ऋतुराज सिन्हा
(राष्ट्रीय मंत्री, भाजपा )
एक थीं देवी अहिल्या, जिनका प्रभु श्रीराम ने उद्धार किया था। वह साध्वी थीं। देवी अहिल्या का वर्णन रामचरितमानस में आता है। और, दूसरी थीं पुण्यश्लोका अहिल्याबाई होलकर, जो महारानी होकर भी अपने प्रजा-प्रेम के कारण मातोश्री कही जाती हैं। पुश्यश्लोक मातोश्री अहिल्याबाई होलकर आज से 300 वर्ष पूर्व जन्म लेकर अपने कर्मों के कारण आज भी जानी जाती हैं। यह देश का दुर्भाग्य रहा है कि वह अनुकरणीय आदर्श प्रतीकों को भूलता हुआ आगे बढ़ता गया। 31 मई को मातोश्री अहिल्याबाई होलकर की 300वीं जयंती मनाई गई। मैं भी ऐसे अनुकरणीय आदर्श व्यक्तित्व को भुलाए जाने के दौर में ही पढ़ा-लिखा हूं। लेकिन, अब जब उनकी चर्चा इतनी तेज हो रही है तो मैंने कई दिनों तक यह समझने की कोशिश की कि आखिर 300 साल पहले जन्म लेने वाली अहिल्याबाई होलकर को पुण्यश्लोक, मातोश्री, लोकमाता जैसी उपाधियां क्यों दी जाती हैं?
सामान्य परिवार की एक महिला का अवतार बन जाना
महाराष्ट्र के अहमदनगर में चौंडी गांव के किसान मानकोजी शिंदे के घर 31 मई 1725 को अहिल्याबाई का जन्म हुआ था। सौम्य-शांत होते हुए भी बचपन में ही उनका तेज ऐसा था कि मराठा मालवा के राजा मल्हारराव ने अपने पुत्र खंडेराव के विवाह का प्रस्ताव दिया और 1733 में बाल विवाह हो गया। किसान की नाबालिग बेटी का एक राज-परिवार में विवाह होने से उनका बहुत कुछ बदल गया था। जवान होने पर खंडेराव ने राजकाज संभाला। अहिल्याबाई ने भी राजकाज में रुचि लेना प्रारंभ किया। वे युद्ध कौशल सीखते हुए युद्ध-सामग्री का प्रबंधन देखने लगीं। एक युद्ध के दौरान 1755 में पति के निधन पर परंपरा अनुसार वह सती होना चाहती थीं, लेकिन ससुर मल्हारराव ने उनके कौशल को देखते हुए प्रजा का ध्यान दिलाया। बचपन में जो तेज उनके अंदर दिखा था, वह दु:ख की इस घड़ी में बिखरने की जगह निखरता गया। ससुर से उन्हें राजकाज और युद्ध-कौशल सीखने को मिला, लेकिन फिर 1766 में ससुर मल्हारराव और अगले साल बीमार इकलौते बेटे पालेराव का निधन हो गया। इसके बाद अहिल्याबाई ने राजकाज संभालते हुए प्रजा को ही संतान मान लिया और सेवा को ही जीवन। इस दौरान उन्होंने इकलौती बेटी मुक्ताबाई की शादी भी डाकुओं का अंत करने वाले एक वीर जवान से की। ईश्वर भी अहिल्याबाई परीक्षा लेने पर उतारू थे। उनके नाती की बीमारी से मौत हो गई और फिर दामाद की भी। बेटी सती हो गई। मतलब, एक-एक कर परिवार में जुड़ा हर कोई दुनिया से चला गया। विरक्ति का दौर स्वाभाविक था, लेकिन प्रजा के प्रति कर्तव्य से वह डिगी नहीं।
स्त्री-शक्ति को युद्ध कौशल से जोड़ा
अहिल्याबाई होलकर स्त्री-शक्ति और स्त्री-सम्मान के लिए विख्यात थीं। उन्होंने नदियों के घाट पर महिलाओं के स्नान की अलग व्यवस्था की। अपने राजकाज के दौरान लड़कियों की शिक्षा पर बल दिया और बताया कि स्त्रियां पुरुषों से कम नहीं हैं। अपनी बातों को साबित करते हुए उन्होंने महिलाओं को युद्ध-प्रशिक्षण देकर सेना में शामिल कराया। उनकी स्त्री सेना रण-व्यूह की रचना में सक्षम थी। आज जब देश ने दो महिला सेनानायकों को ऑपरेशन सिंदूर की सफलता के बारे में जानकारी देते हुए देखा तो अहिल्याबाई होलकर का विजन मानो आगे बढ़ता दिखा। आज देश में तीन तलाक जैसी स्त्री-विरोधी परंपरा को खत्म किए जाने पर इतना गतिरोध हुआ, तो यह भी जानने लायक बात है कि करीब 250 साल पहले निःसंतान विधवाओं की संपत्ति जब्त करने के कानून को खत्म कर अहिल्याबाई होलकर अजर-अमर हो गई थीं।
समानता की फिलॉसफी और कुशल प्रशासक के गुणों से भरी रानी
