indian constitution
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Umesh Chaturvedi
Umesh Chaturvedi

भारतीय संविधान इमरजेंसी लाइट की तरह है। जब कभी हालात का घना अंधेरा देश के सामने उलझन जैसी स्थिति पैदा करते हैं, संविधान खुद-ब-खुद उजाला बन सामने हाजिर हो जाता है। संविधान के अंजोर में देश को सही राह दिख जाती है। आपातकाल जैसे एक-आध अपवादों को छोड़ दें तो पचहत्तर साल से यह संविधान हमारे लिए रोशनी की लकीर बना हुआ है। देश के सामने जब भी भटकाव जैसे हालात होते हैं, संविधान से ही आगे बढ़ने की राह निकल आती है।

दुनिया के विकसित और बड़े माने जाने वाले लोकतंत्रों में भी संवैधानिक व्यवस्था लागू होने या स्वाधीनता के तुरंत बाद समानता के आधार पर वयस्क मतदान का अधिकार नहीं मिला। लेकिन महज 18.33 प्रतिशत साक्षरता वाला देश लोकतंत्र की मजबूत राह पर चल पड़ा। ये सब उपलब्धियां अगर भारतीय लोकतंत्र को हासिल हुई हैं, तो इसकी मजबूत बुनियाद भारतीय संविधान ने रखी।

इसी भारतीय संविधान ने 26 नवंबर के दिन 75 साल की यात्रा पूरी कर ली है। 64 लाख रूपए के कुल खर्च और दो साल 11 महीने 18 दिन तक चली बहसों के बाद इसी दिन 1949 में देश ने भारतीय संविधान को अंगीकृत किया था। इसके ठीक दो महीने बाद यानी 26 जनवरी 1950 को देश ने इसे लागू किया और तब से यह हमारी लोकतांत्रिक राष्ट्र यात्रा की आत्मा, धड़कन, रक्त बना हुआ है। संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष भीमराव अंबेडकर को हमने संविधान के निर्माता के रूप में स्वीकार कर लिया है, लेकिन संविधान के निर्माण में 389 सदस्यों के साथ ही बीएन राव जैसे व्यक्तियों का योगदान कम नहीं रहा। भारत को आजादी देना जब तय हुआ, उसके पहले पंडित नेहरू की अगुआई में एक अंतरिम सरकार बनी।

उसी अंतरिम सरकार के मुखिया के नाते जवाहरलाल नेहरू और उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल ने कर्नाटक के जाने माने विधिवेत्ता बेनेगल नरसिम्ह राव यानी बीएन राव को विधि सलाहकार के पद पर नियुक्त करके संविधान का प्रारूप तैयार करने की जिम्मेदारी दे दी थी। मद्रास और कैंब्रिज विश्वविद्यालय से पढ़े राव 1910 में भारतीय सिविल सेवा के लिए चुने गए। साल 1939 में राव को कलकत्ता हाई कोर्ट का न्यायाधीश बनाया गया। इसके बाद जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने 1944 में उन्हें अपना प्रधानमंत्री बनाया। भारत सरकार के संविधान सलाहकार के नाते उन्होंने वर्ष 1945 से 1946 तक अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन आदि की यात्रा की और तमाम देशों के संविधानों का अध्ययन किया। इसके बाद उन्होंने 395 अनुच्छेद वाले संविधान का पहला प्रारूप तैयार करके संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डा. आंबेडकर को सौंप दिया।

29 अगस्त 1947 को प्रारूप समिति की बैठक में कहा गया कि संविधान सलाहकार बीएन राव द्वारा तैयार प्रारूप पर विचार कर उसे संविधान सभा में पारित करने हेतु प्रेषित किया जाए। संविधान सभा में संविधान का अंतिम प्रारूप प्रस्तुत करते हुए 26 नवंबर 1949 को भीमराव आंबेडकर ने जो भाषण दिया था, उसमें उन्होंने संविधान निर्माण का श्रेय बीएन राव को भी दिया है।

संविधान सभा में कई मुद्दों पर सदस्यों के बीच तीखी बहसें हुईं। आज जिसे हम लोकशाही या नौकरशाही कहते हैं, उसके अधिकारों को लेकर भी तीखी बहस हुई। दिलचस्प यह है कि संविधान सभा के कई सदस्यों को ब्यूरोक्रेसी को संवैधानिक अधिकार संपन्न बनाने पर एतराज था। उनका मानना था कि वे वैसा ही काम करेगी, जैसा अंग्रेजी सरकार के दौरान करती थी। एम ए अयंगार जैसे वरिष्ठ और माननीय सवाल ने नौकरशाही को वेतन और अधिकार की गारंटी देने पर सवाल उठाते हुए पूछा था था कि जब आम आदमी को रोटी और कपड़ा की गारंटी नहीं है, तो उन अधिकारियों को गारंटी क्यों दी जाए, जो विदेशी सत्ता की कठपुतली थी। तब पटेल ने अधिकारियों को ताकत देने का बचाव करते हुए तर्क दिया था कि एक बार अफसरशाही स्थापित हो जाएगी तो अधिकारी बदलाव के लिए राजी हो जाएंगे। लेकिन सवाल यह है कि क्या अधिकारी बदलाव को राजी हुए, क्या वे लोकोन्मुख हुए, क्या उनका व्यवहार पुराने जमींदारों, रजवाड़ों या अंग्रेजों जैसा नहीं है? अपवादों को छोड़ दें तो कितने अधिकारी ऐसे हैं, जो खुद को आम लोगों जैसा मानते हैं और विशेषाधिकार नहीं चाहते ?

भारत की भाषा समस्या का समुचित समाधान संविधान में नहीं दिखता। देसी होकर भी हिंदी अब भी दक्षिण और पूर्व के कुछ राज्यों के लिए स्वीकार्य नहीं बन पाई है और विदेशी अंग्रेजी इस देश की असल ताकतवर और राजभाषा बनी हुई है। हिंदी की जगह भारतीय भाषाओं की बात करने से हिंदी विरोध की आंच धीमी तो हो जाती है, लेकिन अंग्रेजी की ताकत नहीं घटती। अंबेडकर चाहते थे कि संस्कृत राजभाषा हो, लेकिन नेहरू के दबदबे के चलते अपनी राय को मजबूती से रख नहीं पाए।

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