बिहार में सियासी तापमान चरम पर — उम्मीदवारों के बीच घमासान, मतदाता खामोश
बिहार में चुनावी तापमान अब चरम पर है। चौसर बिछ चुकी है और सभी राजनीतिक दल अपने-अपने मोहरों को मैदान में उतार चुके हैं।
हर पार्टी के दावेदार मतदाताओं को सपनों का जाल दिखा रहे हैं, मगर जनता खामोश है।
राज्य में इस बार मुकाबला त्रिकोणीय है —
एक ओर एनडीए के पांच घटक दल,
दूसरी तरफ महागठबंधन के सात सहयोगी,
और तीसरी ओर चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी, जो इस बार राजनीतिक परिदृश्य को पूरी तरह बदलने की कोशिश में है।
वरिष्ठ पत्रकार आरती आर. जेरथ के अनुसार, बिहार के इस चुनाव को जटिल बनाने वाले चार मुख्य कारण हैं —
1️⃣ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सेहत,
2️⃣ दोनों गठबंधनों में बिखराव,
3️⃣ युवा मतदाताओं का रुझान,
और 4️⃣ जन सुराज पार्टी का उदय।
नीतीश की सेहत बनी पहेली, एनडीए के भीतर असहजता बढ़ी

नीतीश कुमार की सेहत को लेकर जेडीयू भले यह दावा करे कि मुख्यमंत्री पूरी तरह स्वस्थ हैं,
लेकिन एनडीए के भीतर इस पर असहमति की फुसफुसाहटें हैं।
कुछ नेताओं का कहना है कि नीतीश अब थक चुके हैं —
कभी मंच पर भाजपा प्रत्याशी को माला पहना देते हैं,
तो कभी सहयोगियों के हाथ झटक देते हैं।
मीनापुर की सभा में भाजपा प्रत्याशी रमा निषाद को माला पहनाने का वाकया चर्चा में रहा।
जब जेडीयू के संजय झा ने रोकना चाहा तो नीतीश ने मंच से ही कहा, “ई गजब आदमी है भाई, हाथ काहे पकड़ते हो।”
तेजस्वी यादव उन्हें “अचेत मुख्यमंत्री” कहते हैं,
और प्रशांत किशोर के शब्दों में —
“2015 के नीतीश और 2025 के नीतीश में जमीन-आसमान का अंतर है।”
अब यह स्पष्ट है कि नीतीश की सेहत और राजनीतिक सक्रियता पर सवाल चुनावी चर्चा के केंद्र में हैं।
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243 सीटों की सियासत — एनडीए के अंदरखाने में खींचतान और बीजेपी की रणनीति
243 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा और जदयू ने 101-101 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है,
परंतु भाजपा ने लोजपा (रामविलास) को दी गई 29 सीटों में से 6 पर अपने उम्मीदवार उतार दिए हैं।
हम और रालोमो को 6-6 सीटें मिली हैं।
चुनाव के बाद लोजपा (आर), हम, और रालोमो की मजबूरी भाजपा के साथ जाने की ही होगी क्योंकि
चिराग पासवान और जीतनराम मांझी पहले से केंद्र सरकार में मंत्री हैं,
जबकि उपेन्द्र कुशवाहा भी मंत्री बनने की कोशिश में हैं।
बीजेपी के लिए यह चुनाव “अभी नहीं तो कभी नहीं” जैसा है।
भले ही धर्मेंद्र प्रधान चुनाव प्रभारी हों,
लेकिन गृहमंत्री अमित शाह ने परोक्ष रूप से चुनाव की कमान संभाली हुई है।
सियासी जोड़तोड़ में माहिर शाह ने यह कहकर हलचल बढ़ा दी कि —
“चुनाव का चेहरा नीतीश हैं, लेकिन मुख्यमंत्री का फैसला चुनाव के बाद घटक दलों के विधायक करेंगे।”
इस बयान से जेडीयू के भीतर बेचैनी बढ़ी है।
राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि अगर एनडीए को बहुमत मिला, तो भाजपा इस बार बड़ा खेल खेल सकती है।
नीतीश कुमार भी इसे भांप चुके हैं — इसलिए वे प्रधानमंत्री मोदी के मंचों से दूरी बनाए हुए हैं।
उदाहरणों से बढ़ी अटकलें — क्या बिहार में भी दोहराया जाएगा “असम-मध्यप्रदेश-महाराष्ट्र मॉडल”?
