महेश खरे (वरिष्ठ पत्रकार)
कुदरत ने जिस धरती को अपनी नैमतों से नवाजा और संवारा है। पेड़, पानी और पहाड़ों के सौंदर्य से धरती को स्वर्ग जैसा रूप दिया है। उसी धरती के साथ जब आदमी विकास के नाम पर छेड़छाड़ करता है तो प्रकृति बदला भी उसी अनुपात में लेती है। कहीं पहाड़ दरक रहे हैं तो कहीं बादल फट रहे हैं। प्रकृति के कोप से उफनते सैलाब आए दिन कोहराम मचा रहे हैं। हम बात उस कश्मीर की कर रहे हैं जिसके बारे में कभी अमीर खुसरो ने कहा था-‘गर फिरदौस बर रूये ज़मी अस्त। हमी अस्त, हमी अस्त, हमी अस्त।’ अर्थात् अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, यहीं है। इस धरती को जिसने देखा उसने भी यही कहा। लेकिन, आज कुदरत के कहर से इन वादियों के कुछ हिस्सों में चीखें गूंज रहीं और आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे। कमोवेश ऐसा ही दर्दनाक मंजर उत्तरकाशी के धराली गांव में है। इस बार बरसात का मौसम जम्मू- कश्मीर, उत्तराखंड और हिमाचल समेत सीमावर्ती राज्यों में मुसीबतें लेकर आया। अब तक बादल फटने के 40 से अधिक छोटे-बड़े हादसे हो चुके हैं।
उत्तराखंड के धराली गांव में 5 अगस्त को बादल फटकर ऐसे जख्म दे गया जो दस दिन बाद भी हरे हैं। इसके बाद घाटी के किश्तवाड़ जिले के चिशोटी गांव में बादल सैलाब बनकर फटे और गांव में बर्बादी के निशान छोड़ गए। दोनों जगह तबाही ऐसे समय दबे पांव आई जब वहां भीड़ ज्यादा रहती है। मचैल माता मंदिर में 16-17 अगस्त को लगने वाले मेले में हर साल श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है। मंदिर में दर्शन के लिए उमड़ी भीड़ का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले साल दो लाख से ज्यादा श्रद्धालु आए थे। मंदिर जाने वाले श्रद्धालुओं का बेस कैम्प चिशोटी गांव ही है। लोग मचैल माता के दर्शन करने के लिए कार-बस से चिशोटी पहुंचते हैं। यहां से दो दिन की पैदल यात्रा शुरू होती है।
लोग बताते हैं- दोपहर में एक धमाका हुआ और जब तक कोई कुछ समझ पाता। सैलाब सामने था। कुछ लोग जो भाग सकते थे बच गए। जो नहीं भाग पाए वे या तो मलबे में दब गए या सैलाब उन्हें बहा ले गया। एनडीआरएफ, सेना और लोकल पुलिस के जवान राहत कार्य में जुटे हैं। 65 शव मिल चुके हैं। 38 घायलों की हालत गंभीर है। 167 लोगों को बचा लिया गया है। पूर्व सीएम फारुख अब्दुल्ला ने आशंका जाहिर की है कि ‘500 लोग या तो बह गए हैं या मलबे में दबे हो सकते हैं।’ बिलखते परिजन अपनों की खोज में भटक रहे हैं। जहां मकान, दुकान, बागान, बसें और कारें बह गई हों वहां इंसान की क्या बिसात? हर जुबान पर एक ही सवाल है। इन हरी भरी वादियों में तबाही के और कितने सैलाब बाकी हैं? पुंछ और पहलगाम भी बादल फटने के संताप से गुजर चुके हैं। किश्तवाड़ से पहले हिमाचल के रामपुर बुशहर और लाहौल स्पीति में भी कुदरत अपना रौद्र रूप दिखा चुकी है।
