लोकतंत्र में नागरिक का राजनीतिक बोध क्यों जरूरी है
आधुनिक लोकतांत्रिक समाज में प्रत्येक नागरिक का राजनीतिक बोध होना अत्यंत आवश्यक है। लोकतंत्र केवल वोट डालने का अधिकार नहीं देता, बल्कि सोचने और सही प्रतिनिधि चुनने की जिम्मेदारी भी सौंपता है। यदि जनता इस जिम्मेदारी का सदुपयोग न करे तो गलत लोग सत्ता पर काबिज हो सकते हैं। “कोई नृप होहिं हमें का हानि” का भाव लोकतांत्रिक संस्कारों के विपरीत है।
एक जागरूक नागरिक का दायित्व केवल मतदान करना नहीं, बल्कि सत्ता की नीतियों और आचरण पर निरंतर निगरानी रखना भी है। लोकतंत्र का मूल मंत्र यही है कि सत्ता जनता की है, किसी व्यक्ति की नहीं।
लोकतांत्रिक संस्कृति और सत्ता से चिपके रहने की प्रवृत्ति

आज का सबसे बड़ा संकट यह है कि लोकतांत्रिक संस्कृति सत्ता मोह में डूब रही है। न केवल भारत, बल्कि दुनिया के कई देशों में यह प्रवृत्ति गहरी हो चुकी है। चीन में शी जिनपिंग और रूस में व्लादिमीर पुतिन जैसे नेताओं के उदाहरण हमारे सामने हैं, जिन्होंने कानून में बार-बार संशोधन कर खुद को सत्ता में बनाए रखने की राह आसान की।
भारत भी इस प्रवृत्ति से अछूता नहीं है। तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी का दैवी छवि वाला बयान इस बात का प्रतीक है कि कैसे एक जनप्रतिनिधि धीरे-धीरे राजा के रूप में स्थापित हो जाता है। जब जनता कुछ किलो अनाज के बदले अपनी स्वतंत्रता किसी एक चेहरे को सौंप देती है, तो लोकतंत्र कमजोर होता है और भक्ति भाव राजनीति में सांद्र हो जाता है।
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सत्ता त्याग के ऐतिहासिक उदाहरण और सच्चे नेतृत्व की पहचान
इतिहास में कुछ नेता ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने सत्ता को मोह नहीं, बल्कि जिम्मेदारी के रूप में देखा।
मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य इसका श्रेष्ठ उदाहरण हैं — जिन्होंने मात्र 48 वर्ष की आयु में सत्ता छोड़ दी और सलेखना विधि से मृत्यु का वरण किया। उन्होंने अपने कार्यों का प्रचार नहीं किया, न कोई प्रशस्ति लिखवाई, न कोई स्तंभ बनवाया।
इसके विपरीत उनके पोते सम्राट अशोक ने सत्ता का अंत तक उपयोग किया, राजकोष से दान दिए और अपने नाम का प्रचार कराया। इसी अंतर से स्पष्ट होता है कि चंद्रगुप्त में त्याग का तेज था, जबकि अशोक में सत्ता का मोह।
आधुनिक काल में जार्ज वाशिंगटन और नेल्सन मंडेला जैसे नेताओं ने भी यही उदाहरण प्रस्तुत किया। वाशिंगटन ने दो कार्यकाल (8 वर्ष) पूरे करने के बाद स्वेच्छा से पद त्याग दिया, और बाद में अमेरिका के संविधान में यह सिद्धांत शामिल हुआ कि कोई भी राष्ट्रपति दो बार से अधिक नहीं बनेगा।
नेल्सन मंडेला ने भी इसी परंपरा को निभाया — एक कार्यकाल के बाद पद छोड़ दिया और राजनीति में नैतिकता का प्रतीक बने।
भारत में भी कामराज ने मुख्यमंत्री रहते हुए त्यागपत्र देते हुए कहा — “मैंने जो करना था कर लिया, अब पार्टी का काम करूंगा।”
इसके विपरीत, जवाहरलाल नेहरू को जब यह इच्छा हुई कि वे पद छोड़ दें, तो उनके चारों ओर की चौकड़ी ने उन्हें रोक दिया। यह दर्शाता है कि सत्ता का मोह केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि समूहगत स्वार्थ का परिणाम भी होता है।
बिहार का राजनीतिक परिदृश्य और 20 वर्षों की स्थिर सत्ता
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के बीच यह प्रश्न गहराता जा रहा है कि क्या परिवर्तन लोकतंत्र की बुनियाद नहीं है?
राज्य में पिछले 20 वर्षों से एक ही मुख्यमंत्री सत्ता में बने हुए हैं (8 माह के छोटे अंतराल को छोड़कर)। यह स्थिति लोकतंत्र के संतुलन और परिवर्तन की भावना पर प्रश्नचिह्न लगाती है।
2005 में जब उन्होंने चुनावी मंच से कहा था कि “शेरशाह सूरी ने सिर्फ साढ़े चार साल में देश की तकदीर बदल दी थी, मुझे एक मौका दीजिए,” तब जनता ने उन्हें भरोसा दिया। लेकिन दो दशकों बाद भी वही चेहरा, वही वादे, और जनता के जीवन में परिवर्तन की कमी लोकतंत्र की आत्मा को कमजोर करती है।
सवाल उठता है — किसी राज्य को बदलने के लिए कितना समय चाहिए?
इतिहास गवाह है कि रूस और चीन ने 20 वर्षों में सामाजिक और औद्योगिक विकास की नयी परिभाषा गढ़ दी, जबकि बिहार अब भी विकास की बहस में उलझा हुआ है।
सत्ता मोह — नेता और जनता दोनों के लिए हानिकारक
सत्ता का मोह किसी नेता के लिए व्यक्तिगत क्षय और समाज के लिए राजनीतिक पतन का कारण बनता है।
कहा गया है कि “राजा वही जो सत्ता का भार उठाए, उससे लिप्त न हो।”
आज बिहार की राजनीति इस स्थिति में पहुंच चुकी है जहां सत्ता को त्यागने का विचार ही अपराध समान माना जा रहा है। मुख्यमंत्री के स्वास्थ्य की हालत कमजोर बताई जा रही है, फिर भी सत्ता का मोह बना हुआ है।
उनके आस-पास खड़ी चौकड़ी ने उन्हें “देव-शिशु” बना दिया है, जबकि जनता भूख और बेरोजगारी से जूझ रही है। दूसरी ओर, विपक्ष के पास कोई ठोस विकल्प नहीं है — जनता के पास “सौ प्याज खाने और सौ जूते खाने” का ही चुनाव बचा है।
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लोकतंत्र का सार — परिवर्तन और आत्मसंयम
लोकतंत्र का असली अर्थ है — निरंतर परिवर्तन।
संविधान कार्यकाल तय करता है ताकि कोई व्यक्ति या विचार अनंत काल तक सत्ता में न रहे।
जब भक्ति भावना राजनीति में प्रवेश करती है, तो लोकतांत्रिक ढांचा सड़ने लगता है। सत्ता से मोह और नैतिकता से दूरी लोकतंत्र को खोखला बना देती है।
बदलाव केवल सत्ता परिवर्तन से नहीं आता, बल्कि मानसिकता के परिवर्तन से आता है।
यदि नागरिक अपने मताधिकार का सही उपयोग करें और नेता सत्ता को जिम्मेदारी मानें, तो लोकतंत्र जीवंत रहेगा।
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