी वाले बुजुर्गवार भी। एक लड़का भी उनके साथ था। मैंने मित्र से कहा, कि अभी रुकें। कम से कम रूबीन और उसकी बेटी फातिमा अयान से बॉय-बॉय तो कर लें। फिर से पूर्ववत पूरे शरीर को बुरके से ढके रूबीन उतरी। अब उसके बुरके से बस दो आँखें ही चमक रही थीं। वह अयान को गोद में लिए थी। हमने अयान को बॉय कहा, तो रूबीन बोली- “अल्लाह-हाफ़िज़!” और उन बुजुर्गवार, जो उसके पिता थे, से मिलवाया। लेकिन परदेश से आए अपने दामाद की खातिर-तवज्जो में लगे उन बुजुर्गवार ने हमारे “ख़ुदा-हाफ़िज़!” कहने पर बस हाथ हिला दिया। रूबीन के जाने के बाद मैं उदास मन से स्टेशन से बाहर आया और एक टैक्सी ले कर हम लोग वहाँ से 28 किमी दूर अगुम्बे की तरफ़ चल दिए।
बुर्का किसी की अस्मिता भी हो सकती है
रूबीन एक बात तो स्पष्ट कर गई कि परदे को पिछड़ेपन का प्रतीक मानने वाले लोग परदे के पीछे स्त्री के आत्म विश्वास को नहीं समझ पाते। इस्लाम में परदे की ज़रूरत स्त्री को बतायी गई है पर उसे अपरिहार्य नहीं कहा गया। दुनिया के तमाम मुस्लिम मुल्कों की स्त्रियाँ भी बुर्का नहीं पहनतीं न हिज़ाब लगाती हैं। हिंदू स्त्रियाँ तो लगभग घूँघट से आज़ाद हैं। पर यह सब कुछ स्त्री की निजी इच्छा से जुड़ा हुआ है। किसी मुस्लिम स्त्री का बुर्का खींचना या हिंदू स्त्री को घूँघट उठाने को विवश करना सही नहीं है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की मंशा भले पिता जैसी हो लेकिन उसका बुर्का खींचना तो उचित नहीं कहा जा सकता। बुर्के के अंदर रह कर भी कोई महिला आत्म विश्वास बनाये रख सकती है। बुर्का उसकी अस्मिता है, उसका सम्मान करना चाहिए।

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