सुधारों को रोकिए मत

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प्रेमकुमार मणि
प्रोमेथियस ग्रीक पौराणिकता का एक देवता है, जिसने पृथ्वी पर अंधकार में भटकते मनुष्यों पर कृपालु होते हुए देवताओं के लोक से आग चुराई और उसे किसी तरह छुपा कर मनुष्यों तक पहुंचा दिया। पौराणिक कथाएं प्रतीक स्वरूप होती हैं। उनके छुपे गूढ़ अर्थ होते हैं। हिन्दू पौराणिकता में भी अनेक देवी- देवता हैं और उनके कुछ गूढ़ अर्थ हैं। प्रोमेथियस देवता है, प्रभु वर्ग से है, किन्तु करुणा से भरा है। उसने अँधेरे में भटक रहे लोगों की पीड़ा पर विचार किया है और संकल्पित है कि उनके लिए कुछ करना है। देवलोक की अग्नि को वह पृथ्वी तक पहुँचाने का साहस करता है। यह उसके देवलोक के स्वार्थ के विरुद्ध है और उनके अनुसार अनैतिक भी। फिर भी प्रोमेथियस यह करता है। उसे इसकी सजा मिलती है। उन्नीसवीं सदी के समाजवादी चिन्तक कार्ल मार्क्स ने स्वयं की तुलना प्रोमेथियस से की है। मार्क्स स्वयं मजदूर सर्वहारा तबके से नहीं आते थे, किन्तु उन्होंने उस तबके के लिए ज्ञानाग्नि उपलब्ध कराई। उनकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। उनके एकबद्ध होने की अपील की। उनके नारे से पूरी 20 वीं सदी गूंजती रही।
हमारे देश में बुद्ध प्रभु तबके से आते थे, किन्तु उन्होंने गृहत्याग किया और दुखी जनों केलिए स्वयं को समर्पित कर दिया। अनेक ऐसे उदाहरण हैं। फ्रांसीसी क्रांति के विचारकों में से एक वाल्तेयर स्वयं पादरी ( पुरोहित ) परिवार से आए, किन्तु उनके विचार पुरोहितवाद के विरुद्ध थे। पुरोहितो को उन से इतनी घृणा हुई कि मृत्यु के बाद उन के शव के लिए चर्च से जुड़े कब्र में जगह देने से इंकार किया। आम्बेडकर के मन में वाल्तेयर के प्रति असीम श्रद्धा थी। उन्होंने पीड़ा के साथ एक बार कहा था, ब्राह्मणों में ज्ञान की समृद्ध परंपरा रही है, लेकिन वे एक वाल्तेयर नहीं दे सके।
प्रोमेथियस, वाल्तेयर और कार्ल मार्क्स समाज के प्रभु तबके में हुए, किन्तु उन्होंने अपने संवेदनात्मक ज्ञान से उत्पीड़ित समुदाय को मुक्त या समृद्ध करने की कोशिश की। लेकिन आज कोई प्रोमेथियस स्वर्गलोक से अग्नि चुरा कर पृथ्वी के अंधकार को दूर क्यों नहीं कर रहा, कोई सिद्धार्थ बहुजन हिताय के लिए राजमहल क्यों नहीं छोड़ रहा, कोई वाल्तेयर अपने ही वर्गीय स्वार्थों के विरुद्ध आवाज क्यों नहीं उठा रहा, कोई जवाहरलाल अपने आनंद भवन को छोड़ मुक्ति-अभियान में जेल क्यों नहीं जा रहा ? यह समस्या व्यक्ति स्तर पर भी है और सामाजिक स्तर पर भी। मध्यवर्ग की पहचान यही होती है कि वह अपने वर्ग स्वार्थों से ऊपर उठ कर सोचता है। लेकिन जाने किस दबाव में भारतीय मध्यवर्ग इस मामले में गैर जिम्मेदार रहा है।
1990 में जब मंडल आयोग की अनुसंशाएँ लागू की गई थी तब एक व्यापक कोहराम हुआ था। कोहराम खड़ा करने में मध्यवर्ग की केंद्रीय भूमिका थी। खुद को काबिल और होशियार मानने वाले लोग यह समझने के लिए तैयार नहीं थे कि पीछे रह गए लोगों को सार्वजानिक जीवन, विशेष कर एक्सक्यूटिव संरचना में शामिल करने की कवायद होनी चाहिए। इतिहास में कुछ और पीछे जाएं तो दलितों के लिए जब धारा सभाओं में आरक्षण की व्यवस्था अंग्रेजी हुकूमत ने 1932 में की थी, तब भी बावेला हुआ था। जब कभी सुधारात्मक बातें होती हैं, समाज का प्रश्रय प्राप्त तबका इसका विरोध करता है। हिन्दू कोड बिल का सवाल हो या उन्नीसवीं सदी में सती प्रथा के निवारण का मामला, ऐसे विरोध होते रहे हैं। ज़मींदारी उन्मूलन, बैंक राष्ट्रीयकरण, प्रीवी पर्स के खात्मे सभी मामलों में विरोध हुए। इन मामलों में कुछ लोग संविधान की दुहाई दे रहे थे।
