शंभूनाथ शुक्ल
(वरिष्ठ पत्रकार)
यह सवाल अहम है कि वास्तविक शिक्षा आखिर है क्या? अलग-अलग तरह के जवाब होंगे। कुछ का मानना होगा कि उच्च शिक्षा हासिल कर नाम के आगे तमाम डिग्रियां लगा लेना अथवा प्रोफेशनल शिक्षा ग्रहण कर एक बढिय़ा कैरियर बना लेना ही वास्तविक शिक्षा है। मगर मेरा मानना है कि वास्तविक शिक्षा का मतलब मनुष्य के अंदर विनय का आ जाना है। इसीलिए कहा गया है- विद्या ददाति विनयं। अर्थात विद्या विनय प्रदान करती है। खूब डिग्रियां हासिल करने के बाद भी अगर किसी में विनय नहीं हो तो क्या लाभ। विनय उसे अपनी शिक्षा का आम लोगों के हित में उपयोग करना सिखाएगा। शिक्षा का असली अर्थ है कि किस तरह व्यक्ति अपनी शिक्षा का उपयोग आम लोगों की भलाई में करे। पता लगा कि किसी ने शिक्षा तो खूब अर्जित की और तमाम डिग्रियां उसके नाम की शोभा बढ़ाने लगे पर उसने इस शिक्षा का उपयोग किसी के लिए नहीं किया, बस स्वयं पढ़े और चले गए तो ऐसी शिक्षा व्यर्थ ही कही जाएगी। शिक्षा वह है जो एक नहीं बहुतों के काम आए। और यह तब ही संभव है जब मनुष्य शिक्षा के साथ-साथ विनयशील और परोपकारी वृत्ति का होगा। परोपकार की भावना ही उसे उसकी शिक्षा का सही उपयोग सिखाएगी।
ईश्वर चंद्र विद्यासागर 19 वीं सदी के बड़े भारी विद्वान थे पर उन्होंने अपनी विद्वता सिर्फ अध्यापन तक ही नहीं सीमित रखी उन्होंने समाज सेवा के तमाम काम किए। चाहे वह विधवा विवाह हो अथवा राजा राममोहन राय के सती प्रथा निषेध को अमली जामा पहनाने का काम ईश्वर चंद्र विद्यासागर हर जगह बराबर जुटे रहे। महात्मा गांधी अगर वकील बनकर बैरिस्टरी करते रहते तो हो सकता है कि वे खूब पैसा कमा लेते और जीवन ठाठ से गुजारते मगर उन्होंने सिर्फ एक धोती पहनने और सादगी के साथ रहकर देश सेवा का व्रत लिया। अंग्रेजों से लडऩे के लिए उन्होंने ऐसे उपाय निकाले जो तब तक के परंपरागत आजादी के लड़ाकों से उनको अलग करते थे। अहिंसा और झूठ न बोलने का प्रण उन्होंने अपनाया। यह सब आसान नहीं था मगर गांधी जी की शिक्षा उन्हें इसी मार्ग पर चलने को प्रेरित करती थी। यह शिक्षा उन्हें लंदन जाकर बैरिस्टरी की डिग्री लेने से नहीं मिली यह शिक्षा तो उन्हें अपनी उन मां से मिली जो अनपढ़ और धार्मिक किस्म की सीधी-सादी महिला थीं लेकिन उनके अपने कुछ उसूल थे और ये उसूल गांधी जी ने ग्रहण किए। मराठा वीर शिवाजी को अनवरत लडऩे का जज्बा अपनी मां जीजाबाई से मिला जो उन्हें प्रेरित करती थीं कि कुछ जीतकर ही भोजन ग्रहण करो। इससे पता चलता है कि विश्वविद्यालय डिग्री तो बाट सकते हैं पर मनुष्यता, परोपकार, विनयशीलता और क्रियेटिव बने रहने के गुण आदमी को अपने परिवार से ही मिलते हैं। यह शिक्षा उस पारंपरिक शिक्षा से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है जो आदमी अकादमिक संस्थानों और विश्वविद्यालयों से ग्रहण करता है।
