
आंबेडकर ने दलित अस्पृश्य जातियों के लिए ( इन्हें पंचम वर्ण कहा जाता था ) विधान मंडलों में आरक्षण की मांग की थी . मुसलमानों को इस तरह का आरक्षण पहले से मिल रहा था. लेकिन आंबेडकर की यह अनेक मांगों में केवल एक मांग थी. उनकी मूल चिंता थी कि जातिप्रथा का समूल उच्छेद कैसे किया जाय. क्योंकि इसके होते दलित लोग लोकतान्त्रिक समाज में भी हाशिए पर बने रहेंगे. उन्होंने आरक्षण को भी एक तय समयावधि तक के लिए ही उपयुक्त माना था. अनंतकाल तक आरक्षण तो एक समान्तर जातिभेद को खड़ा कर देगा. इन तमाम मुद्दों पर आंबेडकर की सोच वैज्ञानिक और संतुलित थी. भारतीय संविधान में भी आरक्षण एक तय समय सीमा तक के लिए ही है. चूकि इस अवधि तक जातिभेद ख़त्म नहीं होता, इसीलिए इसकी सीमा बढ़ायी जाती रही है.
भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए तो धारा सभाओं ( राज्यसभा और विधान परिषदों को छोड़ कर ) आरक्षण की सुविधा स्वीकार की गई, लेकिन इनके अतिरिक्त पिछड़े वर्गों के लिए केवल आश्वासन दिया गया कि सरकार आयोग गठित कर इनका अध्ययन करेगी और निर्णय लेगी. कांग्रेस सरकार ने इस पर क्या किया यह सब को मालूम है.
एक लम्बे संघर्ष के बाद 1990 में अन्य पिछड़े वर्गों के मामले में सरकार ने निर्णय लिया. कांग्रेस सरकार में नहीं थी, किन्तु इस फैसले पर उसके नेता राजीव गाँधी ने गंभीर नाराजगी प्रदर्शित की. लेकिन राजीव की यह नाराजगी कांग्रेस नहीं, उनका व्यक्तिगत था. कांग्रेस के पिछड़े वर्ग के नेताओं ने इसका समर्थन किया. सीताराम केसरी जब राव सरकार में सामाजिक न्याय मंत्रालय के मंत्री बने तब उन्होंने मंडल आयोग की सिफारिशों को कार्यरूप देने में सार्थक भूमिका निभाई. लेकिन कांग्रेस ने केसरी के साथ जो बदसलूकी की वह एक सार्वजानिक मामला हो चुका है. इस दौर में कांग्रेस का चरित्र बन गया था कि कोई दलित पिछड़ा वर्ग का नेता वहां अपना मुंह नहीं खोल सकता था. इस मुद्दे पर कांग्रेस को सोचना होगा.
कांग्रेस का यह चरित्र कैसे बना? यह मानी हुई बात है कि आज़ादी के बाद से ही कांग्रेस समाज के ऊँची जातियों के प्रभाव में थी. पिछड़े तबके के लोग उनकी दया और विवेक पर थे. जैसे बिना किसी भेदभाव के सबको मताधिकार, ज़मीन्दारी और अस्पृश्यता के उन्मूलन के लिए कानून इसी दौर में बने. लेकिन फैसला लेने की मेज पर ये लोग नगण्य थे. बावजूद पिछड़े वर्ग के लोगों ने कांग्रेस का भरपूर साथ दिया. 1970 में जब इंदिरा गाँधी ने कुछ समाजवादी निर्णय लिए, जैसे बैंकों का समाजीकरण और प्रिवी पर्स की समाप्ति आदि तो उसे दलित-पिछड़े तबकों का एकमुश्त समर्थन मिला. बल्कि वर्चस्व प्राप्त लोगों ने इन सब पर विरोध किया. अपनी सुविधा के लिए उदाहरण बिहार से ही देना चाहूंगा. 1970 में कांग्रेस दो हिस्सों में विभाजित हो गई. संघटन कांग्रेस और इंदिरा कांग्रेस. बिहार कांग्रेस में तब चर्चित नेता थे सत्येंद्रनारायण सिंह, महेशप्रसाद सिंह और कृष्णवल्लभ सहाय. तीनों ऊँची जाति से आते थे और ये सब संघटन कांग्रेस में चले गए. ब्राह्मण नेता जरूर कांग्रेस में बने रहे. लेकिन पिछड़े और दलित वर्गों के सभी नेता इंदिरा गाँधी के साथ रहे.
कांग्रेस में तब पिछड़े वर्ग के बहुत सारे नेता थे. जगजीवन राम, रामलखन सिंह यादव,सुमित्रा देवी, लहटन चौधरी, देवशरण सिंह, डूमरलाल बैठा, राम जयपाल सिंह यादव, डीपी यादव और इनके साथ लम्बी कतार जिन के नाम दर्ज करने के लिए काफी जगह चाहिए. इनके बूते ही ऊँची जातियों के दिग्गज नेताओं को इंदिरा कांग्रेस ने धूल चटा दी. ऐसा ही दूसरे प्रांतों में भी हुआ था. अगले ही वर्ष 1972 के प्रांतीय चुनावों में भी इन सबके बूते लगभग पूरे भारत में कांग्रेस एक बार फिर सत्तासीन हुई. लेकिन कांग्रेस ने किया क्या? पिछड़े-दलित तबकों को कुछ नहीं मिला. बिहार में कांग्रेस ने कभी दरोगा राय और भोला पासवान को मुख्यमंत्री बनाया था. उसके बाद इन सबको सिरे से भूल गई. बिहार में केदार पाण्डे, उत्तरप्रदेश में कमलापति त्रिपाठी, राजस्थान में जोशी, मध्य्प्रदेश में शुक्ल, उड़ीसा में सत्पथी , बंगाल में सिद्धार्थ शंकर राय, आँध्रप्रदेश में नरसिंह राव. ये सब थे कांग्रेस के ‘समाजवादी’ मुख्यमंत्री. इस में कोई कांग्रेसी मुख्यमंत्री हाशिए के समाज का नहीं था.
