रेवड़ी संस्कृति पर छिड़ी जंग – चुनावी मौसम में घोषणाओं की बारिश
बिहार की राजनीति एक बार फिर चुनावी रंग में रंग चुकी है। हर चुनावी सभा में, गली-मोहल्ले से लेकर सोशल मीडिया तक मुफ्त रेवड़ियों की घोषणाओं और वादों की बाढ़ आई हुई है। यह चुनावी मौसम पहले की तरह इस बार भी ‘रेवड़ी संस्कृति’ से सराबोर दिखाई देता है।
महागठबंधन हो या एनडीए — दोनों गठबंधन एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में ऐसे-ऐसे वादे कर रहे हैं जो सुनने में आकर्षक लगते हैं, पर उनकी व्यवहारिकता और आर्थिक सम्भावना पर गंभीर प्रश्न उठते हैं। हर दल मतदाताओं को लुभाने के लिए घोषणाओं की झड़ी लगा रहा है, लेकिन शायद ही किसी ने यह सोचा हो कि इन योजनाओं के लिए फंड कहां से आएगा और क्या यह राज्य की कमजोर अर्थव्यवस्था पर और बोझ नहीं बनेगा।
नीतीश बनाम तेजस्वी – घोषणाओं की होड़ में कौन आगे?

बिहार का यह चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन की जंग नहीं, बल्कि वादों की प्रतिस्पर्धा का मैदान बन गया है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले गठबंधन एक जैसी लोकलुभावन घोषणाओं से मतदाताओं को आकर्षित करने में जुटे हैं।
एनडीए की ओर से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने “मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना” के तहत ₹10,000 की सहायता, 125 यूनिट फ्री बिजली, 1 करोड़ नौकरियों का वादा, महिलाओं को नौकरी में आरक्षण और बढ़ी हुई पेंशन जैसे वादे किए हैं।
वहीं, महागठबंधन के ‘तेजस्वी-संकल्प’ में 200 यूनिट मुफ्त बिजली, हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी, महिलाओं को हर महीने ₹2,500 की सहायता और युवाओं के लिए नई योजनाओं के वादे शामिल हैं।
ये घोषणाएं आकर्षक जरूर हैं, लेकिन बिहार की आर्थिक हकीकत इन पर सवाल खड़े करती है।
यह भी पढ़े : https://livebihar.com/mokama-ghat-industrial-fall-bihar-election-2025/
बिहार की आर्थिक तस्वीर: आंकड़े जो हकीकत बताते हैं
नीति आयोग के आंकड़े बताते हैं कि बिहार की स्थिति चिंताजनक है —
• देश की जनसंख्या में बिहार का हिस्सा 9% से अधिक,
• लेकिन GDP में योगदान मात्र 2.8% (2021-22),
• राज्य की प्रति व्यक्ति आय, राष्ट्रीय औसत का केवल 30%,
• 2022-23 में राज्य ऋण अनुपात 39.6%।
राज्य की कुल कमाई में अपना टैक्स रेवेन्यू सिर्फ 23% है, जबकि केंद्र से मिलने वाला अनुदान 21% है।
“जन सुराज” का दावा है कि इन मुफ्त योजनाओं को पूरा करने के लिए लगभग ₹33,000 करोड़ रुपये चाहिए होंगे।
राज्य के बजट में रोजमर्रा के खर्च के बाद मुश्किल से ₹40,000 करोड़ बचते हैं — ऐसे में सवाल उठता है कि ये वादे आखिर पूरे कैसे होंगे?
वादे बनाम वास्तविकता – लोकतंत्र पर ‘सॉफ्ट करप्शन’ का खतरा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस ‘रेवड़ी संस्कृति’ की चेतावनी दी थी, वह आज बिहार में हकीकत बन चुकी है।
मुफ्त बिजली, राशन, यात्रा या नकद सहायता योजनाएं अब चुनावी घोषणाओं की अनिवार्य शर्त बन गई हैं।
इन घोषणाओं के माध्यम से मतदाता को प्रभावित करना एक प्रकार का “सॉफ्ट करप्शन” है — जहां खरीदी खुलकर नहीं होती, लेकिन मतदाता मानसिक रूप से बंधक बना लिया जाता है।
यह लोकतंत्र की आत्मा पर गंभीर आघात है, क्योंकि यह नीतियों और सिद्धांतों को कमजोर करती है और राजनीति को केवल सत्ता प्राप्ति का खेल बना देती है।
लोकलुभावन राजनीति बनाम नीति आधारित शासन
लोकतंत्र तभी सशक्त होगा जब चुनाव नैतिक और नीति-सम्मत होंगे।
राजनीति को सेवा का माध्यम बनाना होगा, न कि सत्ता प्राप्ति का साधन।
मतदाता को समझना चाहिए कि वोट किसी मुफ्त सुविधा के लिए नहीं, बल्कि भविष्य की स्थिरता और सुशासन के लिए दिया जाना चाहिए।
इसी तरह राजनीतिक दलों को भी आत्मसंयम रखना होगा और यह स्पष्ट करना होगा कि वे अपने वादों को आर्थिक रूप से कैसे पूरा करेंगे।
चुनावी घोषणाओं पर नियंत्रण तंत्र की आवश्यकता है — ताकि कोई भी दल ऐसे वादे न करे जिनका कोई आर्थिक आधार न हो।
मीडिया और नीति आयोग को इस दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे।
Do Follow us. : https://www.facebook.com/share/1CWTaAHLaw/?mibextid=wwXIfr
तेजस्वी की रणनीति और नीतीश की चुनौती
भाजपा-जद(यू) गठबंधन तेजस्वी यादव को “सपने बेचने वाले नेता” के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहा है।
दूसरी ओर, तेजस्वी का करिश्मा, संवाद शैली और युवाओं से जुड़ाव उन्हें लोकप्रिय बनाए हुए है।
लेकिन अगर घोषणाएं आर्थिक रूप से व्यवहार्य नहीं हैं, तो वे केवल भाषणों की सजावट बनकर रह जाएंगी।
महागठबंधन को चाहिए कि अपने घोषणापत्र में भावनाओं से अधिक व्यवहारिक नीति और आर्थिक दृष्टि को जगह दे।
यही रणनीति जनता में भरोसा जगाएगी और विपक्ष के आरोपों को कमजोर करेगी।
बिहार को चाहिए नीति, न कि रेवड़ी
बिहार को चाहिए ऐसी राजनीति जो विकास, रोजगार, शिक्षा, नैतिकता और सुशासन पर आधारित हो।
लोकतंत्र तभी जीवित रहेगा जब जनता अपने विवेक से निर्णय लेगी — न कि प्रलोभन या लालच से।
वोट एक जिम्मेदारी है, उपहार नहीं।
यदि मतदाता “रेवड़ी संस्कृति” से ऊपर उठे, तो बिहार एक बार फिर नीति आधारित शासन का उदाहरण बन सकता है।
Do Follow us. : https://www.youtube.com/results?search_query=livebihar

