रामचंद्र शुक्ल का एक अधूरा लेख

By Team Live Bihar 32 Views
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प्रेमकुमार मणि
अधूरी ज़िंदगियाँ ही नहीं होतीं, अधूरी किताबें और लेख भी होते हैं. कभी-कभार ये अधूरी ज़िंदगियाँ, अधूरी किताबें और अधूरे लेख अपने अधूरेपन में भी पूरा सच रख जाते हैं, या फिर सच तक पहुँचने में सहयोग करते हैं. भगत सिंह की अधूरी ज़िंदगी ने ही समाज और राजनीति के बड़े अर्थ दिए. आंबेडकर की एक अधूरी किताब है ‘ रेवोलुशन एंड काउंटर रेवोलुशन इन अन्सिएंट इंडिया’. अपने अधूरेपन में भी मुझे यह उनकी सबसे प्रमुख कृति प्रतीत होती है.
अभी मुझे हिन्दी आलोचक रामचन्द्र शुक्ल का एक अधूरा लेख मिला है, जो लोक भारती पेपरबैक्स के ‘विचार का आईना’ श्रृंखला के रामचंद्र शुक्ल पुस्तक में संकलित है. लेख का शीर्षक है ‘ जाति-प्रथा.’ यह लेख मैंने अब-तक नहीं देखा था. यह भी स्मरण नहीं है कि यह उनकी रचनावली में संकलित है या नहीं. लेकिन यह कह सकता हूँ कि यह अधूरा लेख शुक्ल जी को पूरी तरह समझने केलिए आवश्यक साधन है;अर्थात इसके बिना उन्हें पूरी तरह नहीं समझा जा सकता. मैं यह कहता रहा हूँ कि किसी व्यक्ति को सम्पूर्णता में देखा जाना चाहिए. उसके जीवन या लेखन के किसी एक कालखण्ड या हिस्से को देख उसका सम्यक मूल्यांकन उचित नहीं होगा. शुक्ल विषयक चिन्तन में यह अधूरा लेख उनके विचार- विकास को क्रमिक बनाता है.
भगत सिंह अपनी अधूरी जिन्दगी में अनेक सामाजिक राजनीतिक मुद्दों पर बहुत स्पष्ट दीखते हैं. लेकिन यह अनुमान करना मुश्किल नहीं है कि उन्हें जीवन के दस साल और मिलते तो प्रतिरोध के हिंसक स्वरूप पर अपनी राय बदलते. गाँधी 1930 तक जातिप्रथा और वर्णव्यवस्था के समर्थक रहे; किन्तु बाद में उनके विचार बदले. यह बदलाव नकारात्मक दिशा में सावरकर और जिन्ना में देखा गया. मेरी दृष्टि में बेहतर यह होता है कि किसी में विचारों का क्रमिक और रैखिक विकास हो. गाँधी, नेहरू, आंबेडकर आदि में यह इसी रूप में देखने को मिलता है. शुक्ल जी में भी यह क्रमिक और रैखिक विकास देखने को मिलता है. अपने आरम्भिक दौर में जाति और वर्णव्यवस्था पर ढुलमुल या दकियानूसी राय रखने वाले शुक्ल जी बाद के दिनों में स्पष्ट और प्रगति परक होते जाते हैं. यह स्पष्टता किसी को विस्मित कर सकता है.
अधूरा लेख केवल दो पृष्ठों का है. लेकिन शुक्ल जी मूल बातों को कह जाते हैं. अनुमान किया जा सकता है यह लेख तब लिखा गया होगा जब इस विषय पर भारतीय समाज में जोरदार सार्वजनिक चिन्तन हुआ था. यह गाँधी आंबेडकर पूना पैक्ट के बाद का समय रहा होगा. इसी बीच आंबेडकर का 1936 में जाति-पाति तोड़क मंडल द्वारा आयोजित सम्मेलन में दिए जाने केलिए भाषण तैयार किया गया, जो सम्मेलन स्थगित किए जाने के कारण दिया नहीं गया. बाद में यह अनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट शीर्षक से एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित और चर्चित हुआ. यह अधूरा लेख उसी दौर का लिखा प्रतीत होता है.
