आर.के. सिन्हा
आपको राजधानी दिल्ली के कुछ बुद्ध विहारों में बुद्ध पूर्णिमा के पावन अवसर पर भारत में कार्यरत विभिन्न देशों के राजनयिक और नागरिक पूजा-अर्जना करते हुए मिल जाएंगे। भगवान बुद्ध के भले ही अनुयायी सारे संसार में हों, पर वे हैं तो हमारे ही। भारत में बुद्ध से जुड़े अनेक महत्वपूर्ण स्थल जैसे लुम्बिनी – जहां भगवान बुद्ध का जन्म हुआ, बोधगया – जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त हुआ, सारनाथ – जहां से बुद्ध ने दिव्यज्ञान देना प्रारंभ किया, कुशीनगर – जहां बुद्ध का महापरिनिर्वाण हुआ और दीक्षाभूमि, नागपुर – जहां भारत में बौद्ध धर्म का पुनरूत्थान हुआ मौजूद हैं। लुम्बिनी भगवान बुद्ध के जन्म के समय भारत का ही अंग था। बाद में गोरखा रायफल्स की वीरता से प्रभावित होकर अंग्रेजों ने तराई के कुछ भागों को पूर्व गोरखा सैनिकों के पुनर्वास के लिए तराई के एक भाग को भारत से अलग कर नेपाल को सौंप दिया था जिसमें बुद्ध का जन्म स्थान लुम्बिनी भी चला गया था।
इतना सब कुछ होने के बवाजूद हमारे यहां दुनियाभर के बुद्ध धर्म के अनुयायी काफी कम संख्या में आते हैं। यह स्थिति हर हाल में बदलनी होगी। भारत में बौद्ध के जीवन से जुड़े कई महत्वपूर्ण स्थलों के साथ एक समृद्ध प्राचीन बौद्ध विरासत है। भारत बौद्ध विरासत दुनिया भर में बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए बहुत रुचिकर है। यह तो पूरी दुनिया को बताना तो होगा ही।
भगवान बुद्ध को मानने वाले देशों से पर्यटकों को भारत लाना ही होगा। यह पर्यटकों का एक बहुत बड़ा समूह है। दुनियाभर में फैले करोड़ों बौद्ध धर्म के अनुयायियों को अभी तक तो हम भारत के प्रमुख बौद्ध तीर्थ स्थलों की तरफ लाने में कोई बहुत सफल नहीं रहे हैं। यह एक सच्चाई है। हमें भगवान बुद्ध से जुड़े कुछ नए और हाल ही में विकसित स्थलों में भी पर्यटकों को लाना होगा। मैं यहां इस बाबत राजधानी दिल्ली के बुद्ध जयंती पार्क का उदाहरण देना चाहता हूं। जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा बीते कुछ हफ्ते पहले अपने राजधानी प्रवास के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बुद्ध जयंती पार्क में गए थे। दरअसल बुद्ध जयंती पार्क भगवान बुद्ध के निर्वाण के 2500वें वर्ष के स्मरणोत्सव के समय 1959 में तैयार किया गया था। बुद्ध जयंती पार्क में एक पीपल का वृक्ष भी है जिसका संबंध भगवान बुद्ध से माना जाता है। जिस पीपल के पेड़ के नीचे भगवान बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त किया था, उसकी एक टहनी सम्राट अशोक के पुत्र द्वारा श्रीलंका में भी रोपित की गई थी। श्रीलंका की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती सिरिमाओ भंडारनायके ने इस वृक्ष की एक टहनी भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री को 1964 में भेंट की थी। उन्होंने उसी टहनी को 25 अक्तूबर 1964 को यहां रोपित किया था। आज यह वृक्ष पूर्ण रूप से हरा भरा है। इसके ही भारत और जापान के प्रधानमंत्रियों ने दर्शन किए। इसके पास बैठकर जो सुख मिलता है उसे शब्दों में व्यक्त करना असंभव है। यहां पर बुद्ध धर्म को मानने वाले देशों के राजनयिक और पर्य़टकों को लाना होगा। तिब्बत के आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा ने बुद्ध जयंती पार्क में स्थापित भगवान बुद्ध की सुंदर प्रतिमा को भेंट किया था। भगवान बुद्ध की यह प्रतिमा बैठी हुई अवस्था में है। दलाई लामा भी इधर बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर कई बार आ चुके हैं। वे जब यहां पर आते हैं तो हजारों तिब्बती भी उनके दर्शन करने के लिए पहुंच जाते हैं।