विश्व में जितने भी महान लोग हुए हैं उनके परिवार से ऐसी शिक्षा मिली कि उनके जीवन में उदात्तता के गुण स्वत आ गए। बुद्घ, महाबीर आदि हमारे नायक इसलिए अपने अंदर उदात्त गुण ला पाए क्योंकि उनके परिवारों से उन्हें ऐसी ही शिक्षा मिली थी। अपने चचेरे भाई देवव्रत द्वारा घायल किए गए हंस को शुद्घोधन पुत्र सिद्घार्थ ने उठा लिया और कहा कि देवव्रत मारने वाले से बचाने वाले का अधिकार अधिक होता है इसलिए यह हंस मेरा हुआ। सिद्घार्थ ने उसकी सेवा की और हंस बच गया। सिद्घार्थ को बचपन में यही सीख मिली थी और इसीका नतीजा हुआ कि आगे चलकर यही बालक सिद्घार्थ गौतम बुद्घ बना जिसने पूरे विश्व का दर्शन ही बदल दिया। अगर बचपन से ही सिद्घार्थ को ऐसी सीख न मिली होती तो सिद्घार्थ भी अपने भाई देवव्रत की तरह रहता और जानवरों का शिकार करते समय घायल पशु या पक्षी की पीड़ा उसे कतई विचलित न करती। मगर सिद्घार्थ के बचपन की सीख ने उसे महान बनाया। यह शिक्षा सिद्घार्थ ने किसी गुरुकुल जाकर नहीं ग्रहण की बल्कि उसे अर्जित किया अपने परिवार की सीख से।
यहां हम डॉक्टर अंबेडकर को लेते हैं। वे जिस तरह के गरीब परिवार से आए थे वहां उन जैसा डिग्रीधारी शायद ही कोई रहा होगा। अतिशय विद्वान थे वे और अगर चाहते तो देश या विदेश के किसी भी अकादमिक संस्थान में ठाठ से नौकरी करते और अच्छा वेतन अर्जित करते मगर उन्होंने अपनी शिक्षा का उपयोग निजी हित में करने की बजाय अपने समुदाय के लोगों के हित में किया। भले तब तक गांधी जी समाज के इस उपेक्षित वर्ग के लिए बराबरी का दर्जा दिए जाने की मांग करने लगे थे पर गांधी जी की मांग और उनकी इस वर्ग के प्रति समझ अलग थी। चूंकि उनके अंदर करुणा थी इसलिए वे समाज के दलित वर्ग को मंदिर प्रवेश या उनके साथ बैठकर भोजन करने की बात उठाने लगे थे पर डॉक्टर अंबेडकर स्वयं उसी वर्ग से आए थे। वे अपने समाज की पीड़ा को जितना समझते थे उतना गांधी जी नहीं समझ सकते। इसीलिए डॉक्टर अंबेडकर दलितों के कल्याण नहीं बल्कि भारतीय समाज में उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे थे। इसके लिए डॉक्टर अंबेडकर ने अपनी सारी शिक्षा और योग्यता का इस्तेमाल किया। आज अगर दलित समुदाय बराबरी के स्तर पर आ पाया है तो इसमें डॉक्टर अंबेडकर का अनथक श्रम है।
जाहिर है वास्तविक शिक्षा का मतलब है अपने अंदर के गुणों को विकसित करना। यह विकास किसी संस्थान या कालेज अथवा विश्वविद्यालय में नहीं अपने घर से ही विकसित होगा। मनुष्य के अंदर गुण-अवगुण दोनों होते हैं बस फर्क सिर्फ इतना है कि किन गुणों का विकास उस मनुष्य के अंदर हुआ। समाज के मानवीय मूल्यों का विकास हुआ तो उसके हृदय में उदारता और समरसता के गुण आएंगे और अगर इसके उलट हुआ तो असहिष्णुता और क्रूरता के गुणों का विकास होगा। सब कुछ बच्चे के आंतरिक विकास पर निर्भर करता है और यह विकास उसका परिवार ही निर्धारित कर पाता है। बच्चे को परिवार ने कैसे संस्कार दिए, यही अहम है। परिवार की यही शिक्षा उसे जीवन भर याद रहती है। मगर आज परिवार जिस तरह एकल होते जा रहे हैं उससे