उस सुबह कुछ अलग था।
कमरे में वही पुराना आईना था, वही चेहरा—पर नजर ठहर गई।
वह रोज की तरह टाई बांध रहा था कि आईने ने अचानक कहा—
“आज कौन सा चेहरा पहन रहे हो ?”
उसके हाथ रुक गए।
मुस्कुराया, खुद को समझाया—थकान है, वहम है।
आईने ने दोबारा पूछा—
“जो बाहर ले जा रहे हो, क्या वही असली है ?”
वह खामोश रहा।
आईना साफ था, पर भीतर धुंध फैलने लगी।
उसे याद आया—
कल बॉस के सामने दबी हुई आवाज़,
घर में बच्चों पर चिड़चिड़ापन,
दोस्त के दुख पर जल्दी बदल दिया गया विषय।
आईना बोला—
“तुम बहुत सफल दिखते हो, पर खुश कब थे—याद है ?”
उसे जवाब नहीं मिला।
घड़ी टिक-टिक कर रही थी।
आईना आगे झुका—
“तुम हर रोज कुछ न कुछ छुपा कर निकलते हो।
कभी डर, कभी सच, कभी खुद को।”
वह अब नजरें नहीं मिला पा रहा था।
आईना धीरे से बोला—
“एक दिन चेहरा बूढ़ा हो जाएगा,
तब तुम किसके सहारे पहचानोगे खुद को?”
उसने टाई खोल दी।
पहली बार खुद को देखा—बिना भूमिका, बिना तैयारी।
आईना फिर चुप हो गया।
वह देर से ऑफिस पहुंचा,
पर कई सालों बाद
खुद के करीब।
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