samvidhan diwas
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Prem kumar mani
Prem Kumar Mani

संविधान दिवस (26 नवम्बर ) के रोज केंद्र सरकार ने संविधान के संस्कृत और मैथिली अनुवाद जारी करने का जो कर्मकांड किया है, उसकी आलोचना करना चाहूंगा। उस रोज संविधान से जुड़े अन्य मुद्दों पर जोर दिया गया होता, मसलन उन सब पर जिस का उल्लेख भीमराव आम्बेडकर ने संविधान के तृतीय वाचन पर बोलते हुए 25 नवम्बर 1949 को किया था, तब कुछ अर्थपूर्ण बात होती। आम्बेडकर साहब ने कहा था इस संविधान द्वारा लोगों को राजनीतिक समानता, यानि एक व्यक्ति एक वोट, का अधिकार तो मिल रहा है, किन्तु आर्थिक और सामाजिक समानता सुनिश्चित नहीं की गई है। आम्बेडकर ने यह चेतावनी भी दी थी कि यह यदि नहीं हुआ तो विषमता से उत्पीड़ित लोग संविधान के इस ढांचे को ध्वस्त कर देंगे। कुछ लोग समझते हैं कि आम्बेडकर साहब ही संविधान निर्माता थे। दरअसल वह प्रारूप तैयार करने वाली समिति के सभापति थे। संविधान निर्माण करने वाली सभा विमर्श के बाद इसे स्वीकृत करती थी।

अम्बेडकर साहब की बहुत नहीं चली थी। उनकी उपरोक्त चेतावनी पर कम ही ध्यान दिया गया। समाज के दकियानूसी लोग इससे क्षुब्ध थे कि संविधान में सभी जाति वर्ग धर्म के बालिग लोगों को वोट का अधिकार देकर सामंतवादी-पुरोहितवादी समाज को खोखला कर दिया है। दकियानूसी समाज के एक हिस्से ने तो धर्म केंद्रित राष्ट्र बनाने का स्वप्न पाकिस्तान बना कर पूरा कर लिया, दूसरा हिस्सा आज बेताब है।

प्रतिपक्षी लोग समाजवादी और लौकिक तबीयत के लोग थे, जिनके लिए सामाजिक-आर्थिक समानता का प्रश्न राजनीतिक एजेंडा था।दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि वे भी आज संविधान के केवल आरक्षण सम्बन्धी मुद्दे को पकड़ कर बैठ गए हैं। ऐसे में सरकार यदि भाषायी जुगाली कर लोगों का दिल बहला रही है, तो कोई आश्चर्य क्यों होगा?

भाषा का सवाल संविधान निर्माण के दौर से ही हमारे मध्यवर्ग के केंद्र में रहा। मध्यवर्ग की चेतना वैज्ञानिक सोच की जगह पुरोहितवाद और सामंतवाद में गहरे धंसी थीं। संविधान सभा में भाषा पर दस माह से अधिक तक बहस होती रही। आर्थिक सवालों, जिसमें जमींदारी उन्मूलन और अन्य भूमि-संबंध भी थे, लोगों ने संक्षिप्त समय में निष्पादित कर दिए। खाये-अघाये वर्चस्व प्राप्त समाज को भाषा, अध्यात्म, धर्म आदि के प्रश्न पर उलझने में अधिक आनंद आता है। हिन्दी को बहुत मुश्किल से राजभाषा के तौर पर स्वीकार किया गया था। आम्बेडकर तो उन लोगों में थे जिन्होंने संस्कृत को राजभाषा बनाने वाली याचिका पर हस्ताक्षर किये थे। इन बिंदुओं पर पर्याप्त विमर्श पहले ही हो चुका है।

संस्कृत और मैथिली से मेरा कोई विरोध नहीं है। दोनों जुबानों के साहित्य को मैं पढ़ता हूँ। कालिदास और विद्यापति मुझे बेहद प्रिय हैँ। मेरा विरोध इस भाषाई राजनीति के पीछे छुपी कुटिल मनसा पर है। आज कोई वेद या मनुस्मृति का मगही, भोजपुरी, मैथिली में अनुवाद करे तो यह फिजूल की बात कही जाएगी। संविधान को तमिल, तेलगु ,बंगला आदि में अनुवाद करने का अर्थ समझा जा सकता है, लेकिन मैथिली और संस्कृत में अनुवाद करना मूर्खतापूर्ण कर्मकांड के अलावे कुछ नहीं है। मगही, भोजपुरी, ब्रज बोली या फिर पाली, प्राकृत में संविधान का अनुवाद कर हम क्या हासिल करना चाहते हैं? यदि प्रहसन करना ही था तो किसी आदिवासी जुबान (हो, मुंडा ,नागपुरिया आदि ) में इसका अनुवाद किया जाना बेहतर होता। संस्कृत बोलने वाले भारत में कुछ सौ लोग हैं। मैथिली जरूर एक जनपद की बोली है। लेकिन यह भी सच है कि इसकी वकालत कर रहे लोगों की दूसरी जुबान अंग्रेजी है। संस्कृत और मैथिली को प्रशासनिक परीक्षाओं में शामिल करने के पीछे जो गुरुडम-पाखण्ड है उसे अलग से जानने की जरूरत है।

प्राकृत, संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी हमारे यहाँ कुछ-कुछ समय के लिए राजकाज की जुबान रही,आज हिन्दी है। बहुत मुश्किल से हिन्दी का एक ठाट तैयार किया गया है। आज भी यह रचनात्मक साहित्य की भाषा अधिक है, विमर्श की कम। संवाद की मुख्य भाषा अवश्य है। हिन्दी अपने ढाँचे में आज तक उस स्तर तक नहीं पहुँच सकी है,जहाँ संस्कृत हजार साल पूर्व थी। संस्कृत को बौद्धों ने कर्मकांड की भाषा से विमर्श की भाषा में तब्दील कर दिया था। पहली सदी के बाद लगभग सभी बौद्ध दार्शनिकों ने संस्कृत में काम किये। भाषाएं एक रोज में नहीं बनतीं।

लेकिन आधुनिक भाषा के तौर पर हिन्दी उभरी है। इसके अनेक कारण हैं। एक बोली ( खड़ी बोली ) विकसित होकर आधुनिक भाषा हिन्दी हो गई। एक समय था जब कविता केलिए ब्रजबोली और गद्य केलिए खड़ी बोली को अपनाया जाता था। कालांतर में कविता की भाषा भी खड़ी बोली हुई और फिर हिन्दी का विकास हुआ। यह हिन्दी बड़े लोगों की ही जुबान थी। किसान मजदूर अपनी अपनी बोलियों अवधी, ब्रजबोली, भोजपुरी , मगही, अंगिका , वज्जिका, मैथिली आदि में बात करते थे। इन किसान मजदूरों के बाल-बच्चे जब पढ़ने लगे और मुश्किल से हिन्दी सीखी तो वर्चस्व प्राप्त तबका हिन्दी छोड़ने लगा। मूल उद्देश्य किसान-मजदूर तबके की संततियों को सांस्कृतिक मोर्चे से बाहर करना है। लोगों को भाषा के बल और उसके छल के बारे में जानना चाहिए।

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