लेखक अनेक किस्म के होते हैं। लेकिन प्रेमचंद या यशपाल होना मुश्किल होता है। वह हमारी जुबान, यानी हिंदी के लेखक हैं। उस हिंदी के, जिसे बोलने वाले आम तौर पर कुछ गोबदे माने जाते हैं। हिंदी भाषियों के इलाके को विद्वत समाज में काऊ-बेल्ट या गोबरपट्टी कहा जाता है। मैं नहीं जानता, इस इलाके के लोगों ने इस पर गंभीरता से कभी विचार किया है या नहीं। गांधी जी जब हिंदी साहित्य सम्मलेन के दूसरी दफा अध्यक्ष थे, तब उन्होंने 1935 के इंदौर सम्मेलन में हिंदी लेखकों से पूछा था – आपके बीच कोई रवीन्द्रनाथ टैगोर, जगदीशचंद्र बसु या प्रफुलचन्द्र राय क्यों नहीं है ? किसी से कोई जवाब नहीं मिला। उस वक़्त दूर स्थित हिंदी कवि निराला गाँधी पर कुछ कुपित जरूर हुए। लेकिन जवाब उनके पास भी नहीं था। 1939 में अपने एक संस्मरण में निराला ने उन दिनों की चर्चा की है। लेकिन गांधी ने जिस सन्दर्भ में यह कहा था, उसे वह नहीं समझ सके थे।
सामान्य तौर पर सामाजिक मामलों में दकियानूसी प्रवृत्ति के कहे जाने वाले गाँधी ने हिंदी लेखकों से यह क्यों पूछा था ? वह हिंदी क्षेत्र में रवीन्द्र, जगदीशचंद्र और प्रफुलचन्द्र की खोज क्यों कर रहे थे ? आखिर क्या था उन सब में जिसकी खोज गांधी इस गोबरपट्टी में कर रहे थे ? उन तीन में दो वैज्ञानिक और एक लेखक थे। शायद यह चीज थी वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण जो उन तीनों बंगालियों में था और हिंदी क्षेत्र में इसका चिर-अभाव था। मंदिरों, घड़ी-घंटों, बाबाओं, साधुओं और काहिलों का यह इलाका सामाजिक प्रतिगामिता का अखाडा था। यही वह क्षेत्र था जहाँ राजनीतिक आंदोलन चाहे जितने हो लें, सामाजिक आंदोलन बहुत सुस्त थे। जिसे रेनेसां या नवजागरण कहा जाता है,उससे हो कर हिन्दी समाज कभी नहीं गुजरा था।
साहित्य और समाज में एक द्वंद्वात्मक संबंध होता है। दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। यदि समाज में कोई आंदोलन आरम्भ होता है तो साहित्य उस से प्रभावित होता है और यदि साहित्य में कोई आंदोलन चलता है तो वह समाज को प्रभावित करता है। हिंदी इलाके में दोनों क्षेत्रों में कोई हलचल नहीं हुई। इसका कारण था कि जनसामान्य और भद्रलोक दोनों ही वैचारिक दरिद्रता के शिकार थे।
आलोचक वीर भारत तलवार ने अपनी किताब ‘रस्साकशी ‘ में हिंदी के उन्नीसवीं सदी के मनो-मिजाज की कुछ शिनाख्त की है। उन्होंने प्रश्न उठाए हैं कि हिन्दुओं के बीच चलने वाला आर्यसमाज आंदोलन भी सहारनपुर से पूरब की तरफ क्यों नहीं बढ़ सका ? हिंदी साहित्य में सामाजिक परिवर्तन के वे स्वर कमजोर अंदाज में हैं,जो बंगला,मराठी, गुजराती आदि में मुखर हैं। हम अपनी परंपरा की सम्यक आलोचना की जगह अभिनंदन करने में जुड़ गए। इन सब का मिला-जुला असर यह पड़ा कि हम सामाजिक गतिशीलता विकसित करने में पिछड़ गए। हम ने इनके कारणों की भी समीक्षा नहीं की। यशपाल,अज्ञेय, जैनेन्द्र, मुक्तिबोध,रांगेय राघव और रेणु जैसे कुछ लेखक अलग दिखते हैं, तो इसके कारण हैं। हमारी दरिद्रता तो यह है कि इसका भी विश्लेषण हम नहीं कर पाए हैं।