ऐसा इसलिए होता है कि भारत का संविधान लचीला है। इसके अनेक अर्थ निकाले जा सकते हैं। यह एक विवेकशील संहिता है जिसमें संभव सभी उच्च आदर्श को समाहित करने की कोशिश की गई है। इसमें फ्रांसीसी क्रांति के आदर्श भी है और ब्रिटिश संसदीय लोकतंत्र के तरीके भी। अमेरिका के स्वतंत्रता संघर्ष के सन्देश हैं तो हमारे भारतीय मुक्ति संग्राम के उद्घोष भी। इसमें ऋषियों की पवित्र आकांक्षाएं हैं तो भक्ति आंदोलन और नवजागरण के अक्स भी। वैज्ञानिक दृष्टिकोण है, तो संवेदना के अभिज्ञान भी. इस तरह इसमें हमारी समस्त ज्ञानपरम्परा पुंजीभूत है।
आज जब हम कोई सुधार और संशोधन करते हैं तो यह भी देखते हैं कि यह संविधान के मूल नीति निदेशक सिद्धांत से भटक तो नहीं रहा है। लेकिन कुछ लोग हैं जो पड़ोस में तो सुधार चाहेंगे, अपने घर में नहीं। आप सुधर जाएं, मैं अपने को नहीं सुधारूंगा। जब यह स्थिति आती है तब हमारा सामाजिक पाखंड सतह पर दिखने लगता है। यह हिन्दुओं, मुसलमानों, अगड़ों, पिछड़ों, दलितों सभी वर्गों में दिखता है। इसीलिए कोशिश यह होनी चाहिए कि हम समग्रता में वैज्ञानिक नजरिए से मामलों को देखें। जिस मुल्क का मध्यवर्ग जाति, धर्म और पुराने ख्यालों में गहरे धंसा होगा उसकी सोच भी इतनी ही खंडित और दरिद्र होगी।
सती प्रथा पर हमने 1988 में पाखण्ड देखा, जब दिवराला में यह मामला उठा था। एक जवान विधवा सती बना दी गई थी। एक जाति विशेष के लोग कोहराम मचाए हुए थे कि यह हमारी परंपरा है, हमारा धर्म है। इस में दखल मत दो। हमें अपनी बहुओं को जिन्दा जलाने की छूट मिलनी ही चाहिए। तमाम बड़े नेता चुप थे। पत्रकार प्रभाष जोशी ने सती-समर्थन में सम्पादकीय लिखा था। स्वामी अग्निवेश सौ से कम लोगों का एक जत्था लेकर विरोध के लिए निकले, लेकिन सती के समर्थन में कोई पंद्रह लाख की भीड़ थी। रामजन्मभूमि मामले में भी भीड़ न्याय करने केलिए उद्धत हुई और फिर क्या हुआ सब को मालूम है। कहते हैं अस्पृश्यता निवारण के लिए जब गांधी ने यात्रा की तो उन्हें धर्म विरोधी कहा गया। मंदिर प्रवेश आंदोलन के प्रसंग को भी याद किया जाना चाहिए।
अधिक दयनीय स्थिति मुस्लिम समाज की है। इसका मध्य वर्ग अपनी अलग पहचान केलिए व्यग्र दिखता है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि यह समाज आज भी कुरआन हदीस की मान्यताओं के बीच टिका हुआ है। दुनिया भर के समाजों का सुधार प्रक्रिया से गुजरना हुआ है। बुद्ध, ईसा, मुहम्मद अपने समय और समाज के सुधारक ही थे। बुद्ध ने तो अनवरत सुधार की जरूरत बताई है। ईसाइयों के समाज में रेनेसां और प्रबोधन के तौर पर मध्यकाल में भी सुधार आंदोलन हुए। हिन्दू समाज में राममोहन राय से लेकर आम्बेडकर तक समाज सुधार की एक समृद्ध परंपरा रही है। इन सभी सुधार आंदोलनों में धर्मशास्त्रों और धार्मिक रूढ़ियों की आलोचना हुई।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि मुस्लिम समाज इस तरह की सुधार प्रक्रिया से नहीं गुजरा है। आज भी भारत का इस्लाम ईसा की सातवीं सदी और अरबी मनो-मिजाज में ठहरा हुआ है। हिन्दुओं की तरह मुसलमानों का भी प्रश्रय प्राप्त तबका ही सुधारों का विरोध करता है। इसलिए कि यथास्थिति उनके वर्गीय हित में होती है। हिन्दुओं के द्विज समूह या अपर कास्ट की तरह मुसलमानों के यहाँ उनका असरफ तबका है। यह तबका बार-बार शरीअत और अपनी पहचान का हवाला देता है। इसी बल पर वह समान नागरिक कानून और अन्य सुधारों का विरोध करता है। आज़ादी के आंदोलन के दौरान भी खिलाफत मुद्दे पर इन लोगों ने बाधा पहुंचाई और संघर्ष को दिग्भ्रमित किया। बाद के समय में इसी अलग पहचान के नारे से पाकिस्तान का फलसफा तैयार हुआ और अंततः वतन का बंटवारा हुआ।