शुक्ल जी लिखते हैं –
‘ जाति प्रथा नाम की संस्था ने जाति की शुद्धता बनाए रखने के प्रयास किए हैं,पर असफल प्रयास किए हैं,क्योंकि इतिहास के छात्रों को पता है कि भारतीय रक्त शक, यवन, यूची, हूण, मंगोल, आर्य और द्रविड़ रक्त का मिश्रण है. जातिप्रथा पर सबसे बड़ी आपत्ति, जिसका उसके तथाकथित समर्थकों की कोई भी संख्या खंडन नहीं कर सकती, यह है कि मनुष्यों को श्रेणियों और वर्गों का एक बेलौच विभाजन कर दिया गया है. अभिजात और आज भी नामित देव-रूपा ब्राह्मण बाकी सबको हीन समझते हैं. फिर हर दूसरी जाति भी अपने से नीचे की जातियों का तिरस्कार करती है, और इस तरह यह सिलसिला बदनसीब अछूतों और अनाम पंचम वर्णों तक पहुंचता है. जातिप्रथा इस तरह से हार्दिक सहयोग या सहक्रिया, प्रेम, विश्वास, आपसी संपर्कों या कार्य की स्वतंत्रता में बाधा डालती है, क्योंकि हर जाति का अपना ही सीमित कार्यक्षेत्र होता है तथा किसी उत्साही या महत्वाकांक्षी युवक को भी, चाहे या अनचाहे, उसी में लगना पड़ता है. अपने पुश्तैनी व्यवसाय को छोड़ कर किसी और व्यवसाय में जाकर अपनी दशा को सुधारने का उसके पास कोई अवसर नहीं होता.’
कार्यशुचिता पर लगभग यही बात 1925 में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने एक लेख में लिखा था. ‘ शूद्रधर्म ‘ शीर्षक इस लेख में रवीन्द्रनाथ ने वर्ण और जातिव्यवस्था की कड़ी निंदा की है. उनके अनुसार हिन्दू धर्म जिसे लोग ब्राह्मण धर्म कहते हैं, मूलतः शूद्र धर्म है. इसके कारण हिन्दुओं में गुलाम प्रवृति विकसित हुई है. इसी प्रवृति के कारण हिन्दू समाज किसी की भी गुलामी स्वीकार लेता है. वह भारत में ब्रिटिशराज की अवस्थिति को जातिप्रथा से जोड़ कर देखते हैं. इसके साथ ही वह बताते हैं कि जाति पेशे में मजबूरन काम करने के कारण लोगों में अपने कार्य व्यवसाय के प्रति ऊब पैदा होती है, जो उत्पादन को प्रभावित कर देता है. पेशा चुनने की आज़ादी के नहीं होने से जो ऊब और कुंठा होती है इसकी अवचेतन प्रतिक्रिया समाज को गतिहीन और अंततः प्रतिगामी बना देती है. ठाकुर के इस लेख पर गाँधी ने प्रतिक्रिया देते हुए जाति-प्रथा की प्रशंसा की थी और इसे विश्वसंस्कृति को भारत की एक अनमोल भेंट कहा था. गाँधी एक वकील की तरह तर्क दे रहे थे, जबकि रवीन्द्रनाथ भारत के सामाजिक-राजनीतिक विकास केलिए इसके उन्मूलन को आवश्यक मान रहे थे. कुछ समय बाद इस विमर्श के केंद्र में जब आंबेडकर प्रवेश करते हैं और 1932 में कम्युनल अवार्ड के द्वारा ब्रिटिश प्रधानमंत्री भारतीय धारा-सभाओं में अछूतों केलिए भी कुछ सीट आरक्षित करने और उनका चुनाव पृथक निर्वाचनमंडल ( सेपेरेट इलेक्टोरेट) द्वारा कराने की घोषणा करते हैं, तब सब के दिमाग का ढक्कन खुल जाता है. देश हित में अछूत जातियों को आरक्षण तो मिलता है किन्तु पृथक नहीं, संयुक्त निर्वाचन मंडल द्वारा.