एक खतरा पैदा हो गया है कि जब परिवार में पति-पत्नी के अलावा दादा-दादी अथवा नाना-नानी नहीं हैं तो बच्चे का उस तरह विकास नहीं हो पाता जैसा कि संयुक्त परिवारों में होता है। शायद इसीलिए अब बहुत सारे स्कूलों में नर्सरी में एडमिशन के वक्त स्कूल प्रबंधन उन बच्चों को वरीयता देता है जिनके साथ उनके दादा-दादी या नाना-नानी रहते हैं। संयुक्त परिवारों में बच्चे उस तरह अकेला नहीं महसूस करते जितना कि वे उस समय करते हैं जब परिवार में उनके अपने मां-बाप के अलावा और कोई न हो। अकेला बच्चा अपने उदात्त गुण को विस्मृत कर देता है जबकि संयुक्त परिवारों में ऐसा नहीं होता क्योंकि वहां निरंतर उन पर दबाव रहता है विनयशीलता का तथा परोपकार और अपने से बड़ों का आदर करने का।
हमारे समाज में यह मानकर चला जाता है कि अगर कोई व्यक्ति पढ़ा-लिखा होगा तो वह विनयशील तो होगा ही। पर वास्तविक रूप से इसका उलटा देखने को मिलता है। कभी भी किसी भी भीड़भाड़ भरी सड़क पर जिस तरह परस्पर झगड़े होते हैं उसे देखकर लगता नहीं कि हमारा पढ़ालिख समाज वाकई विनयशील है। जरा-जरा सी बात पर रोडरेज या छोटी-छोटी बातों पर दुस्तर कदम उठा लेने के उदाहरण अक्सर देखने को मिलते हैं। और यह सब कोई अनपढ़ लोग नहीं बल्कि बहुत ज्यादा पढ़े-लिखे लोग करते हैं। यहां तक कि सोशल मीडिया पर जिस तरह के कमेंट देखने को मिलते हैं उनसे तो यही लगता है कि लोगबाग अब संयम, विनय और धैर्य खोते जा रहे हैं। पहले समाज में ये गुण हुआ करते थे जो किसी कालेज में नहीं बल्कि समाज ही उनकी शिक्षा देता था। परोपकार की भावना, उदारता और किसी को देखकर स्वाभाविक विनय का प्रदर्शन। पर आज समाज स्वयं इन गुणों को खोता जा रहा है तब हम अपनी नई पीढ़ी से कैसे अपेक्षा करें कि वह इन गुणों को बनाए रखेगी। इसका अहम कारण है कि आज मूल्य बदल गए हैं। दिखावा आज का मूल मंत्र है इस कारण अपने आंतरिक गुणों का विकास अब दब गया है लेकिन फिर भी अक्सर हम पाते हैं कि उच्च शिक्षा संस्थानों से निकले बच्चे अचानक उस फील्ड में चले जाते हैं जहां पैसा कम है, भौतिकता कम है मगर आत्मिक शांति है। अगर ऐसा नहीं होता तो मेधा पाटकर न होतीं न ही संदीप पांडेय। पर इसके लिए अपने लोभ से स्वयं को उबारना होगा और सादगी के जीवन को अपना लक्ष्य बनाना होगा।
स्पष्ट है कि जीवन में वास्तविक शिक्षा डिग्रियां लादना नहीं बल्कि उन गुणों को अपने अंदर ग्रहण करना है जिससे यह मनुष्य जाति मनुष्य बनी है। वर्ना इस प्रकृति में जीवधारी तो अनेक हैं पर मनुष्य जैसा कोई नहीं। और यह वास्तविक शिक्षा किसी बच्चे को कालेज से नहीं बल्कि उसके अपने परिवार से मिलेगी तथा परिवार को ही बच्चे में ये गुण विकसित करने होंगे ताकि वह मनुष्य बना रहे। मनुष्यता के लिए किसी बाह्यï शिक्षा की नहीं बल्कि अपने अंदर के गुणों को ही विकसित करना होता है और यही हमारे जीवन की वास्तविक शिक्षा है ताकि हम शिक्षित बनें। और यही शिक्षा हमें अंदर से सबल भी बनाती है।