बिहार चुनाव: अगड़ी जातियों को साधने का खेल

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अशोक भाटिया (वरिष्ठ स्तंभकार)
बिहार की राजनीति में एक बार फिर जातीय समीकरणों की गूंज सुनाई देने लगी है। इस बार केंद्र में हैं अगड़ी जातियां। अगड़ी जातियों की जिनकी आबादी हाल ही में जारी जातिगत जनगणना के अनुसार 15.52% है। अब तक राजनीतिक चर्चा में शांत मानी जाने वाली यह आबादी अचानक से चुनावी रणनीतियों की धुरी बन गई है। चुनावों में अगड़ी जातियों को साधने का खेल अब खुलकर शुरू हो चुका है।एनडीए बिहार विधानसभा चुनाव को जीत की मंजिल तक पहुंचाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी है। लंबे समय बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और एनडीए को सवर्ण वोट बैंक की अहमियत दोबारा समझ में आई है। संभावना है कि चुनाव से पहले सवर्ण समुदाय के लिए नई घोषणाओं का पिटारा खोल सकती है।
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने 2025 बिहार विधानसभा चुनाव के लिए 225 सीटें जीतने का लक्ष्य तय किया है। गठबंधन इस बार अपने मजबूत वोट बैंक में किसी भी प्रकार की सेंधमारी से बचना चाहता है, इसलिए वोटरों को कंसोलिडेट करने के लिए वर्ग विशेष पर केंद्रित रणनीति तैयार की जा रही है।दलित समुदाय की तरह ही अब गरीब सवर्णों के लिए भी कल्याणकारी योजनाएं लाने की तैयारी चल रही है। सूत्रों के मुताबिक, इन योजनाओं पर गंभीर विमर्श जारी है, और संभवतः चुनाव से पहले इन्हें नीतिगत रूप में लागू किया जा सकता है। एनडीए को उम्मीद है कि इससे न सिर्फ अगड़ी जातियों का समर्थन और मजबूत होगा, बल्कि विपक्ष को इस वर्ग में पैठ बनाने का मौका भी नहीं मिलेगा।
बिहार सरकार ने 14 साल बाद फिर से सवर्ण आयोग का गठन कर गरीब सवर्णों के कल्याण के लिए नई पहल शुरू कर दी है। आयोग ने सक्रियता दिखाते हुए तीन उप समितियों का गठन किया है। जो अलग-अलग मुद्दों पर काम कर रही हैं। इनमें से एक उप समिति को अपनी रिपोर्ट एक महीने के भीतर सरकार को सौंपनी है। जिस पर सरकार जल्द कार्रवाई करेगी। बिहार की जातीय जनगणना के अनुसार, राज्य में कुल 2 करोड़ 76 लाख 68 हजार 930 परिवार हैं, जिनमें से करीब 94 लाख 42 हजार 786 परिवार गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं, जो कुल परिवारों का लगभग 34.13% है। विशेष रूप से सामान्य वर्ग यानी सवर्ण परिवारों की संख्या 43 लाख 28 हजार 282 है। जिनमें से लगभग 25.09% परिवार गरीबी रेखा के नीचे हैं।तकरीबन 10 लाख 85 हजार सवर्ण परिवार आर्थिक रूप से कमजोर हैं और उन्हें कल्याणकारी योजनाओं की जरूरत है।
10 लाख 85000 गरीब सवर्ण परिवारों को राहत देने के लिए सरकार योजना पर काम कर रही है। महादलित छात्रों के तर्ज पर गरीब सवर्ण के बच्चों को नौकरियों में आयु सीमा में छूट देने पर विमर्श चल रहा है। इसके अलावा गरीब सवर्ण के बच्चों के लिए छात्रावास की सुविधा दी जाने की योजना है। इसके अलावा जिस तरीके से दलित छात्रों को कोचिंग की सुविधा सरकार के द्वारा दी जाती है उसी तरीके से गरीब सवर्ण के बच्चों को कोचिंग की सुविधा मिले इसके लिए सरकार एक्सरसाइज कर रही है।