इस घटना ने गाँधी को पूरी तरह बदल दिया. कांग्रेस में एक समय मॉडरेट ब्लॉक राजनीतिक प्रगति केलिए सामाजिक सुधारों पर बल देता था. तिलक और उनके अनुयायियों का मानना था कि राजनीतिक विकास क्रम में ही सामाजिक सुधार हो जायेंगे. गांधी ने बीच का रास्ता निकाला. सामाजिक सुधारों को स्थगित नहीं किया किन्तु जोर राजनीतिक विकास पर ही रहा. आंबेडकर की चुनौती के बाद गांधी को एक बार फिर सामाजिक सुधारों की अहमियत महसूस हुई और कांग्रेस को साथियों के हवाले कर वह अपने अंदाज से अछूतोद्धार आंदोलन में लग गए.
शुक्ल जी गांधीवादी नहीं थे. असहयोग आंदोलन के समय उन्होंने गाँधी की नीतियों की खुली आलोचना की थी. लेकिन इस बीच देश समाज में जो विकास हो रहा था, उससे अप्रभावित नहीं रह सके. राखालदास बंद्योपाध्याय के उपन्यास ‘ शशांक ‘ का अनुवाद और उसकी भूमिका लिखते समय शुक्ल जी का मिजाज हिंदूवादी प्रतीत होता है. लेकिन इस अधूरे लेख में वह रवि बाबू की निम्नोक्त पंक्तियों को आत्मसात कर चुके होते हैं. रवि बाबू ने बहुत पहले भारत निर्माण को इस तरह देखा था-
हेथाय आर्य, हेथा अनार्य, हेथाय द्रविड़ चीन, शक-हूण-दल,पाठान-मोगल एक देहे होलो लीन. शुक्ल जी का स्वर कुछ जोरदार दिखता है, जब इसी अधूरे लेख में वह आगे लिखते हैं –
‘ जातिप्रथा पूर्वी सभ्यता की संतान है और दुनिया में कहीं और पायी नहीं जाती. मानव जाति का यह कठोर विभाजन झूठे धर्म में उन स्वार्थी ब्राह्मणों द्वारा जोड़ा गया प्रक्षेप है जो उत्पीड़ित निर्धन जन की कीमत पर मजे उड़ा रहे और अपनी झोलियाँ भर रहे हैं, निरक्षर जनता की भोली-भाली कल्पनाओं के सहारे अपनी तोंदें बढ़ा रहे हैं, बल्कि, और तो और, शास्त्रों के विधान के नाम पर उनके ऊपर हर तरह के अपमान और दुःख-दर्द लाद रहे हैं. जो चीज उनको इसमें और भी समर्थ बनाती है, वह समाज का राजनीतिक और आर्थिक ढांचा है. कोमल उपचार के रूप में धार्मिक प्रवचन जनता को आंसुओं में डुबोते रहे… या फिर क्लोरोफॉर्म सुंघा कर सुलाते रहे हैं. उनकी योग्यताओं को और उनके प्रेम को ऊँची जातियों के लोग आज भी अनदेखा कर रहे हैं जो अपनी ही दुनिया के नागरिक हैं, न कि इस संसार के. जाति और वर्ण की निर्दयी व्यवस्था रामायण-काल के बाद से भारतीय समाज की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा रही है. यह अस्वाभाविक व्यवस्था जब तक बनी रहेगी समाज अभिशप्त रहेगा.. इस पतित जाति-प्रथा ने शुभ या सुन्दर की जड़ों पर , यहाँ तक कि शिक्षा के प्रसार पर भी मारक प्रहार किए हैं. ‘
हालांकि यह लेख अचानक रुक जाता है. अनुमान है यह आख़िरी दौर में लिखा गया है. निश्चय ही इसका विस्तार उनके कुछ अन्य भाव और विचार हमारे समक्ष रखते, लेकिन अपने अधूरेपन में भी यह बहुत कुछ कह जाता है

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