1977 में कांग्रेस पराजित हुई, लेकिन तीन वर्षों के बाद ही 1980 में वह फिर सत्ता में आ गई. बिहार में अगले दस वर्षों तक वह शासन में रही. इसमें पांच मुख्यमंत्री हुए. नाम देखते जाइए. जग्गनाथ मिश्रा, चंद्रशेखर सिंह, बिंदेश्वरी दुबे, भगवत झा, सत्येंद्रनारायण सिन्हा और फिर जग्गनाथ मिश्रा. इन दस वर्षों में कोई दलित-पिछड़ा इन्हे मुख्यमंत्री के लायक नहीं दिखा. तो यह रहा है कांग्रेस का द्विज लोकतंत्र.
अब कांग्रेस नेता राहुल को इन पिछड़े वर्गों की चिन्ता हुई है. इसका स्वागत करना चाहूँगा. लेकिन उनकी कार्यशैली को देखिए. वह लोकदली तौर-तरीकों और नारों को बिना सोचे समझे अपनाते जा रहे हैं. लोकदली घरानों के ऐसे जातिवादी कार्यकर्ता एकबारगी उनके इर्द-गिर्द घिरने लगे हैं,जो जाति से इतर कुछ सोचते ही नहीं. उनके बूते क्या वे सचमुच कोई सम्यक सोच विकसित कर पाएंगे ? जातिगणना पर उन्होंने अटकलपच्चू बयान देकर अपनी ढुलमुल वैचारिक स्थिति का परिचय दिया है. कांग्रेस को यदि सामाजिक न्याय के अजेंडे को लेना है तो इस पर वह अपनी राय विकसित करे. जातिप्रथा को अंततः हमें समाप्त करना है. हमारा उद्देश्य यही होना चाहिए. लेकिन हमें इस तरह की कोशिश करनी है कि हमारा लोकतंत्र सामाजिक लोकतंत्र भी बन सके. स्त्रियों, दलितों , पिछड़े तबकों को हर स्तर पर प्रतिनिधित्व मिलना सुनिश्चित हो. इसके लिए आवश्यक होगा कि राहुल अपनी पूरी पार्टी को एकबार उस तरह उलटपुलट दें, जैसा कुमारसामी कामराज ने 1963 में किया था. इसे कामराज योजना कहा जाता है. सब से पहले वह कांग्रेस कार्य समिति ( सी डब्लू सी ) को देखें कि वहाँ सामाजिक प्रतिनिधित्व किस तरह के हैँ.
कांग्रेस का परिमार्जन दूसरे स्तर पर भी हो. मसलन वे अपने व्यक्तित्व का परिष्कार करें. कुछ चुप रहना सीखें. नरेंद्र मोदी की तरह अधिक बोलने के चक्कर में वह अपनी ही फजीहत करवा लेते हैं. कामराज बहुत कम बोलते थे. उनका काम दीखता था. कामराज ऐसे कांग्रेस नेता थे जिन्हें आज राहुल अपना आदर्श बना सकते हैं. बातें कम, काम ज्यादा. इसके अलावे कांग्रेस अपनी कामकाजी भाषा को हर स्तर पर देसी बनावे. अंग्रेजी संस्कृति को दूर करे. पहनावा, रहन-सहन में सादगी-सहजता और हर नेता को कुछ समय तक ग्रामीण इलाकों में रहने का पाठ देना चाहिए. सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक मामलों में एक संगति जरूर हो,लेकिन ये सब अलग-अलग मामले भी हैं, इसका ध्यान हो. अन्यथा मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं. इन सब के साथ देशभक्ति और भविष्य के समाज की चिन्ता कार्यकर्त्ता में होनी चाहिए. इन सब के सहारे ही वह नयी कांग्रेस खड़ी कर सकते हैं.
गलतियों को स्वीकार कर उसकी समीक्षा और आगे के कार्यक्रमों पर सार्थक विचार निरंतर करना होगा. तकनीक अब एआई के दौर में आ गया है. इस दौर में समाज के उत्पीड़ित तबकों की राजनीति क्या केवल पांच किलो मुफ्त अनाज पाने की होगी या फैसले लेने वाली बेंच पर भी उनकी कोई भागीदारी होगी ? इस सवाल का कोई जवाब निकालना होगा. लेकिन मैं फिर निवेदन करूँगा वह लोकदली नारों से दूर रहें. हो सके तो कांग्रेस इस विषय को लेकर चिंतन-शिविर आयोजित करे और वहां कोई निर्णय ले. नेहरू और आंबेडकर की वैचारिकी और गाँधी की चेतना को केन्द्र में रख कर वह कार्यक्रम तय कर सकते हैँ.