ब्रिटिश इतिहासकार जॉन की ने अहिल्याबाई होलकर को ‘द फिलॉसफी क्वीन’ लिखा। उनकी फिलॉसफी सचमुच उन्हें अलग करती है। एक बार एक बछड़े को कुचलते हुए उनके इकलौते बेटे का काफिला निकल गया था। इसपर उन्होंने आदेश दिया था कि उसी तरह से उसे भी कुचल दिया जाए। कोई सारथी यह आदेश मानने को तैयार नहीं हुआ तो अहिल्याबाई खुद रथ पर सवार हो गईं। दैवीय घटना हुई कि जिस गाय के बछड़े की मौत हुई थी, वही उस रथ का रास्ता रोके अड़ी रही। अंतत: मंत्रियों ने उन्हें समझाया कि गाय भी अड़ी हुई है कि अब किसी और की संतान का इस तरह मौत न हो। राजबाड़ा की इस जगह को आज सभी लोग आड़ा बाजार के नाम से जानते हैं।
जन-हानि बगैर युद्ध में जीत, जन-संवाद से विकास की नीति
एक बार उनके शत्रु दादा राघोबा ने हमले की पूरी तैयारी कर ली थी तो मातोश्री अहिल्याबाई ने उन्हें चिट्ठी भिजवाई कि ‘मेरी स्त्री सेना तैयार है। अगर आप जीते तो भी महिलाओं से जीतेंगे और हार गए तो स्त्रियों से हार का अपमान मिलेगा।’ इस संदेश का अर्थ समझते राघोबा को देर नहीं लगी और इस तरह अहिल्याबाई ने अपने शत्रु को बिना हराए ही नियंत्रित कर लिया। उस जमाने में जब राजे-रजवाड़े सीधे आदेश जारी किया करते थे। अहिल्याबाई होलकर जन-संवाद करती थीं, ताकि प्रजाजनों की समस्याएं सीधे उनतक पहुंचे। उन्हें ‘लोकमाता’की उपाधि किसी व्यक्ति विशेष ने नहीं दी, बल्कि प्रजा-हित में उठाए कदमों के कारण लोग ही उन्हें ऐसा कहने लगे। 30 साल के शासनकाल के दौरान छोटे से इंदौर को एक समृद्ध एवं विकसित शहर बनाना आज के स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट की तरह है। 13 अगस्त, 1795 को निधन से पहले उन्होंने इंदौर को ऐसा विकसित शहर बनाया कि आज यह ‘स्वच्छ भारत अभियान’ का प्रणेता बना हुआ है। आज जब टैक्स में कटौती की खबर सामने आती है तो याद आता है कि कैसे अहिल्याबाई ने अपने जीवनकाल में किसानों का लगान कम किया था। आज जब कस्बाई विशेषताओं को आगे बढ़ाने का उद्यम शुरू होता है तो अहिल्याबाई के उस विजन की याद आती है, जब आज से 250 साल पहले उन्होंने मध्य प्रदेश में महेश्वरी साड़ियों के उद्योग की स्थापना की थी।
हिंदू संस्कृति की रक्षा के लिए आजीवन आगे रहीं
रानी अहिल्याबाई होलकर राहगीरों-गरीबों-दिव्यांगों के साथ पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं की सुविधा का विशेष ध्यान रखकर समाज को नई दिशा देती गईं। उन्होंने समाज के हर वर्ग को सम्मानित-पुरस्कृत करने की परंपरा शुरू की। वह मराठा थीं और हिंदू-संस्कृति की रक्षा का प्रण तो जैसे रगों में बसता था। वह थीं तो इंदौर की रानी, लेकिन सोच अखिल भारतीय थी। उन्होंने विदेशी और मुगल आक्रमणकारियों के कारण ध्वस्त हिंदू धर्मस्थलों के पुनरूद्धार और पुनर्निर्माण के लिए राज्य की सीमा से बाहर निकलकर काम किया। बद्रीनाथ, केदारनाथ, रामेश्वरम, सोमनाथ, जगन्नाथपुरी, वृंदावन, द्वारका, उज्जैन, देवप्रयाग, पुष्कर, गया के विष्णुपद मंदिर जैसे दर्जनों मंदिरों के पुनर्निर्माण में योगदान दिया। काशी-विश्वनाथ का जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कायाकल्प किया तो उन्होंने भी महादेव के इस मंदिर के पुनरूद्धार में अहिल्याबाई के योगदान को अतुल्य बताया।
धार्मिक प्रवृत्ति और मंदिरों के प्रति श्रद्धा भाव के चलते उन्हें संत भी कहा जाने लगा था। उनकी 300वीं जयंती पर नरेंद्र मोदी सरकार उन्हें वास्तविक सम्मान दे रही है। लगभग एक साल से विभिन्न आयोजन चल रहे हैं। इसके लिए बाकायदा ‘लोकमाता अहिल्याबाई होलकर त्रिशताब्दी समारोह समिति का गठन किया गया था, जिसकी संरक्षक पद्मविभूषण सोनल मानसिंह तथा पद्मभूषण सुमित्रा महाजन हैं। देवी अहिल्याबाई ने देश में 100 से अधिक तीर्थस्थलों पर धर्मशालाएं, बावड़ी, अन्न क्षेत्र आदि का निर्माण करवाया था। इन सभी स्थानों पर उनकी जयंती पर बड़े आयोजन हो रहे हैं। त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग में तीर्थ यात्रियों के विश्रामगृह हों या नासिक में भगवान राम का मंदिरों या उज्जैन का चिंतामणि गणपति मंदिर… जिस स्थल पर उन्होंने धर्मार्थ कार्य किया था, वैसी हर जगह पर उन्हें याद किया जा रहा है।