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा का पोस्ट-इलेक्शन गेमप्लान अब खुलकर दिखने लगा है।
2021 में असम में सोनोवाल की जगह हेमंत बिस्वा शर्मा,
2023 में मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की जगह डॉ. मोहन यादव,
और महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे के रहते देवेन्द्र फडणवीस बने।
इसीलिए सवाल उठ रहा है —
क्या नीतीश बिहार के शिंदे बनेंगे?
इधर चिराग पासवान ने भी खुलकर कहा कि उनकी “मुख्यमंत्री बनने की इच्छा” है।
उन्होंने खुद को प्रधानमंत्री मोदी का हनुमान बताते हुए एनडीए में अपनी ताकत जताई है।
महागठबंधन की उलझन — 251 सीटों पर उम्मीदवार, लेकिन मैदान में सिर्फ 240
महागठबंधन में कुल 7 दल शामिल हैं —
राजद (143), कांग्रेस (59), भाकपा (9), माकपा (4), माले (20), वीआईपी (13) और आईआईपी (3)।
इनका कुल योग 251 सीटें होता है, जबकि विधानसभा में कुल 243 सीटें हैं।
यानी कि कई सीटों पर ये दल एक-दूसरे का वोट काट रहे हैं।
कुछ उम्मीदवारों के नामांकन रद्द या वापसी के बाद महागठबंधन 240 सीटों पर ही चुनाव लड़ रहा है।
वीआईपी की सीटों पर अब राजद उम्मीदवार मैदान में हैं, जिससे आंतरिक खींचतान और बढ़ गई है।
जन सुराज का उदय — प्रशांत किशोर की आक्रामक रणनीति से हिली सियासत
जन सुराज पार्टी ने शुरुआत में 243 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया था,
लेकिन एक उम्मीदवार का नामांकन दाखिल न करने,
एक का रद्द हो जाने और दो उम्मीदवारों के एनडीए समर्थन में बैठने के बाद अब वह 239 सीटों पर लड़ रही है।
प्रशांत किशोर (पीके) ने भाजपा पर तीखा हमला बोलते हुए कहा —
“चाहे जितने उम्मीदवार खरीद लो या धमकी दे दो,
हम इतनी ताकत से चुनाव लड़ेंगे कि आपके दांत खट्टे कर देंगे।”
पीके का आरोप है कि एनडीए जन सुराज के शिक्षित और शरीफ उम्मीदवारों को दबाव में ला रहा है,
क्योंकि उनके सामने ज्यादातर दलों के उम्मीदवार दबंग और बाहुबली हैं।
टिकट वितरण में परिवारवाद हावी — 50 सीटें रिश्तेदारों के नाम
इस बार बिहार की राजनीति में ‘अंधा बांटे रेवड़ी, फिर-फिर अपनों को देय’ वाली कहावत सटीक बैठ रही है।
सभी दलों ने मिलकर लगभग 50 सीटें अपने परिजनों या नेता पुत्रों को दी हैं:
• राजद – 16
• जदयू – 12
• भाजपा – 7
• जन सुराज – 2
• हम (जीतनराम मांझी) – 5
• रालोमो (उपेन्द्र कुशवाहा) – पत्नी को टिकट
• चिराग पासवान – भांजे पर दांव
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टिकट बिक्री के आरोप और नई राजनीतिक बिसात
राजनीतिक विश्लेषक अरविन्द मोहन के अनुसार,
इस बार का चुनाव कई मायनों में अलग है क्योंकि लगभग सभी दलों में टिकट बिक्री के आरोप हैं।
कुछ सिटिंग विधायकों को भी टिकट खरीदना पड़ा है।
उनका मानना है कि वर्षों बाद कांग्रेस अपने बलबूते मैदान में है,
और मतदाताओं को जन सुराज पार्टी के रूप में एक नया विकल्प मिला है।
बिहार की राजनीति जो अब तक “लालू समर्थन बनाम लालू विरोध” पर आधारित थी,
अब उसमें एक तीसरी धारा आकार ले रही है।
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