राजधानी के मंदिर मार्ग पर स्थित महाबोधि मंदिर बुद्ध पूर्णिमा पर जापान, कोरिया, थाईलैंड, श्रीलंका, वियतनाम जैसे बुद्ध धर्म को मानने वाले देशों के राजनयिक आते हैं। दिल्ली के इस पहले बुद्ध विहार का उदघाटन महात्मा गांधी ने 1939 में किया था। इस मंदिर का उदघाटन करते हुए गांधी जी ने कहा था कि यहां पर किसी भी इंसान को उसकी जाति या अन्य किसी कारण से नहीं रोका जाए। यह बिड़ला मंदिर के ठीक साथ में है।
इसके निर्माण में आई सारी लागत उद्योगपति जुगल किशोर बिड़ला ने वहन की थी। महाबोधि मंदिर में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर, श्रीमती इंदिरा गांधी जैसी शख्सियतें भी विशेष अवसरों पर आती रही हैं। इधर भगवान बुद्ध की एक सुंदर मूर्ति स्थापित है,जो पंडित नेहरू ने बुद्ध विहार को भेंट की थी। यह मूर्ति म्यांमार के मूर्तिशिल्पियों ने बनाई थी। महाबोधि मंदिर में काफी संख्या में श्रीलंका के पर्यटक आते रहे हैं।
पर बड़ा सवाल यह है कि राजधानी के महाबोधि मंदिर में और दूसर तमाम बुद्ध विहारों में बुद्ध धर्म के करोड़ों अनुयायियों ने क्यों नहीं आना शुरू किया है? अभी तो बुद्ध धर्म को मानने वाले देशों स बहुत कम पर्य़टक हमारे यहां आते हैं। कभी थाईलैंड या श्रीलंका जाइये। वहां बुद्ध मंदिरों में हर समय बौद्ध देशों के हजारों पर्यटक आ-जा रहे होते हैं। ये भगवान बौद्ध की मूर्तियों के दर्शन करके अभिभूत हो रहे होते हैं। ये स्थिति तब है जब इन देशों का बौद्ध से कोई सीधा संबंध नहीं है। श्रीलंका तो यह स्वीकार करता है कि बौद्ध धर्म उसे उपहार में भारत से ही मिला।
आपको याद होगा कि कुछ साल पहले बिहार के महाबोधि मंदिर में धमाकों के बाद विदेशी पर्य़टकों की आवाजाही प्रभावित हुई थी। हर साल बिहार आने वाले करीब 8-9 लाख से अधिक विदेशी सैलानियों का सबसे बड़ा हिस्सा बोधगया पहुंचता है। इधर ही सिद्धार्थ को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई और वे बुद्ध बने। बोधगया आने वाले पर्यटक सारनाथ अवश्य जाते हैं। सारनाथ में बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्त करने के बाद अपना पहला उपदेश दिया था।
जब केन्द्र और बिहार सरकार दुनियाभर में फैले 50 करोड़ बौद्ध धर्म के अनुयायियों को भारत के प्रमुख बौद्ध तीर्थ स्थलों की तरफ लाने की कोशिशें कर रही थी,तब महाबोधि मंदिर की घटना का होना कोई बहुत शुभ संकेत नहीं था। बुद्ध के अनुयायियों का भारत को लेकर आकर्षण स्वाभाविक है। बोधगया-राजगीर-नालंदा सर्किट देश के सबसे खासमखास पर्यटन स्थलों में माना जाता हैं पर्यटकों की आमद के लिहाज से। इधर दक्षिण-पूर्व एशिया, श्रीलंका,जापान वगैरह से पर्यटक पहुंचते हैं। और उसके बाद राजगीर चले जाते हैं, जहां से बुद्ध ने आगे की यात्रा की। यूं तो ये साल भर आते रहते हैं, पर अक्तूबर से मार्च तक उनकी आमद सबसे अधिक रहती है।
बोधगया और उससे सटे बुद्ध सर्किट के शहरों-राजगीर और नालंदा का दौरा करने वाले सभी पर्यटक साल भर में मोटा खर्च करते है। कुछ साल पहले पर्यटकों की बढ़ती संख्या की वजह से थाई एयरवेज, मिहिन लंका, भूटान की ड्रक एयर, म्यांमार एयरवेज इंटरनेशनल और म्यांमार एयरवेज बोधगया के लिए उड़ानें भरनी शुरू कर दी थीं। फिर कोविड के बाद हालात बदले। कुछ विदेशी एयरवेज ने अपनी उड़ानें बंद भी कर दीं। पर, जब से बुद्धसर्किट से जुड़े स्थानों को बेहतर बनाने का सिलसिला शुरू हुआ है, तब से थाईलैंड, श्रीलंका, साउथ कोरिया, जापान और तमाम बुद्ध धर्म को मानने वाले देशों से आने वाले पर्यटकों की तादाद में बढ़ी है। पर इसमें अभी भी बड़ी वृद्धि करना संभव है।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)