देशप्राण के 14 अक्टूबर के अंक में प्रकाशित प्रेमकुमार मणि का लेख “अंबेडकर और बी.एन. राव की गुत्थी” ने भारतीय संविधान के इतिहास में एक बार फिर गंभीर बहस को जन्म दे दिया है। यह लेख उन तथ्यों को सामने लाता है जो दशकों से राजनीतिक नारों और अंधभक्ति के शोर में दबे रह गए थे।
भारतीय संविधान को केवल “बाबा साहब का संविधान” कह देना, लेख के अनुसार, एक सीमित और आंशिक दृष्टिकोण है। वास्तविकता यह है कि इस महान दस्तावेज़ के निर्माण में डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में गठित संविधान सभा की कई समितियों और उप-समितियों का योगदान रहा। इनमें बी.एन. राव का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिनके कानूनी ज्ञान और प्रारूपण कौशल ने संविधान की संरचना को एक सशक्त रूप दिया।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता और बी.एन. राव की भूमिका
संविधान निर्माण की प्रक्रिया 1946 से 1949 तक चली। इस दौरान डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में अपनी भूमिका निभाई। डॉ. बी.एन. राव, जो एक अनुभवी विधि विशेषज्ञ और भारतीय सिविल सेवा के अधिकारी थे, उन्हें संविधान का प्रारूप तैयार करने की जिम्मेदारी दी गई थी।
बी.एन. राव ने न केवल अमेरिकी, ब्रिटिश और आयरिश संविधानों का अध्ययन किया, बल्कि भारत की सामाजिक संरचना और विविधता को ध्यान में रखते हुए एक ऐसा मसौदा तैयार किया जो भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप था। बाद में इस मसौदे की समीक्षा, संशोधन और प्रस्तुतिकरण का कार्य डॉ. भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता वाली प्रारूप समिति ने किया।
इस प्रकार, यह कहना अनुचित नहीं होगा कि भारतीय संविधान “संविधान सभा की सामूहिक बुद्धि” का परिणाम था, न कि किसी एक व्यक्ति की देन।
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“बाबा साहब का संविधान” कहना क्यों गलत है?
लेख में प्रेमकुमार मणि ने इस बात पर आपत्ति जताई है कि राजनीतिक लाभ के लिए कुछ लोग बार-बार “बाबा साहब का संविधान” शब्द का प्रयोग करते हैं। उनका कहना है कि यह केवल अंबेडकर का नहीं, बल्कि भारत का संविधान है, जिसमें अनेक मनीषियों की मेहनत शामिल है।
उन्होंने यह भी तर्क दिया कि जब संविधान में 125 से अधिक संशोधन किए जा चुके हैं, तो वह अब मूल रूप में नहीं बचा है। यहां तक कि इसकी प्रस्तावना में भी संशोधन कर दिया गया — जो कई संवैधानिक विद्वानों के अनुसार आपत्तिजनक कदम था।
‘अवज्ञा का समय’ – कविता में संविधान से संवाद
लेखक ने अपने नवीन कविता संग्रह “अवज्ञा का समय” (जो दिल्ली के अनन्य प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है और अमेज़न पर उपलब्ध है) में इस विषय को एक काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। संवाद शैली में रचित यह कविता बाबा साहब से सवाल पूछती है —
क्या यह संविधान अब भी वही है, जो आपने लिखा था?
क्या राजनीति ने इसकी आत्मा को विकृत नहीं किया?
इस कविता के माध्यम से लेखक संविधान की मौजूदा स्थिति पर गहरी चिंता व्यक्त करते हैं। वह कहते हैं कि संसद से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक, संविधान की मूल भावना की अनदेखी की जा रही है।
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संविधान का राजनीतिक दुरुपयोग और समाज पर प्रभाव
समाज में “संविधान” शब्द अब केवल एक दस्तावेज नहीं रह गया, बल्कि एक राजनीतिक हथियार बनता जा रहा है। राजनीतिक दल इसे अपने-अपने स्वार्थ के हिसाब से उद्धृत करते हैं।
लेख का यह हिस्सा विशेष रूप से चिंतनशील है — यह सवाल उठाता है कि क्या संविधान को बचाने की जिम्मेदारी केवल न्यायपालिका या संसद की है, या हर नागरिक को भी अपनी भूमिका निभानी चाहिए?
लेख में कहा गया है कि संविधान की रक्षा करना, संविधान लिखने से भी बड़ा कार्य है। यही वह सन्देश है जिसे “अवज्ञा का समय” जैसी रचनाएं आगे बढ़ा रही हैं।
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