राष्ट्रनायक सरदार वल्लभभाई पटेल झवेरदास पटेल की याद को नेहरू परिवार ने मिटाने का अथक प्रयास किया था। भला हो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जिन्होंने केवडिया (गुजरात) में सरदार पटेल का स्मारक बनवाया। वर्ना नेहरू-इंदिरा राज में तो उन्हें लुप्त ही करा दिया गया था। जयंती पर इस लौह पुरुष को यादकर उनके जीवन पर गौर करना होगा। यह देश को बताने की जरुरत है कि किस भांति इस राष्ट्रनायक को नेहरू परिवार ने मिटाने की साजिश रची थी। पेश हैं दस्तावेज और सबूतों के साथ एक तथ्यात्मक विवरण।
विदेश मंत्री और पूर्व में वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी रह चुके, एस. जयशंकर ने एक किताब के विमोचन पर दिल्ली में (12 फरवरी 2020) बताया था कि जवाहरलाल नेहरू ने प्रारम्भ में सरदार वल्लभभाई पटेल का नाम अपनी काबीना लिस्ट में शामिल नहीं किया था। अर्थात बाद में जोड़ा गया। वह स्वतंत्र भारत का प्रथम मंत्रिमंडल था। (दैनिक भास्कर, 12 फरवरी 2020)। हालाँकि कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने इसका खण्डन किया है। विदेश मंत्री ने सरदार पटेल के सचिव रहे स्व. वी. पी. मेनन की पुस्तक का नई दिल्ली में विमोचन किया था, जिसमें इसका सन्दर्भ है। जयशंकर ने इस घटना पर विस्तृत शोध की माँग की। वीपी मेनन ने सरदार पटेल के महान कार्य (सैकड़ों रजवाड़ों का नये सार्वभौम राष्ट्र में एकीकरण) में प्रमुख भूमिका निभाई थी। यदि यह एकीकरण विफल हो जाता तो आज निजाम हैदराबाद इस्लामी पाकिस्तानी गणराज्य का प्रदेश होता, जिसकी राजधानी कराची होती। मेनन की सूचना पर संदेह नहीं किया जा सकता है।
इस वारदात की उसी कालखण्ड की एक अन्य घटना से तुलना करें। कांग्रेस वर्किंग कमिटी में कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आजाद के उत्तराधिकारी हेतु प्रस्ताव (1947) पर चर्चा हो रही थी। पार्टी मुखिया को ही आजाद राष्ट्र का प्रधान मंत्री बनना था। गाँधी जी ने कमेटी को सूचित किया कि एकाध को छोड़ सभी प्रदेश कांग्रेस कमेटियों ने सरदार पटेल का नाम प्रस्तावित किया है। फिर बापू ने कहा- ‘जवाहर तुम्हारा नाम किसी भी प्रदेश ने नहीं प्रस्तावित किया है।’ कुछ रुक कर बापू बोले- ‘सरदार मेरी इच्छा है कि तुम जवाहर के खातिर अपना नाम वापस ले लो।’ सरदार पटेल बोले- ‘जी बापू।’ और तब नेहरू ने प्रधानमंत्री की शपथ ले ली। पटेल के इन दो अल्फाजों ने इतिहास बदल डाला।
आखिर क्या विवशता थी बापू के सामने ? नेहरू से सरदार पटेल कदापि कम लोकप्रिय नहीं थे। शायद गाँधी जी को आशंका हुई होगी कि प्रधानमंत्री पद न मिलने पर नेहरू भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दो फाड़ कर देते। स्वतंत्रता के प्रथम मास में ही कांग्रेस का विभाजन निश्चित तौर पर जिन्ना को लाभ पहुंचाता। बंगाल और समूचा पंजाब पाकिस्तान हथिया लेता। टूटी हुई कांग्रेस ब्रिटिश वायसराय की उपेक्षा भुगत सकती थी। नामांकन से वंचित नेहरू को तब क्या एहसास हो रहा होगा। इसका बस अनुमान मात्र लगाया जा सकता है। वायसराय माउन्टबेटन से नेहरू की यारी घनी थी। पटेल ने इतिहास को अवश्य तौला होगा। विभीषिका को महसूसकर अपने से उम्र में छोटे नेहरू के मातहत काम करना स्वीकारा था।
यहाँ उल्लेख हो जाय कि नेहरू की इकलौती पुत्री इंदिरा गाँधी ने अपने नेतृत्व को चुनौती मिलने पर तीन बार कांग्रेस तोड़ी थी। पहले 1971 में, फिर 1977 और 1978 में। इंदिरा ने ताश के पत्ते की भांति कांग्रेस अध्यक्षों को बदला था। इनके नाम हैं: जगजीवन राम, शंकर दयाल शर्मा, देवराज अर्स कासू, ब्रम्हानंद रेड्डी तथा “इंदिरा इज इंडिया कहने वाले” देवकांत बरुआ। फिर इंदिरा स्वयं अध्यक्ष बन बैठीं। उनकी हत्या के बाद पुत्र राजीव गाँधी बने। अब उनकी पत्नी और पुत्र मिल्कियत संभाल रहे हैं।
नरेंद्र मोदी के आने के पहले तक सरदार पटेल इतिहास में दबा दिये गये थे। भूल से ही याद किये जाते थे। जरा सोचिये। जवाहरलाल नेहरु को भारत रत्न अपने जीते जी मिल गया था। सरदार पटेल को मरणोपरान्त चालीस वर्षों (1991) बाद ? वह भी दूसरी पार्टी की सरकार ने दिया। पटेल राष्ट्रीय कांग्रेस के पुरोधा थे, पर पार्टी ने उनके योगदान पर ध्यान नहीं दिया। पटेल की प्रतिमा संसद परिसर में स्थापित हुई 1972 में, उनके निधन के बाइस वर्षों पश्चात। पटेल की जन्मशती पड़ी थी 31 अक्टूबर 1975 में, जो मनाई नहीं गई। इन्दिरा गांधी ने उन दिनों भारत पर आपातकाल थोप दिया था। तानाशाही से राष्ट्र त्रस्त था। भय था कहीं सरदार पटेल की जयन्ती पर जनता विद्रोह न कर बैठे। अब तो 31 अक्टूबर पर इन्दिरा गांधी का बलिदान दिवस पड़ता है। पटेल जयन्ती तो बिसरा दी गई। लौह पुरुष हाशिये पर डाल दिए गये। पटेल की वर्षगांठ पर संसद मार्ग के पटेल चौक पर लगी उनकी प्रतिमा पर वर्ष 2014 के पूर्व तक माला ही नहीं होती थी।