उत्तराखंड के धराली में तो एक के बाद एक आए पांच-छह सैलाबों ने देश को झकझोर कर रख दिया है। दस दिन बाद भी 100 से अधिक लोगों की तलाश हो रही है। सैलाब से सुरक्षित बचे लोगों के अनुसार धराली की कहानी कुछ प्राकृतिक तो है ही मानव निर्मित भी है। विकास के नाम पर पहाड़ तोड़ कर रास्ते बन रहे हैं। जंगल कट रहे हैं और कांक्रीट बढ़ता जा रहा है। प्रकृति के दोहन में आदमी आक्रामक है। वह आगा पीछा नहीं देख रहा। नतीजा यह है कि जलवायु परिवर्तन के रूप में मौसम हमारे सामने समस्याएं लेकर खड़ा है।
वैसे भी किसी जगह पर बहता पानी देख कर मानव का मन रोमांच से भर जाता है। जल क्रीड़ा करने को मन मचल उठता है। ठहरे जल से बने पोखरों या तालाबों में जो हादसे होते हैं उसके पीछे सेल्फी का क्रेज तो है ही। पानी से जुड़ा रोमांच भी है। प्राचीन काल से ही नागरिकों की बसाहट नदी तालाबों या अन्य जल स्रोतों के किनारे होती रही है। जीवन के लिए वैसे भी जल जरूरी है। कहते भी हैं- जल ही जीवन है। धराली में भी नदी किनारे बसने की ललक या रोमांच ज्यादा नुकसान का कारण बना। हरे भरे पेड़, पहाड़ और पानी का आकर्षण कुछ ज्यादा ही होता है। सैलाब से हर्षिल गांव में झील बन गई है। यह कृत्रिम झील पूरे हर्षिल के लिए खतरा बनी हुई है। गंगोत्री नेशनल हाइवे का नामोनिशान मिट गया। अब वहां मलवा ही मलवा जमा है। समीप ही सेना का कैम्प तबाह हो गया। गायब सैनिकों को अभी भी खोजा जा रहा है। मात्र 34 सैकेंड में छोटे से धराली गांव के लोगों के घरौंदों के साथ उम्मीदों भरे सपने बह गए।
आखिर बादल फटते क्यों हैं? इसके बारे में वैज्ञानिक दृष्टिकोण जाना पहचाना है। विज्ञान कहता है जब किसी छोटे से क्षेत्र में अचानक और बहुत तेज बारिश (100 मिलीमीटर या उससे अधिक) होती है। और जब आकाश में छाए बादलों तक नमी पहुंचनी बंद हो जाती है, तब शीतल हवा के झौंके बादलों में प्रवेश कर जाते हैं। नतीजतन सफेद बादल काले बादलों में बदल जाते हैं और तेज बारिश शुरू हो जाती है। जब नमी और गर्मी का स्तर वातावरण में काफी बढ़ जाता है। तब ही बादल फटने की घटनाएं होती हैं और धरती पर पलक झपकते ही जानलेवा जलप्रलय तबाही मचाने लगती है। बादल में पानी जितनी मात्रा में होता है बाढ़ का वेग भी उसी अनुपात में कम ज्यादा होता है।
उत्तराखंड, केरल, जम्मू-कश्मीर, मिजोरम, त्रिपुरा, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश में 1998 से 2022 के बीच पहाड़ ढहने की सबसे अधिक घटनाएं हुईं। इस सूची में मिजोरम सबसे ऊपर है, जहां पिछले 25 वर्षों में 12,385 भूस्खलन के हादसे हुए। 2017 अकेला ऐसा वर्ष है जिसमें 8,926 पहाड़ दरकने की घटनाएं हुईं। एक साल पहले ही तो केरल का वायनाड भूस्खलन और बाढ़ की त्रासदी झेल चुका है। एक रात में मुंडक्कई, चूरलमाला और मल्लापुरम की तबाही से अभी भी लोग उबर नहीं पाए हैं। बढ़ते शहरीकरण और जंगलों की बेतहाशा कटाई का खामियाजा गांव को ही ज्यादा उठाना पड़ता है। प्रकृति के कोप का भाजन ग्रामीण इलाके ही बनते हैं। जलवायु परिवर्तन का दंश शहर भी झेल रहे हैं। मुंबई, पुणे, दिल्ली, गुरुग्राम जैसे हाई-टेक शहरों में बाढ़ और भूस्खलन के दृश्य आम हैं।
ढहते पहाड़, फटते बादलकब थमेगा कुदरत का कहर?
