बिहार की राजनीति कभी जाति या धर्म से पूरी तरह अलग नहीं रही। स्वतंत्र भारत के शुरुआती वर्षों में जाति का प्रभाव कम दिखा, क्योंकि उस दौर में स्वाधीनता संग्राम की नैतिकता और अखंडता की आभा बनी हुई थी। लेकिन जैसे-जैसे समय गुजरा, वह छवि फीकी पड़ी। खासकर मंडल आयोग के बाद, जाति और धर्म की राजनीति ने खुली प्रतिस्पर्धा पाई।
आज के बिहार की राजनीति में यह बदलाव एक नए दृष्टिकोण की ओर इशारा कर रहा है, जहां प्रशांत किशोर की शैली बढ़ती भूमिका निभा रही है और पहचान आधारित राजनीति पर सवाल खड़े कर रही है।

इतिहास से आज तक — जाति-धर्म की राजनीति का सफर
वैशाली का लिच्छवी गणराज्य न केवल लोकतंत्र का आदर्श था, बल्कि वहां शासन की क्षमता, न्यायप्रियता और निष्पक्षता पर आधारित थी, न कि जाति-धर्म पर। लेकिन आधुनिक लोकतंत्र ने समय के साथ जाति, धर्म और क्षेत्रवाद को आत्मसात कर लिया।
जेपी (जयप्रकाश नारायण) के समय में राजनीति जाति-धर्म के ऊपर थी। उन्होंने जनता को देश-दर-देश जोड़ने की बात की, जातीय विभाजन को पीछे रखा।
कर्पूरी ठाकुर ने उस परंपरा को आगे बढ़ाया — उन्होंने सर्वसमावेशी राजनीति को अपनाया, सामाजिक न्याय की बात की और आरक्षण व्यवस्था को संतुलित रूप से प्रस्तावित किया।
लेकिन अगले दौर में, नेताओं ने जाति को रणनीतिक हथियार के रूप में उपयोग करना शुरू कर दिया। आज, बिहार की राजनीति में जाति और धर्म की राजनीति एक जटिल ताना-बाना बन गई है, जिसे झुठलाना आसान नहीं है।
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प्रशांत किशोर की राजनीति — नई हवा या पुरानी जंजीर?
इस बार के चुनाव में प्रशांत किशोर ने पहचान आधारित, जातीय राजनीति को नए नजरिए से टक्कर दी है। वे न तो धर्म कहने पर जोर देते हैं, न ही जाति का जोर — बल्कि मुद्दों, विकास और बिहार की छवि बदलने की बात करते हैं।
वे अपने बिहार आयोग और राजनीतिक अभियान में शिक्षा, युवाओं, अर्थव्यवस्था और बदलाव की बातें उठा रहे हैं। उनका कहना है कि जाति-धर्म पर राजनीति करना पुरानी सोच है।
हालाँकि, उन्होंने एक समय में कहा था कि मुस्लिम समुदाय को तरजीह मिले, जो एक सत्यापित विवाद था। लेकिन बाद में उन्होंने उस पंक्ति को जारी नहीं रखा और इसे राजनीति की पहचान से अलग रखा।
इस रणनीति से वे जातीय गोलबंदी की राजनीति को चुनौती दे रहे हैं और लोकतंत्र के लिए नए प्रश्न खड़े कर रहे हैं।
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बिहार चुनाव 2025 में लोकतंत्र पर प्रश्न
इस बदलाव के संदर्भ में बिहार की जनता और राजनीति को कुछ गंभीर सवालों का सामना करना पड़ रहा है:
• क्या पहचान-आधारित राजनीति को पीछे छोड़ कर समीकरण मुद्दों पर आधारित होगा?
• क्या JP, कर्पूरी की विरासत वापस लौट सकती है?
• क्या प्रशांत किशोर के इस रुझान से जातीय राजनीति पर चोट पहुंचेगी?
• क्या बिहार की बदलती सोच देश की राजनीति में नई दिशा दे सकती है?
यदि यह बदलाव सफल होता है, तो बिहार महान सामाजिक परिवर्तन की दिशा में कदम बढ़ा सकता है, और भारत के लोकतंत्र में भी एक नया अध्याय लिख सकता है।
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