ज्ञात हो कि बिहार की राजनीति यही कोई तीन दशक से गैर सवर्ण जातियों के इर्द-गिर्द घूमती आई है। ख़ास तौर पर पिछड़ा वर्ग का प्रभुत्व इतना बढ़ा कि इस तबके से आने वाले लालू यादव-राबड़ी देवी-नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री होते आए हैं। हालांकि एक दौर वह भी रहा है, जब मुख्यमंत्री अगड़ी जातियों के ही होते थे। 90 के दशक में जब मंडल-कमंडल की राजनीति ने अपने पांव फैलाए, तो देश के तमाम दूसरे राज्यों की तरह बिहार की सियासत का नक़्शा भी बदल गया। लेकिन हाल के दिनों में, बिहार की राजनीति में एक बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है। अचानक वहां अगड़ी जातियों की अहमियत बढ़ गई है।
राज्य में इस साल परशुराम जयंती का आयोजन बहुत भव्य स्तर पर किया गया, जिसमें तेजस्वी यादव ने शिरकत की। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कुंवर सिंह का विजय उत्सव बहुत धूमधाम से मनाया गया। इस समारोह में अमित शाह शामिल हुए। और तो और, जदयू ने अपनी पार्टी में सवर्ण प्रकोष्ठ बना दिया है। अमूमन राजनीतिक दलों में पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ, अनुसूचित जाति प्रकोष्ठ और अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ हुआ करते हैं, लेकिन नीतीश कुमार ने यह नया प्रयोग किया है।
बिहार में मुख्य रूप से चार बड़ी अगड़ी जातियां हैं- भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला। राजनीतिक गलियारों में उन्हें सांकेतिक भाषा में ‘भूराबाल’ कहा जाता है। बिल्कुल वैसे ही जैसे मुस्लिम-यादव समीकरण को ‘एमवाई’ कहते हैं।
नब्बे के दशक में जब बिहार की राजनीति में लालू युग शुरू हुआ, तो उनको लेकर बड़ा राजनीतिक विवाद खड़ा हुआ था। कहा यह गया कि लालू ने बिहार की राजनीति में ‘भूराबाल’ को साफ़ करने की बात कही है। हालांकि लालू यादव इसे अपने ख़िलाफ़ एक बड़ी राजनीतिक साजिश बताते रहे हैं। उन्होंने कई मौकों पर कहा कि उन्होंने ऐसा कोई बयान नहीं दिया था। खैर, सच्चाई जो भी रही हो, लेकिन इस विवाद के बाद वहां लालू यादव की छवि ‘एंटी अपर कास्ट’ नेता के रूप में उभरी। लालू यादव ने भी इसकी परवाह किए बिना यादव, मुस्लिम और अति पिछड़ा वर्ग-दलित वर्ग की कुछ अन्य जातियों को गोलबंद कर अपने को मजबूत बनाए रखा।
बिहार में अगड़ी जातियां एक वक़्त कांग्रेस का वोट बैंक हुआ करती थीं। बाद में भाजपा के साथ आईं। नीतीश कुमार के भाजपा के साथ होने की वजह से इनका समर्थन जदयू को मिलता रहा। लेकिन पिछले चुनाव में यह देखा गया कि सवर्ण जातियों ने भाजपा को तो वोट किया, लेकिन जदयू को नहीं। यही वजह रही कि जदयू को पहली बार भाजपा से कम सीट मिलीं और राज्य विधानसभा में सीटों की संख्या के क्रम में तीसरे पायदान पर पहुंच गई। राजनीति में बिना मकसद कुछ भी नहीं होता। अगर बिहार में अगड़ी जातियों की पूछ बढ़ गई है, तो उसकी वजह भी है। बिहार में जिस तरह से भाजपा तनकर खड़ी हुई है और जीतनराम मांझी, मुकेश सहनी जैसे अपनी-अपनी जातियों के नेताओं का प्रभाव बढ़ना शुरू हुआ है, उसमें आरजेडी को लगने लगा है कि ‘एमवाई’ समीकरण के सहारे राज्य की सत्ता में वापसी मुश्किल है। तेजस्वी यादव ने पिछले चुनाव के मौके पर कहा भी था कि अब हम ‘एमवाई’ की पार्टी नहीं बल्कि ए टू जेड की पार्टी होंगे। इसी कोशिश में वह अगड़ी जातियों के साथ अपनी दोस्ती बढ़ा रहे हैं।

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