राष्ट्रीय आंदोलन के गांधी, नेहरू, पटेल, मौलाना आज़ाद सरीखे नेताओं की एक नहीं सुनी गई। जब बँटा हुआ भारत बना तो राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं ने बचे हुए मुसलमानों को पूरी आज़ादी और नागरिक भागीदारी के साथ यहाँ जगह दी। पाकिस्तान का नारा खाए-अघाए असरफ जमींदार मुसलमानों का शिगूफा था। पाकिस्तान बनने के बाद उनमें से ज्यादातर वहां चले गए। पिछड़े दलित मुसलमान यहाँ रह गए. मुट्ठी भर असरफ जो रह गए, कुछ समय तक तो भारत भक्ति प्रदर्शित की,लेकिन फिर इस्लाम की चिन्ता में शामिल हो गए। मेरी जानकारी में ये असरफ मुसलमान ही इस्लामी पहचान के हिमायती और सुधार विरोधी रहे हैं। उनकी पट्टी पढ़ कर कुछ पिछड़े जाहिल मुसलमान भी उनके राग अलापते हैं। मुसलमानों की असली समस्या आर्थिक और सामाजिक है। उन्हें रोज़गार, शिक्षा और स्वास्थ्य के अधिकार की जरूरत सबसे अधिक है। कुरआन और हदीस ने उन्हें आधुनिक जीवन से काट कर रख दिया है जैसे हिन्दुओं के बड़े हिस्से को मनुस्मृति और हनुमान चालीसा ने बेकाम दकियानूसी बना दिया है।
हिन्दुओं की तरह मुस्लिम समाज को भी एक व्यापक सुधार और सेकुलर सोच की जरूरत है। आधुनिक तुर्की के नेता कमाल पाशा ने वहाँ एक व्यापक सुधार किया था। मैंने कुछ समय पहले कमाल पाशा पर लिखा तो कुछ लोगों ने उसका मज़ाक उड़ाया। बात चाहे जितनी कटु लगे लेकिन मैं कहूंगा कि मुसलमानों के अपने सामाजिक ताने-बाने में सुधार करने ही चाहिए। इसका पहला चरण यह होगा कि इस्लाम की फ़िक्र छोड़ कर वे अपने नागरिक जीवन की फ़िक्र करें। पढ़े-लिखे मुसलमान मित्रों से भी आग्रह होगा कि वे अपने निजी हितों की तिलांजलि देकर प्रोमेथियस की तरह व्यापक सामाजिक हित में काम करें। मुस्लिम समाज अपनी कूपमंडूकता से बाहर आए। आधुनिक बोध और तौर-तरीकों को अपनावें। इस्लाम में बहुत अच्छी बातें भी हैं. उनसे वे स्वयं लाभान्वित हों और दूसरों को होने दें। इसी तरह हर धर्म-मजहब की तरह वहाँ कुछ गलत तौर-तरीके और विचार भी हैं। उन गलत चीजों से वे मुक्त हों। मसलन बुरका और मजहबी टोपी उनकी जरूरत नहीं, जिद्द है। इससे उनका ही अहित हो रहा है. मदरसों को या तो बंद कर देना चाहिए या फिर उन्हें इतना आधुनिक बनाया जाय कि दूसरे धर्म के बच्चे भी वहाँ पढ़ने केलिए उत्सुक हों। चर्च संचालित स्कूलों और आर्यसमाजी डीएवी में तो एड्मिशन केलिए दूसरे धर्म के लोग भी पैरवी करते हैं, मदरसों में ऐसा क्यों नहीं होता।
और इस वक़्फ़-तक़्फ़ के फालतू चक्कर में वे न पड़ें। अपनी शिक्षा, रोज़गार और माली हालात के मुद्दों पर आगे बढ़ें। किसी मजहबी धार्मिक जिद से किसी को कोई सहानुभूति नहीं होती। आधुनिक समाज में धर्म-आध्यात्म की भूमिका व्यक्तिगत स्तर पर ही होनी चाहिए। वे भारतीय बनें. वे इसी मिटटी के हैं। वह आगे बढ़ कर आज के भारतीय समाज के हिस्सा बनें और उसके निर्माण में भूमिका निभाएं। वह उस तरह भारतीय बनें जैसे कभी खुसरो, कबीर, जायसी और लालन फ़कीर बने थे। वे अलग पहचान केलिए नहीं, साझी पहचान के लिए सक्रिय हों। हिन्दू और मुसलमान एक कदम आगे बढ़ कर हिन्दुस्तानी बन जाएं।

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