हिंदी लेखकों की आज की जमात को देखिए। आज भी वही सब है, जो पचास या सौ साल पहले था। मोटी-मोटी किताबों के लेखक अपने सामाजिक सरोकारों के नाम पर सिफर-शून्य हैं। पुरस्कारों की पगड़ी बांधे हमारे कवि मुर्दा शब्दों के विन्यास चाहे जितने गढ़ रहे हों, उनके साहित्य का कोई सामाजिक मूल्य नहीं है। वे अमरता की अभिलाषा में लिखे जा रहे हैं। सरकारी-दरबारी पुरस्कारों की वैशाखियों पर चलने-जीने वाले इन साहित्यकारों की औकात सामंती दुनिया के दरबारी भांड बराबर भी नहीं रह गई है। बावजूद अपने लेखक-कवि होने को लेकर ये आत्ममुग्ध हैं। यशपाल इसीलिए याद आते हैं।
3 दिसम्बर 1903 को पंजाब सूबे के फ़िरोज़पुर के एक आर्य समाजी परिवार में जन्मे यशपाल ने लाहौर में पढाई-लिखाई की थी। वह भगत सिंह से चार साल बड़े थे। उन दोनों की ही पढाई लाहौर के नेशनल कॉलेज में हुई थी, जहाँ उन दिनों उस ज़माने के राजनीतिक -सामाजिक विचारों पर खूब बहस होती थी। वहीं दोनों का परिचय हुआ और दोनों क्रान्तिकारी अभियान से जुड़े। यह कम लोग ही जानते हैं कि भगत सिंह के वैचारिक विकास में यशपाल की बड़ी भूमिका है। दोनों ज्यादातर मामलों पर सहमत थे। यशपाल और भगत सिंह की क्रांति केवल बम -पिस्टल पर टिकी नहीं थी। उस से अधिक वह वैचारिक आधार लिए थी। वह रामराजी गांधीवाद के खिलाफ थे,नास्तिक थे, ब्राह्मणवादी-पुरोहिती सोच के विरुद्ध थे, समाजवादी थे और सब से बढ़ कर यह कि वे हुकूमत बदलने से अधिक समाज को बदलना चाहते थे।
यशपाल की किताब सिंहावलोकन अब कोई नहीं पढ़ता। उनके दूसरे साहित्य की भी लोगों में कम ही चर्चा सुनता हूँ। ‘ दादा कॉमरेड,’ ‘ दिव्या’ या ‘झूठा-सच ‘ को हमारे ज़माने के सब से बड़े हिंदी आलोचक ने साडी-जंफरवादी कह कर ठिकाने लगा दिया। ‘गांधीवाद की शव परीक्षा,’ ‘ चक्कर क्लब, ‘ ‘ रामराज की पुड़िया ‘ आदि पढ़ने के लिए हौसला और कुव्वत चाहिए। अब इन सब को शायद ही कोई पढ़ेगा। हम सब ने मिल-जुल कर यशपाल को ख़ारिज कर दिया है।
लेकिन यशपाल अभी भी हमें हाँक देते हैं। पुकारते हैं। हम उनके ज़माने से भी बहुत पीछे चले गए हैं। आज जो वह होते, तो इस दकियानूसी माहौल और खौफ पर चुप नहीं होते। आज उनके जन्मदिन पर हम यदि उनके विचारों की दुनिया में झांकें तो उम्मीद की कोई रौशनी मिल सकती है। लेकिन शायद अब झाँकने के लिए भी साहस चाहिए।